"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


02 November 2020

Use of Social Media - सोशल मीडिया का उपयोग

बहुत से लोगों को याद होगा कि कई वर्ष पहले भगत महासभा ने जालंधर से सोशल मीडिया पर एसएमएस के ज़रिए मेघ समुदाय के बारे में छोटी-मोटी जानकारियाँ भेजने का सिलसिला शुरू किया था. मेघ समुदाय के किसी भी सामाजिक संगठन की सोशल मीडिया पर यह एक पहलकदमी थी. कई लोगों के लिए यह चौंकाने वाला कार्य था और कुछ कारणों से कुछ के लिए चिढ़ाने वाला कार्य. लेकिन इस संस्था ने अपने नाम का बहुत विज्ञापन किया. विज्ञापन शब्द को हमें भूलना नहीं चाहिए. इस बीच उन्होंने अपने संगठनात्मक ढाँचे के साथ प्रयोग किए. जम्मू में उनकी उपस्थिति काफी ताकत के साथ दर्ज हुई. लेकिन जैसा कि होता रहता है उसके बाद संगठन से लोग जुड़े और टूटे भी. लोगों ने उनके द्वारा आयोजित कार्यक्रम विभिन्न शहरों में देखे हैं. कुछ कार्यक्रम मैंने भी देखे हैं.

मैं यहाँ सोशल मीडिया की बात को रेखांकित कर रहा हूँ. इन दिनों कोरोना काल या वायरस युग चल रहा है. इसमें सामाजिक संगठनों की गतिविधियाँ तो छोड़िए शादी-ब्याह, यहाँ तक कि राजनीतिक जलसे-जुलूस तक घरों में छिप गए. बड़े राजनीतिक संगठन, जिनके पास व्यापक मीडिया था वे अपनी बात लोगों तक पहुँचा पा रहे थे. प्रकाशित अख़बारों को नुकसान उठाना पड़ा. सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए लोगों की निर्भरता टीवी, कंप्यूटर-स्मार्ट फोन यानि फेसबुक, व्हाट्सएप, युट्यूब वगैरा पर बढ़ गई.

यह बात ध्यान खींचती है कि इन दिनों भगत महासभा (रजि.) ने भगत नेटवर्क के नाम से सोशल मीडिया पर ख़ुद को विस्तारित किया. उन्होंने कुछ राज्यों में जिला स्तर तक अपने पदाधिकारी या अपने लिंक स्थापित किए, प्रभावी आवाज़ की धनी एक युवा छात्रा नेहा भगत को अपना ब्रांड एंबेसडर भी नियुक्त किया जिसके माध्यम से संदेश दिए गए. यह विज्ञापन का असरदार तरीका है. जानकारी से भरे ऐसे धारा प्रवाह बोलने वाले बहुत से युवाओं-युवतियों की मेघ समाज को ज़रूरत है.

कहने का तात्पर्य है कि सोशल मीडिया किसी भी संगठन को एक बहुत बड़ा रोड मैप देता है. सोशल मीडिया का ऐसा इस्तेमाल अन्य मेघ संगठनों को भी करना चाहिए.

29 October 2020

Madra, Megh and Jhelam - मद्र, मेघ और झेलम

 मद्रों, मेघों के संदर्भ में कई जगह ‘वितस्ता’ का उल्लेख पढ़ा है जिसे कई जगह वैदिक काल की ‘झेलम’ नदी या झेलम का वैदिक कालीन नाम बताया गया है. इस 'झेलम' शब्द की उच्चारण ध्वनि इतनी सख़्त है कि संदर्भित क्षेत्र में उसकी लोक प्रयुक्ति का काल लंबा नहीं हो सकता. इसकी उच्चारित ध्वनि लोक-भाषा में 'जेह्लम' जैसी है. वितस्ता जैसे कई नाम नकली प्रतीत होते हैं. मुझे लगता है कि इन नामों के मूल स्वरूप की खोज प्राकृत और पाली भाषाओं की मदद से की जानी चाहिए जिससे कई अन्य शब्दों (मद्र, मेदे, मीडी आदि) की यात्रा को ट्रैक करने में मदद मिलेगी. जहाँ कहीं भी लिखा हो कि यह ‘वैदिक काल’ का है तो उससे यह संकेत अवश्य लेना चाहिए कि उस शब्द का संस्कृत में परिवर्तित रूप ऐसा भी हो सकता है जिसका मूल ध्वनि से शायद कोई संबंध ही न रह जाए. 'जेह्लम' और 'वितस्ता' में उच्चारित ध्वनियों में कोई समानता कोई भाषा-विज्ञान स्थापित नहीं कर सकता जब तक कि किसी दूरस्थ क्षेत्र की ध्वनि का आक्षेप उसमें न दिख जाए.

यह भी देखेंः  मेदे, मद्र, मेग, मेघ


11 October 2020

Gotra and sub-caste puzzle - गोत्र और उप-जाति की पहेली

उप जातियों की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद नजर आते हैं.  कुछ विद्वान मानते हैं की जाति के भीतर भौगोलिक दूरी के कारण, व्यवसाय बदल जाने की वजह से, रीति-रिवाजों में कुछ अंतर आ जाने की वजह से, व्यवसाय की तकनीक में अंतर आ जाने आदि के कारण कुछ उप जातियाँ वजूद में आ जाती हैं. विशिष्ट राजनीतिक निर्णयों की वजह से भी उपजातियां बनती देखी गई हैं. अपनी जाति में तिरस्कृत होने या ख़ुद उसका तिरस्कार करने के परिणामस्वरूप भी उपजातियां पैदा हो जाती हैं. यदि  किसी जाति का एक व्यक्ति मजबूत स्थिति में आ जाता है तो वह अपने कमज़ोर भाइयों से अलग होकर अपने से अधिक मजबूत जाति समूह में जाने का प्रयास करता है. जिससे एक अलग उपजाति की उत्पत्ति हो जाती है. ऐसी बहुत सी प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं जिनके कारण जातियों में उप-जातियाँ बनते देखी गई हैं. 

किसी जाति (वर्ण सहित) में कई प्रकार की गतिविधियों के कारण खंड या उप-खंड बनते जाते हैं. जिनके बारे में ऊपर संकेत कर दिया गया है. उसके बाद अपने सामाजिक रूप-स्वरूप को संजोए रखने के लिए वे उपजातियाँ कुछ कार्य करती हैं जैसे - शादियों को नियंत्रित करना, अपने समूह में को-ऑर्डिनेशन बनाना, सामाजिक जीवन को रेग्युलेट करना वगैरा. किसी व्यक्ति का स्टेटस निर्धारित करने, किसी के धार्मिक और सिविल अधिकारों की हदबंदी करने, व्यवसाय का निर्धारण करने का काम भी वे करती है. 

चूँकि उपजाति एक छोटा समूह होता है इसलिए वह व्यक्ति के लिए अधिक सार्थक हो जाता है. मोटे तौर पर जाति और उप-जाति में से कौन अधिक वास्तविक है इसका फैसला करना मुश्किल है. इलाके के अनुसार किसी उपजाति की भूमिका अलग हो सकती है. अन्य जातियों के साथ उसके संबंधों की ट्यूनिंग अलग हो सकती है. इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि किसी जाति का अध्ययन करने के लिए उसकी उप जातियों का भी अध्ययन किया जाए. यानि गोत-वार अध्ययन किया जाना चाहिए. 

किसी जाति की उप जातियों का उल्लेख करते हुए हम कहने लगते हैं कि वो उप-जाति नंबर वन है, वो नंबर टू है और फलानी नंबर तीन है (जैसे मेघों में दमाथिए, बजाले, साकोलिए). यह गोतों का अलग-अलग अध्ययन करने की वजह से है. बड़े सामाजिक ताने-बाने में यही प्रवृत्ति किसी जाति की उप-जातियों में से अलग जातियाँ बनाने लगती है. 

पिछले दिनों भगत महासभा नामक संस्था ने मेघों के गोत्रों की सूचियाँ फेसबुक पर शेयर की थीं जो श्री ताराराम जी ने एक पुराने सेंसस संबंधी संदर्भ के साथ उपलब्ध कराई थीं. उससे पहले डॉ ध्यान सिंह के थीसस में देरियों के संदर्भ में गोत्रों की एक सूची मिली थी. दोनों ही सूचियों के पूर्ण होने का कोई दावा नहीं किया गया लेकिन ज़ाहिर है सेंसस के आधार पर बनी सूची बड़ी तो है ही. इसी संदर्भ में श्री राजकुमारप्रोफेसरका फोन आया कि किश्तवाड़ के एक सज्जन ने बताया है कि सूची में गोत्र (गोत) और उप-जाति को लेकर वे उलझन में हैं. स्वभाविक है कि जब तीन नाम हैं जाति (caste), उप-जाति (sub-caste) और गोत / गोत्र या खाप (sub-caste?) तो कुछ फ़र्क तो होना चाहिए. 

मैंने राजकुमार जी से अनुरोध किया कि वे किश्तवाड़ वाले सज्जन से पूछें कि उनके ख़ानदान वाले किस गोत में शादी नहीं करते हैं. इससे मालूम हो जाएगा कि उनका अपना गोत क्या है. रही उप-जाति की बात, मैं समझता हूँ कि शादी के अवसर पर दोनों पक्ष एक दूसरे से जात और गोत पूछते हैं जिसका अर्थ गोत ही होता है. उप-जाति पूछने का रिवाज़ मैंने नहीं देखा. इस बात को हमारे समाज के एक वरिष्ठ सदस्य श्री प्रेमचंद सांदल  जी, रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी, पीजीआई, चंडीगढ़ और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश रानी सांदल ने टेलीफोन पर बातचीत के दौरान कन्फ़र्म किया है. 

संभव है किन्हीं इलाकों में व्यवसाय या किसी आदत के आधार पर उप-जातियाँ बना ली गई हों और गोत भी रख लिया गया हो. लेकिन वो अभी रिसर्च का विषय है. फिलहाल शादी के समय गोत ही पूछा जाता है. शादियों के समय ऋषि गोत्र का इस्तेमाल होते देखा गया है जैसे- भारद्वाज, अत्री, कश्यप आदि. लेकिन ऋषि गोत का इस्तेमाल समाज की वैवाहिक परंपरा का उल्लंघन करवा सकता है. इस लिए सावधान ! अपने जाति नाम और गोत नाम का इस्तेमाल करें.

संदर्भित आलेख :  जाति और उप-जाति में अंतर

 

07 October 2020

Ultimate Jnanam - अल्टीमेट ज्ञानं

 

हवा, पानी, आग, रोशनी आदि प्रकृति की शक्तियां अपना काम हमेशा करती रहती हैं। इन्हें भी इंसानी दिमाग ने ईश्वर कहा है। जब इंसान महसूस करता है कि उसके जीवन में अभावों का कहीं अंत नहीं है तो वह भी सोचता है कि कोई शक्ति तो होगी जो उसकी जरूरतों को पूरा करे। संसाधन किसी शक्तिशाली या धूर्त के कब्जे में रहते हैं। यदि वो किसी की ज़रूरतों को पूरा करने की हालत में होता है तो वह ख़ुद एक शक्ति या ईश्वर का स्टेटस प्राप्त कर लेता है। मुसीबत (जैसे जान का ख़तरा) में भी इंसान को किसी शक्ति की ज़रूरत महसूस होती है जो उसकी रक्षा करे। तब वो जिसे भी मानता है उसे पूरी मानसिक ताकत से याद करता है और उसके अपने ही मन की प्रोजेक्शंस किसी न किसी रूप में उसकी मदद करती हैं। जैसे किसी का रूप प्रकट हो जाना और मदद मिल जाना। आज तक इसका कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं मिला कि बाहर से कोई अदृश्य शक्ति मदद करती है। इस प्रोसेस में छोटे-बड़े शासकों और पूंजीधारियों तक को ईश्वर या भगवान बने या भगवान का स्टेटस प्राप्त होते देखा गया है। यहाँ धूर्तों की भी भूमिका रहती है।

यदि कोई मन से किसी को भगवान या ईश्वर मान कर अपने ही मन से ताक़त-तरकीब हासिल कर लेता है तो भी मुबारक है। यदि उसे किसी जेनुइन इंसान से मदद मिल जाती है तो वो भी मुबारक है। ईश्वर-परमेश्वर के चक्कर में लुट नहीं जाना चाहिए।



इति अल्टीमेट ज्ञानं।🙂

 

*एक मित्र को भेजी गई टिप्पणी.

 


25 August 2020

The History of Madra and Meghs: Dr Naval Viyogi - मद्रों और मेघों का इतिहास: डॉ नवल वियोगी

आज से लगभग 7 वर्ष पहले श्री गिरधारी लाल डोगरा (जी.एल. भगत), आईआरएस (आज सेवानिवृत्त इनकमटैक्स कमिश्नर) ने बताया था कि मेघ समुदाय पर स्वनामधन्य इतिहासकार नवल वियोगी जी ने एक पुस्तक पर कार्य किया है. तब से एक उत्सुकता बनी हुई थी. फिर 18 अक्तूबर 2019 को जब ताराराम जी चंडीगढ़ आए तब उन्होंने भी उक्त पुस्तक का उल्लेख किया. उसी दिन वियोगी जी की पत्नी श्रीमती उषा वियोगी से फोन पर जानकारी ली. उन्होंने पुष्टि की कि एक पुस्तक प्रकाशनाधीन है. 15 अगस्त 2020 को ताराराम जी ने बताया कि सम्यक प्रकाशन, दिल्ली ने वियोगी जी की पुस्तक ‘मद्र और मेघों का प्राचीन व आधुनिक इतिहास’ नामक पुस्तक का प्रकाशन कर दिया है. ऑर्डर प्लेस कर दिया. तीसरे दिन से ही दिल को इंतज़ार था कि पुस्तक कब मिलेगी. कल 24 अगस्त को पुस्तक मिल गई. दिल को ऐसे आराम मिला जैसे कोई नज़दीकी रिश्तेदार मिला हो. 

पुस्तक के तीसरे पन्ने पर पुस्तक के शीर्षक के नीचे कोष्ठकों में लिखा है: ‘(मेघ तथा ब्राह्मणों की समान उत्पत्ति का इतिहास)’. पाँचवें पन्ने पर पुस्तक के लिए ‘दो शब्द’ लिखने की परंपरा का निर्वाह श्री गिरधारी लाल डोगरा जी की कलम से ही हुआ और आगे वियोगी जी का लेखकीय प्राक्कथन है. आज इन दो पर ही अपनी बात लिख रहा हूँ. अपनी दिनांक 20 फरवरी 2013 की टिप्पणी में श्री गिरधारी लाल डोगरा ने इस बात पर मलाल व्यक्त किया है कि निम्न जातियों के इतिहास का सृजन ब्राह्मणवादी विचारधारा के इतिहासकार नहीं कर रहे हैं. (संभवतः यह जातीय श्रेष्ठता में अपना स्थान ऊपर बनाए रखने की कवायद है.) वे इतिहासकार तब चिंतित हुए जब पुरातत्वविदों ने सिंधु घाटी के शहरों का इतिहास बताया कि वो प्राचीन सभ्यता आदिवासी यानि कथित निम्न जातियों के पूर्वजों की थी. परिणामतः इतिहासकार दो भागों में बँटे दिखे लेकिन निष्पक्ष इतिहास लेखन की दिशा में प्रगति अभी भी बाकी है. (कृपया तिथि याद रखें कि यह बात 20-02-2013 को लिखी गई थी.) 

श्री डोगरा बताते हैं कि डॉ वियोगी ने निर्भीक होकर आदिवासियों के इतिहास को प्रकाश में ला खड़ा किया है. डोगरा जी इस बात को रेखांकित करते है कि ब्राह्मणों और मेघों की उत्पत्ति एक ही है और कि मेघों के पूर्वजों -- मद्र, चेदी, बृहद्रथ, खारवेल, मेघ, महामेघ -- ने उत्तर से दक्षिण भारत तक के बड़े इलाके में बहुत समय तक शासन किया. 

डॉक्टर नवल ने अपना प्राक्कथन इसी कथन के साथ शुरू किया है कि यदि ‘भारत के ब्राह्मणवादी सोच वाले इतिहासकारों को कहा जाए कि वे नए सिरे से ब्रिटेन का इतिहास लिखें, तो अवश्य ही वहाँ जातिवाद और जातियों की तलाश कर लेंगे’ क्योंकि जाति के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता नहीं. प्राचीन भारत का इतिहास लिखते हुए भी उनकी यही सोच कार्य कर रही थी. जिस प्राचीन समाज में जाति को कोई जानता तक नहीं था वहां भी जातियों की तलाश की गई. इतिहासकारों को यह बताने में संकोच भी होता है कि वे स्वयं किस जाति से हैं. इस तरह उन्होंने उच्च जातियों की धार्मिक भावनाओं  को ठेस पहुंचने से बचाया है तो दूसरी ओर अन्य जातियों को दोयम दर्जे पर रखा जो उनकी एक कूटनीतिक चाल रही. वे बताते हैं कि हिंदुओं के सर्वोच्च आराध्य देव श्री राम का मूल संबंध गौतम बुद्ध के वंश यानी इक्ष्वाकु अथवा शाक्य वंश से था. उनके उत्तराधिकारी माली अथवा कुर्मी हैं. वे तक्षक नाग वंश से संबंधित थे. इसी सोच ने पठानिया तथा मेघ राजवंश की आपसी पहचान  नहीं बनने दी. इस विषय में भी चुप्पी साधी गई और राष्ट्र नहीं जान पाया कि उक्त दोनों राजवंशों का रिश्ता आज के मेघ और डूम जैसी जातियों के साथ है. इन दोनों वर्गों को चौथे वर्ग में धकेल देने का काम उन्होंने किया सिर्फ यह बता कर की ये मांस खाते थे. मांस तो अन्य जातियों के लोग भी खाते थे. 

ऐसे विकृत इतिहास का शिकार रहे मेघवंश के लोगों ने स्वयं मेघ वंश का इतिहास लिखने  का कार्य अपने हाथों में लिया. यहां नवल जी ने ताराराम जी के नाम का उल्लेख किया है जिन्होंने ‘मेघवंश: इतिहास और संस्कृति’ नामक पुस्तक लिखी है. 

डॉ नवल बताते हैं कि उनकी इस प्रस्तुत पुस्तक के लेखन के पीछे प्रेरणा का स्रोत श्री जी.एल. भगत (आईआर एस) रहे जो उच्च अधिकारी रहे और विद्वान लेखक भी हैं. नवल जी ने उल्लेख किया है की मग या कश्यप या कनौजिया ब्राह्मणों के साथ मेघ समाज का संबंध है और उनकी मूल उत्पत्ति अलग नहीं है. यहां उन्होंने डॉ राधा उपाध्याय का उल्लेख किया है जिन्होंने ‘विभिन्न ब्राह्मण परिवारों का संरचनात्मक और प्रसारात्मक अध्ययन’ नामक विषय पर शोध कार्य किया और पीएचडी की डिग्री हासिल की. उनके शोध कार्य को नवल जी ने इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में उद्धृत किया है. 

नवल जी ने अपने विषय के दूसरे भाग यानी मेघों के आधुनिक इतिहास का उल्लेख करते हुए डॉ ध्यान सिंह का विशेष रूप से उल्लेख किया है जिनका प्रसिद्ध शोध ग्रंथ ‘पंजाब में कबीर पंथ का उद्भव और विकास’ विषय पर था. इस शोध कार्य का उपयोग नवल जी ने आठवें अध्याय में किया है.

पुस्तक मंगवाने के लिए कृपया सम्यक प्रकाशन से निम्नलिखित मोबाइल पर संपर्क करें-

9810249452

15 August 2020

Megh population in 1891 compiled from census


पंजाब में सन 1891 में मेघ जनसंख्या 49301 थी, जिस में ब्रिटिश प्रोविंस (पंजाब) में 48035 हिन्दू, 65 सिख व 1201 मुसलमान थे। और नेटिव स्टेट्स(पंजाब के) में मेघ जनसंख्या 7356 थी, जिस में 7223 हिन्दू व 133 सिख थे। - ब्रिटिश टेरिटी में 41712 हिन्दू, 65 सिख व 1006 मुसलमान। -दिल्ली में कुल 477 , सभी हिन्दू। -करनाल में 39 हिन्दू, 272 सिख। -अम्बाला में 800 हिन्दू, 27 सिख व 80 मुसलमान। -शिमला में 12 हिन्दू, 1 सिख। -लुधियाना में 5 हिन्दू। -मुल्तान में 7 हिन्दू, 53 सिख। -मोंटगोमरी 2 मुसलमान। -लाहौर में 215 हिन्दू, 1 सिख व 103 मुसलमान। -अमृतसर 23 मुसलमान। -गुरदासपुर में 6802 हिन्दू, 15 सिख व 1 मुसलमान। -सियालकोट में 31871 हिन्दू, 21 सिख व 513 मुसलमान। -गुजरात (पंजाब का गुजरात) में 1430 हिन्दू, 8 मुसलमान। -गुजरांवाला में 41 हिन्दू, 13 मुसलमान। -रावलपिंडी में 18 हिन्दू। -पेशावर में 24 हिन्दू। -रोहतक में 1 हिन्दू। इसके अलावा झांग, कांगड़ा, फिरोजपुर, शाहपुर, झेलम, हाजरा, कोहट, डेरा गाजीपुर, मुजफ्फरगढ़ और बलीची ट्रैक में मेघ जनसंख्या दर्ज नहीं थी।

(Reference: census of India-1891, Volume.20, Table:C)

उक्त संदर्भ श्री ताराराम जी ने मैसेंजर के ज़रिए भेजा है.

30 June 2020

Why disinterested in history - इतिहास में अरुचि क्यों


इतिहास में हमारे छात्रों की रुचि क्यों नहीं बैठती इस बारे में पहले भी पोस्ट की है. जब कोई इतिहास के आइने में ख़ुद को  देख ही नहीं पाता तो वो आइना खरीदे ही क्यों.

यह बात भारतीय छात्रों के संदर्भ में सटीक है जबकि कई देशों के छात्र समाजशास्त्र से लेकर इतिहास और धर्म तक में बहुत रुचि रखते हैं. मैंने लिखा था कि हमें पढ़ाए जाने वाला इतिहास तारीखों से भारी है जिसे रटना मजबूरी सी लगती है. दो तारीखों के बीच राजा-महाराजा तो दिखते हैं लेकिन विस्तृत समाज नहीं दिखता. रुचि का तो फिर सवाल ही नहीं. ज़ाहिर है कि हमारा इतिहास समाज की यात्रा के दृश्य दिखाते हुए नहीं चलता. उससे तारीखें जानने के अलावा कुछ सीख पाना संभव नहीं होता.

समय-समय पर समाजों में हलचल हुई है और उस पर बातचीत भी ज़रूर हुई होगी. इतिहास ने उसका दस्तावेज़ीकरण क्यों नहीं किया. क्यो उस विमर्श को दरकिनार किया गया. ऐसा न करने के पीछे तथाकथित इतिहास लिखने वालों की क्या मंशा रही होगी. क्या वे किसी के किए पर तारीखों के पत्थर डाल कर तेज़ी से आगे बढ़ जाना चाहते थे.

पुरातत्व ने और आधुनिक इतिहासकारों ने मिल कर मुअनजो दाड़ो (जिसे सिंधुघाटी सभ्यता कहने का रिवाज़ अधिक था) को बौध सभ्यता प्रमाणित किया है और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर उसे विकसित नगरीय या नागरी सभ्यता पाया है. फिर क्या वजह हो सकती है उसके बाद हमारा यहाँ का समाज जातियों में बँटा, अंधविश्वासों से भर गया. समाज की यह धारा यदि विकास कही गई तो उस धारा का स्रोत कहाँ है. आज के समाज के स्वरूप को लेकर हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति सोच में पड़ जाता है. इस विषय पर संजय श्रमण जी की निम्नलिखित टिप्पणी फेसबुक पर पढ़ने को मिली :   

"अगर अपराधियों के हाथ मे शिक्षा और धर्म संस्कृति की कमान हो तो वे अपने अपराध का इतिहास मिटा देते हैं. साथ ही वो ऐसा बहुत कुछ भी मिटा देते हैं जिससे किसी समाज या राष्ट्र को आगे बढ़ने में मदद मिलती है. जिन मुल्कों ने तरक्की की है उनका इतिहासबोध साफ रहा है. साफ इतिहासबोध से ही साफ भविष्यबोध जन्म लेता है. भारत के पास अपने क्रम विकास का व्यवस्थित इतिहास नहीं है. और भारत इसीलिए एक सभ्य समाज या एक राष्ट्र नहीं बन पाया है. अपने इतिहास से वंचित भारत अपने भविष्य से भी वंचित हो गया है. इन दो बातों में सीधा संबन्ध है। इसे देखिये, समझिये. - संजय श्रमण"

विकास की प्रक्रिया में कई बातें इस तरह गुँथ चुकी होती हैं कि विकास के सकारात्मक या नकारात्मक होने का निर्णय करना मुश्किल हो जाता है. यह ठीक उसी तरह है जैसे हम विज्ञान के लाभ-हानियाँ गिनवाने लगते हैं और तभी हमें कारखानों और प्रदूषण के विचार एक साथ आने लगते हैं.

भारत अब एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में तेज़ी से चल रहा है. अब इसके इतिहास को विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से पुनः लिखने की ज़रूरत है.

06 June 2020

Megh War Veterans - मेघ वीर योद्धा

कई वर्षों से यह विचार मन में उमड़-घुमड़ रहा था कि हमारे मेघ समुदाय से जो लोग सेना में गए हैं और युद्ध क्षेत्र में अपनी शूरवीरता के लिए कई पदक आदि भी प्राप्त किए हैं उनका कोई एक समेकित रिकॉर्ड होना चाहिए. इस बारे में मैंने एक-दो मंचों पर बात रखी थी कि किसी व्यक्ति को इस बारे में पहल कदमी करते हुए मेघ योद्धाओं से संबंधित डाटा और उनके जीवन से संबंधित जानकारी इकट्ठी करनी चाहिए. लेकिन बात बनी नहीं.

इसे संयोग कह लीजिए कि श्री गोपीचंद भगत के बारे में उनके सुपुत्र श्री महेंद्र पॉल ने लिखा. फिर अख़नूर के डॉ के. सी. भगत के ज़रिए मुझे वीर चक्र प्राप्त कैप्टेन तुलसीराम जी के बारे में जानने को मिला. यह भी मालूम हुआ कि जालंधर के ब्रिगेडियर आत्माराम जी को भी वीर चक्र प्राप्त हुआ था. उन्होंने पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में दुश्मन को उसके घर में घुस कर मारा था और उस युद्ध में उनकी एक आँख चली गई थी लेकिन उनके उत्साह और वीरता के जज़्बे का गर्म खून धमनियों में हमेशा धड़कता रहा. 1966-67 के आसपास वे चंडीगढ़ में हमारे घर आए थे तब उन्होंने अपने बारे में कुछ वाक्यों में अपने अनुभव की जानकारी दी थी. तब मेरी आयु 16-17 वर्ष रही होगी. उनकी बातें सुन कर गर्व महसूस होता था. संभवतः वे जाट रेजीमेंट में थे. उनके बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिल पा रही.

पिछले दिनों ताराराम जी ने एक प्रोजेक्ट अपने हाथ में लिया है जिसमें वे मेघ योद्धाओं का डाटा और जानकारी एकत्रित कर रहे है. उन्होंने मुझसे भी जानकारी चाही. मेरे चाचा सूबेदार हरबंस लाल आर्मी में रहे थे और उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में बरमा की लड़ाई में हिस्सा लिया था लेकिन उनके बारे में मेरे पास नाममात्र की ही जानकारी थी. उनके सुपुत्र और मेरे चचेरे भाई डॉ अशोक भगत के ज़रिए कुछ और जानकारी मिली जो मैंने ताराराम जी को भेज दी हैं. श्रीमती विजय रूजम ने अपने पिता कैप्टेन बेलीराम और श्री अशोक भगत ने अपने पिता सूबेदार गुलज़ारी लाल जी के बारे में जानकारी दी है जो ताराराम तक पहुँचा दी गई है. अन्य वीरों के नाम सामने आ रहे हैं. देखते हैं उनके बारे में कितनी जानकारी मिल पाती है. ताराराम जी के प्रयत्न से वह जानकारी और डाटा एक सुंदर और सुदृढ़ आकार ग्रहण कर रहा है और ये जानकारियाँ जल्दी ही पुस्तक रूप में प्राप्त हो जाएँगी.

जम्मू से बहुत से मेघ आर्मी आदि में गए हैं. किसी को उनके बारे में जानकारी इकट्ठी करनी चाहिए. वे जाँबाज़ हमारे समुदाय की शान हैं.

फिलहाल जो जानकारियाँ मिली हैं उसके दो लिंक इस ब्लॉग पर “वीर योद्धा” और “W.W.II के मेघ योद्धा” नाम से लगा दिए हैं. उसका संकेत नीचे दे दिया है.

27 April 2020

The Story of Religion is incomplete without Asur - असुर के बिना धर्म की कथा अधूरी है


मैंने असुर शब्द की व्याख्या पर एक ब्लॉग लिखा था जिसमें स्पष्ट लिखा था कि यदि किन्हीं संदर्भों में मेघों के लिए असुर शब्द इस्तेमाल हुआ है तो उसका अर्थ शक्तिशाली और प्राणवान के अर्थ में हुआ है. प्रमाण के तौर पर डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह के संदर्भ वहाँ लगा दिए थे. लेकिन वो काफी नहीं था. इस बीच हमारे अपने समुदाय के श्री आर.एल. गोत्रा जी ने काफी छानबीन करने के बाद जोशुआ जे. मार्क के एक शोध आलेख का लिंक भेजा जिसे पढ़ कर असुर शब्द के कई आयाम खुलते नज़र आए. मालूम पड़ा कि शब्दावलियों में चाहे कितनी भी भिन्नता हो सभी धर्मों के मूल में वे तत्त्व मौजूद हैं जो असुर से संबंधित व्याख्याओं के बिना अपनी वास्तविक संपूर्णता खो बैठते हैं.   

भारतीय मानस के संदर्भ में असुर का निकटतम पर्यायवाची शब्द राक्षस है. राक्षस यानि रक्षक (रक्षस्) जो रक्षा करता है. ज़ाहिर है कि रक्षक को शक्तिशाली और प्राणवान होना ही चाहिए. इस श्रेणी में आए कई नाम आपको पौराणिक साहित्य में मिल जाएँगे जैसे वृत्र, रावण, कृष्ण, हिरण्यकश्यप, महाराजा बली, कंस, प्रह्लाद आदि. इन नामों से आप जान सकते हैं कि पुराणपंतियों ने असुर और राक्षस की एक नकारात्मक तस्वीर भी बना दी है जो उनकी कथाओं में ऐसे चरित्र (या वो टोटम भी हो सकता है) को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करती है और पुराणपंतियों के टोटमों को श्रेष्ठ सिद्ध करती है. कहानियों से लगता है कि वृत्र और इंद्र किन्हीं दो विरोधियों के अपने-अपने टोटम हैं जिनके युद्धों की कहानियाँ गढ़ी गई हैं. संभव है वो पौराणिक कहानियाँ बहुत पुरानी भी हों जिनमें दो या अधिक समूहों के बीच संघर्ष दिखाया जाता है. वो युद्ध उनके परस्पर हितों की रक्षा के लिए सदियों लड़े गए निरंतर युद्धों जैसा है. कुछ समूह बिखरते और कुछ जुड़ते जाते हैं जिससे युद्ध का अंजाम तय होता है.

टोटम क्या है -
पीडिया में टोटम की परिभाषा इस प्रकार की गई है - “गणचिह्नवाद या टोटम प्रथा (totemism) किसी समाज के उस विश्वास को कहते हैं जिसमें मनुष्यों का किसी जानवर, वृक्ष, पौधे या अन्य आत्मा से सम्बन्ध माना जाए. 'टोटम' शब्द ओजिब्वे (Ojibwe) नामक मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले की भाषा के 'ओतोतेमन' (ototeman) से लिया गया है, जिसका मतलब 'अपना भाई/बहन रिश्तेदार' है”.

इस नज़रिए से देखें तो असुर एक साधारण टोटम से शुरू होता है और आगे चल कर शक्तिशाली राजसत्ता का प्रतीक बन जाता है. धर्म और राजनीति के घालमेल के मूल में यही तत्त्व और तथ्य मौजूद है.



16 January 2020

A Story in Loop - गुंजलिका में एक कथा




इतिहास का प्रवाह और भाषा (और उसकी ध्वनियों) का प्रवाह दो ऐसी रेखाएँ हैं जो एक दूसरे से लिपट कर चलती हैं. यदि एक रेखा छिटक कर अलग दिखती है तो दूसरी उसके व्यवहार की ओर इशारा कर देती है कि- 'वो देखो मेरी बहन अलग खिचड़ी पका रही है'. ‘मेघ’ शब्द की तलाश में निकले लोग ‘म’, ‘मे’, ‘में’ जैसी ध्वनियों का पीछा करते कहाँ-कहाँ पहुँचे इसका कुछ अनुभव हुआ है. यह ठीक वैसे हुआ है जैसे एम.ए. Pol.Science में करने के बाद लोग पोल्ट्री फार्मिंग को गूगल करने लगे या एम.ए. हिंदी करने वाले हिस्ट्री को गूगल करने लगे.😄लेकिन इसे इतना सरल भी न समझें. यही देश है जहाँ मिनांडर (Menander) जैसे ऐतिहासिक पात्र को मनिंदर भी कहा गया और मिलिंद भी. यहाँ भी आप बदली हुई ध्वनियों को खोजते हुए सत्य तक पहुँचने की कोशिश करते हैं.

शब्दकोश मेंमेघशब्द ढूँढने पर उसके अर्थ की व्यापकता को हम 'जगत के जीवन' की सीमा तक बड़ा-बड़ा करके देख सकते हैं. ‘नागमेघके तो कहने ही क्या. शेषनाग के सिर पर तो धरती टिकी रही. ‘मेघशब्द धरती के किस कोने में किस-किस अर्थ में इस्तेमाल हुआ यह दूसरी खोज है. नागवंश में से मेघवंश की उत्पत्ति इतिहास की तीसरी धारा है और उनकी जनसांख्यिक (demographic) स्थिति के साथ उनका बड़े-छोटे पैमानों पर एक जगह से अन्य जगह जाना एक तीसरी तरह की कथा है जो प्रशिक्षित और अनुशासित अध्ययन की मांग करती है.

जब मैंने कहीं पढ़ा था कि ओडिशा में भी कुछ लोग मेघ ऋषि (जिसे ऋग्वेद के आधार पर वृत्रासुर, नागमेघ, असुर मेघ भी माना गया) को अपना पूर्वज मानते हैं तब संदर्भों को संभाल कर रखने की आदत नहीं थी. बस जानकारी लेकर खुश हो लेते थे. इधर देखा है कि कई लोग मेघऋषि को पहचाने से इंकार करते हैं बल्कि नकार देते हैं. कुछ का मानना है कि मेघऋषि नहीं वो कोई मेघमुनि रहा हो सकता है क्यों कि ऋषियों से पहले हमारे यहाँ मुनियों की सद्परंपरा थी. कुछ भी हो इतना आभास तो हो ही रहा था कि ओडिशा में है तो उत्तर-पूर्व में मेघवंश, नागवंश की उपस्थिति ज़रूर होगी. ‘मेघालयराज्य ध्यान खींचता रहा. लॉर्ड कन्निंघम ने भी कहा था कि चीन की ओर से मेघों का प्रवेश असम (अविभाजित असम) में हुआ होगा. यह बात भूलती नहीं थी. कैसे भूलती. हमारे पुरखों ने धरती के एक बड़े भू-भाग को तय किया है. वे कोल भी कहलाए (कोलारियन थे), कोरी, निषाद आदि के रूप में वे दक्षिण भारत के संपर्क में आए. यह बात और है कि कन्निंघम ने भारत में आकर किसकी मदद से अपनी रिपोर्टें लिखीं जो इतिहास में दर्ज हो कर इतिहास बनीं और आज उन पर सवाल उठाए जाते हैं.

अरबी, तुर्की, फारसी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि मेंकी ध्वनि नहीं है. तो यहमेघध्वनि शुद्ध भारतीय ध्वनि ठहरती है चाहे इसका मूल किसी अन्य भाषा में ही क्यों न हो. श्री आर.एल. गोत्रा और श्री के.एल. सोत्रा में वैचारिक भिन्नता कितनी भी क्यों न रही हो दोनों ने इस बात को कहा है कि मेघों के लिएमेंगशब्द भी इस्तेमाल हुआ है. इसकी एक वेरिएशन 'मेंह्गा' (जैसे एक नाम 'मेंह्गाराम') के रूप में मिलती है जिसका प्रयोग कबीले के रूप में किया गया प्रतीत होता है. जहाँ 'मेंग' शब्द आया वहाँ उसके पास 'मेंह्ग' शब्द भी रखा था. इस सारी प्रक्रिया में जीभ की सुस्ती और चुस्ती की वजह से हुए उच्चारण के विचलन (variation) से स्पैलिंग की भिन्नताओं को कितनी दूर तक ढूँढा जा सकता है. थोड़ा और आगे चलते हैं. सोत्रा जीमेंगशब्द को ही असली मानते हैं. तो हम आखिरकार बारस्तामेंगफिर सेमेघतक पहुँचे और फिर सेमेंगतक आते हैं. ‘मुग़ल एम्पायरनामक एक पुस्तक है जो आशीर्बादी लाल श्रीवास्तव ने लिखी है. उसके दो पृष्ठों की फोटो कापियाँ श्री ताराराम जी ने भेजी हैं. इनके संदर्भ से ज्ञात होता है कि अविभाजित बंगाल (जिसमें आज का बांग्लादेश भी शामिल था) में एक नदी का नाममेघनाहै (आपको याद होगा सतलुज नदी का नाममेगारससथा जिसके किनारों परमेगयामेघबसे थे). मेघना नदी अब बांग्लादेश में है और भारत की दो बड़ी नदियों ब्रह्मपुत्र और गंगा का अधिकांश पानी मेघना में मिल कर ही समुद्र में जाता है. इस पुस्तक में बंगाल और बरमा (म्यांमार) के बीच एकअराकानराज्य का उल्लेख है जिसके शासकों के नामों में तीम नाम होते थे जिनमें से एक नाम मुस्लिम होता था. जैसे-

“(Meng Doulya (1481-1491)=Mathu Shah, Meng Yangu (1491-1498)=Mahamed Shah, Meng Ranoung (1493-94)=Nori Shah, Chhalunggathu (1494-1501)=Shekmodulla Shah, Meng Raja (1509-13)=Ili Shah, Meng Shou (1515)=Jal Shah, Thajat (1515-1521)=Ili Shah, Meng Beng (1581-58)=Sri Surya Chandra Dharma Raja Jogpon Shah, Meng Phaloung (Sekendar Shah 1671-1593), Meng Radzagni=Selim Shah (1598-1612), Meng Khamaung=Hussain Shah (1612-1622).)” इन नामों में लगे 'मेंग' शब्द का कुछ पीछा किया जाए.

इन शासकों के नामों से पहले लगेMeng (मेंग) शब्द का अर्थक्यूट’ (प्यारा, निपुण, प्रवीण, कुशल) जैसा मिल रहा है लेकिन पहली नज़र में लगता है कि इसे टाइटल या पहचान की तरह इस्तेमाल किया गया है जैसे कि मध्य एशिया के कुछ कबीलों के नामों में प्रयुक्त होता है. इन शासकों के बारे में इतना तो पता चलता है कि वे बौध थे हालाँकि उनके नामों में एक नाम मुस्लिम नाम भी होता था जो उनकी किसी के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक हो सकता है. यदि इसे डायनेस्टी मान कर गूगल करें तो चीन की मिंग (Ming) डायनेस्टी सामने पड़ती है लेकिन जल्दी ही वो एक अलग राजवंश होने का पता देने लगती है जिसके एक पाँव के नीचे नाग है और दूसरे पाँव के नीचे कछुआ. अब यहमिंगशब्द औरड्रैगनयानिनागशब्द भी ध्यान खींच रहे हैं. दक्षिणी चीन में ‘Snake Cults’ (जिसका अर्थनागपंथजैसा हो सकता है) का संदर्भ मिलता है. संभव है इसी का संबंध अविभाजित असम के मेघालय और नागा लोगों से रहा हो जो म्यांमार में भी रहते हैं. Nagaland (नागालैंड राज्य) औरनागाजनजातियाँ वहाँ हैं. टार्च लेकर अरुणांचल प्रदेश में भी देख लेना चाहिए.

इतना लिख कर मुझे फ़ील हो रहा है किमेंगशब्द को लेकर शायद मैं किसी फॉरबिडन एरिया (वर्जित क्षेत्र) में गया हूँ और मेरी कल्पना के जंगली घोड़े चीन की दीवार फाँदने के लिए आतुर हैं. उन्हें मैं कह रहा हूँ- 'ज़रा सब्र करो बच्चो'.

अब किसी को तो इतिहास की ऐसी पुस्तक लिखनी चाहिए जिसका टाइटल हो - ‘History of Nagas (Made Simpler)’.