ताराराम जी ने जोधपुर से ई. मार्सडेन की एक पुस्तक 'भारतवर्ष का इतिहास' नामक पुस्तक का लिंक भेजा है. यह पुस्तक 1919 में छपी थी. इसमें प्रकाशित कबीर का स्कैच उनकी एक अलग छवि पेश करता है. इस पुस्तक में कबीर की आयु 40 वर्ष की बताई गई है. इस स्कैच में कोई कंठी, माला, मोरपंख, मुकुट आदि धार्मिक प्रतीक नहीं हैं. एकदम सादा शख़्सियत गढ़ी गई है. इस पुस्तक के अनुसार कबीर का जीवन 40 वर्ष रहा.
सवाल तो उठता रहेगा कि कबीर की मौत कुदरती थी या नहीं. उसकी वजह भी है. कबीर ने यदि सिर्फ़ ईश्वर, परमेश्वर, राम, अल्लाह का नाम लेकर जीवन बिताया होता तो लोगों के लिए कबीर के जीवन का आख़िर क्या महत्व हो सकता था? किसी को उसके उस भक्ति भाव से क्या चिढ़ या दुश्मनी हो सकती थी? आम आदमी आमतौर पर उस व्यक्ति को अधिक याद रखते हैं जिसने उनके लिए कोई संघर्ष किया हो. वरना ईश्वर, अल्लाह करते-करते करोड़ों-अरबों लोग मर चुके हैं. इतिहास या कथा-कहानियाँ उनका नाम तक नहीं लेतीं. फिर कबीर को ही क्यों याद किया जाता है? कबीर क्यों इतिहास की किताबों में दर्ज है?
दरअस्ल यह समझने की ज़रूरत है कि कबीर ने ऐसा क्या किया या ऐसा क्या कहा जिसके लिए उनके समकालीन कुछ लोगों ने कबीर का विरोध किया, आख़िर वे उनके विरोधी क्यों थे और कबीर इतिहासकारों की नज़रों में कैसे आ गए. इतिहासकारों के अनुसार कबीर प्रचार करते थे कि धर्म से पहले इंसानियत है. यही बात थी जो धार्मिक या मज़हबी लोगों को रास नहीं आती थी. कबीर यह भी समझाते रहे कि जात-पात और कुछ नहीं सिर्फ़ मेहनत करने वालों को अलग-थलग करने का औज़ार है और उस औज़ार को तोड़ना ज़रूरी है. कबीर व्यक्ति की आज़ादी के हिमायती थे और विवेक उनका पैमाना था. उनका यह संघर्ष मामूली संघर्ष नहीं था. वे उन ख़तरों से खेल रहे थे जो धार्मिक और जातिवादी लोग उनके लिए के पैदा कर दिए थे.
भूलना नहीं चाहिए कि दादू दयाल, रविदास, मीरा बाई जैसे कई अन्य संतों की हत्याएँ करने की बातें बताई जाती रही हैं. जाति बंधन तोड़ कर संत रविदास के दर्शन करने गई मीरा को ज़हर दिए जाने की बात दुनिया जानती है. कबीर के साथ क्या हुआ यह अभी भी खोज का विषय है.
सवाल तो उठता रहेगा कि कबीर की मौत कुदरती थी या नहीं. उसकी वजह भी है. कबीर ने यदि सिर्फ़ ईश्वर, परमेश्वर, राम, अल्लाह का नाम लेकर जीवन बिताया होता तो लोगों के लिए कबीर के जीवन का आख़िर क्या महत्व हो सकता था? किसी को उसके उस भक्ति भाव से क्या चिढ़ या दुश्मनी हो सकती थी? आम आदमी आमतौर पर उस व्यक्ति को अधिक याद रखते हैं जिसने उनके लिए कोई संघर्ष किया हो. वरना ईश्वर, अल्लाह करते-करते करोड़ों-अरबों लोग मर चुके हैं. इतिहास या कथा-कहानियाँ उनका नाम तक नहीं लेतीं. फिर कबीर को ही क्यों याद किया जाता है? कबीर क्यों इतिहास की किताबों में दर्ज है?
दरअस्ल यह समझने की ज़रूरत है कि कबीर ने ऐसा क्या किया या ऐसा क्या कहा जिसके लिए उनके समकालीन कुछ लोगों ने कबीर का विरोध किया, आख़िर वे उनके विरोधी क्यों थे और कबीर इतिहासकारों की नज़रों में कैसे आ गए. इतिहासकारों के अनुसार कबीर प्रचार करते थे कि धर्म से पहले इंसानियत है. यही बात थी जो धार्मिक या मज़हबी लोगों को रास नहीं आती थी. कबीर यह भी समझाते रहे कि जात-पात और कुछ नहीं सिर्फ़ मेहनत करने वालों को अलग-थलग करने का औज़ार है और उस औज़ार को तोड़ना ज़रूरी है. कबीर व्यक्ति की आज़ादी के हिमायती थे और विवेक उनका पैमाना था. उनका यह संघर्ष मामूली संघर्ष नहीं था. वे उन ख़तरों से खेल रहे थे जो धार्मिक और जातिवादी लोग उनके लिए के पैदा कर दिए थे.
भूलना नहीं चाहिए कि दादू दयाल, रविदास, मीरा बाई जैसे कई अन्य संतों की हत्याएँ करने की बातें बताई जाती रही हैं. जाति बंधन तोड़ कर संत रविदास के दर्शन करने गई मीरा को ज़हर दिए जाने की बात दुनिया जानती है. कबीर के साथ क्या हुआ यह अभी भी खोज का विषय है.
उक्त पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है. लिंक नीचे दिया है. पीडीएफ है इसलिए सारी पुस्तक खुलने में कुछ समय लगता है.
https://drive.google.com/open?id=0ByMLtxnRDG4mMmFQejltaTJmVUU
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