उप जातियों की उत्पत्ति के बारे में
विद्वानों में मतभेद नजर आते हैं. कुछ विद्वान मानते हैं की जाति के भीतर
भौगोलिक दूरी के कारण, व्यवसाय बदल जाने की वजह से, रीति-रिवाजों
में कुछ अंतर आ जाने की वजह से, व्यवसाय की तकनीक में अंतर आ जाने आदि के
कारण कुछ उप जातियाँ वजूद में आ जाती हैं. विशिष्ट राजनीतिक निर्णयों की वजह से भी
उपजातियां बनती देखी गई हैं. अपनी जाति में तिरस्कृत होने या ख़ुद उसका तिरस्कार
करने के परिणामस्वरूप भी उपजातियां पैदा हो जाती हैं. यदि किसी जाति
का एक व्यक्ति मजबूत स्थिति में आ जाता है तो वह अपने कमज़ोर भाइयों से अलग होकर
अपने से अधिक मजबूत जाति समूह में जाने का प्रयास करता है. जिससे एक अलग उपजाति की
उत्पत्ति हो जाती है. ऐसी बहुत सी प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं जिनके कारण जातियों
में उप-जातियाँ बनते देखी गई हैं.
किसी जाति
(वर्ण सहित) में कई प्रकार की गतिविधियों के कारण खंड या उप-खंड बनते जाते हैं.
जिनके बारे में ऊपर संकेत कर दिया गया है. उसके बाद अपने सामाजिक रूप-स्वरूप को
संजोए रखने के लिए वे उपजातियाँ कुछ कार्य करती हैं जैसे - शादियों को नियंत्रित
करना, अपने समूह में को-ऑर्डिनेशन बनाना, सामाजिक
जीवन को रेग्युलेट करना वगैरा. किसी व्यक्ति का स्टेटस निर्धारित करने, किसी के
धार्मिक और सिविल अधिकारों की हदबंदी करने, व्यवसाय का निर्धारण करने का काम भी वे
करती है.
चूँकि
उपजाति एक छोटा समूह होता है इसलिए वह व्यक्ति के लिए अधिक सार्थक हो जाता है.
मोटे तौर पर जाति और उप-जाति में से कौन अधिक वास्तविक है इसका फैसला करना मुश्किल है. इलाके के अनुसार किसी उपजाति की भूमिका अलग हो सकती है. अन्य जातियों
के साथ उसके संबंधों की ट्यूनिंग अलग हो सकती है. इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि किसी
जाति का अध्ययन करने के लिए उसकी उप जातियों का भी अध्ययन किया जाए. यानि गोत-वार
अध्ययन किया जाना चाहिए.
किसी जाति
की उप जातियों का उल्लेख करते हुए हम कहने लगते हैं कि वो उप-जाति नंबर वन है, वो नंबर
टू है और फलानी नंबर तीन है (जैसे मेघों में दमाथिए, बजाले, साकोलिए). यह गोतों का अलग-अलग अध्ययन
करने की वजह से है. बड़े सामाजिक ताने-बाने में यही प्रवृत्ति किसी जाति की
उप-जातियों में से अलग जातियाँ बनाने लगती है.
पिछले
दिनों भगत महासभा नामक संस्था ने मेघों के गोत्रों की सूचियाँ फेसबुक पर शेयर की
थीं जो श्री ताराराम जी ने एक पुराने सेंसस संबंधी संदर्भ के साथ उपलब्ध कराई थीं.
उससे पहले डॉ ध्यान सिंह के थीसस में देरियों के संदर्भ में गोत्रों की एक सूची
मिली थी. दोनों ही सूचियों के पूर्ण होने का कोई दावा नहीं किया गया लेकिन ज़ाहिर
है सेंसस के आधार पर बनी सूची बड़ी तो है ही. इसी संदर्भ में श्री राजकुमार ‘प्रोफेसर’ का फोन
आया कि किश्तवाड़ के एक सज्जन ने बताया है कि सूची में गोत्र (गोत) और उप-जाति को
लेकर वे उलझन में हैं. स्वभाविक है कि जब तीन नाम हैं जाति (caste), उप-जाति (sub-caste) और गोत /
गोत्र या खाप (sub-caste?) तो कुछ फ़र्क तो होना चाहिए.
मैंने
राजकुमार जी से अनुरोध किया कि वे किश्तवाड़ वाले सज्जन से पूछें कि उनके ख़ानदान
वाले किस गोत में शादी नहीं करते हैं. इससे मालूम हो जाएगा कि उनका अपना गोत क्या
है. रही उप-जाति की बात, मैं समझता हूँ कि शादी के अवसर पर दोनों पक्ष एक दूसरे से
जात और गोत पूछते हैं जिसका अर्थ गोत ही होता है. उप-जाति पूछने का रिवाज़ मैंने नहीं
देखा. इस बात को हमारे समाज के एक वरिष्ठ सदस्य श्री प्रेमचंद सांदल जी, रिटायर्ड
प्रशासनिक अधिकारी, पीजीआई, चंडीगढ़ और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश रानी सांदल ने टेलीफोन पर बातचीत के दौरान
कन्फ़र्म किया है.
संभव है
किन्हीं इलाकों में व्यवसाय या किसी आदत के आधार पर उप-जातियाँ बना ली गई हों और गोत भी
रख लिया गया हो. लेकिन वो अभी रिसर्च का विषय है. फिलहाल शादी के समय गोत ही पूछा
जाता है. शादियों के समय ऋषि गोत्र का इस्तेमाल होते देखा गया है जैसे- भारद्वाज, अत्री, कश्यप
आदि. लेकिन ऋषि गोत का इस्तेमाल समाज की वैवाहिक परंपरा का उल्लंघन करवा सकता है.
इस लिए सावधान ! अपने जाति नाम और गोत नाम का इस्तेमाल करें.
संदर्भित आलेख : जाति और उप-जाति में अंतर