"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


20 July 2012

Morning walk - evening walk – प्रातः की सैर - शाम की सैर

कई वर्ष से मैंने सुबह की सैर बंद कर दी है. शाम की सैर मुझे बेहतर मालूम पड़ती है. सुबह अपने तरीके से जीना और शाम को अपनी सुविधा से सैर करना बेहतर है.

सुबह की सैर का दूसरा अर्थ है हाँफती हुई मोटी-मोटी लड़कियाँ को देखना और अपनी ताक़त से अधिक ज़ोर लगा चुके थके और चुके हुए बूढ़े. लड़कियों का वज़न उनकी शादी में रुकावट रहा होगा इस लिए वे पार्क में होती हैं. दूसरी ओर वहीं पार्क में टहलते कुछ लड़कों का विचार है कि- ‘वज़न कोई समस्या नहीं यदि उसका बाप शादी में लड़की के वज़न के बराबर सोना साथ में दे’. सुबह की सैर में निठल्ले भी तो होते हैं.

शाम की सैर यानि बूढ़ों का ‘नक़ली लॉफ़्टर क्लब’ जो ज़िदगी की लानत को फेफड़ों की नकली ‘हा..हा..हा..’ से रगड़ कर साफ़ करने का जुगाड़ करता है. कामना करता है कि दो साल और जीने को मिल जाएँ. तमन्ना है कि कोई तमन्ना निकल जाए.

शाम को ज़िंदगी रिलैक्स करने के मूड में होती है. सूरज ढलते ही पार्क में पीजी (पेइंग गेस्ट) लड़कियाँ बॉय फ़्रैंड के साथ या मोबाइल के रूप में उसे कान से लगाए सैर करने आ जाती हैं. कम ही देखा है कि ये लड़कियाँ मोटी हों. ये अकेली होती हैं. घर से निकलते ही मोबाइल उनके कान से लग जाता है और सैर पूरी होने तक वहीं रहता है. अरे नहीं भाई, इनकी बातें सुनने के लिए जासूसी-वासूसी करने की कोई ज़रूरत नहीं. ये बिंदास मोबाइल का स्पीकर ऑन रखती हैं. इनकी आवाज़ इतनी फटपड़ है कि मेरे हमउम्र सीनियर हैरानगी की सीमा तक खीझ जाते हैं.

सैर करती हुई उन आवाज़ों को आप भी सुन लीजिए:

धाकड़ आवाज़- “तू आ, तेरी वाट लगाती हूँ.....जो तूने मेरे सर को कहा है.....उल्लू के पट्ठे.”

नाटकीय आवाज़, “मेरी माँ कंजूस है यार, पूरे पैसे नहीं भेजती है. खाना लैंड लेडी से उधार माँग-माँग कर खा रही हूँ और वो कमीनी सब्ज़ी में सिर्फ़ आलू खिला रही है.”

दबंग आवाज़, “उसे कह देना गेड़ी रूट पर चक्कर लगाते-लगाते मर जाएगा. हाथ कुछ नहीं आने वाला. बल्कि कॉम्प्लीमेंटरी झापड़ खाएगा.”

ठंडी आवाज़, “मोबाइल के लिए दस-दस पैसे का टुच्चा रीचार्ज दोस्तों से ले रही हूँ. तू न मुझे कोई तरीका बता दे कि मैं मिस्ड कॉल की तरह मिस्ड एसएमएस भेज सकूँ.”

विद्रोही आवाज़, “केले खा कर ज़िंदा हूँ मम्मी...ईईईईई....!  मैगी की पेटी जल्दी भिजवा दे माताश्री...ईईईईई...! जैसे ही मेरी नौकरी लगी समझ मैं तेरी ग़ुलामी से निकली. थोड़ी टापा कर तेरा वज़न कम हो जाए मोटी.”

दूसरों के कान बहुत कुछ सुनते हैं वो सब कुछ भी जो ये कभी नहीं कहतीं. लेकिन ये लड़कियाँ इसकी परवाह नहीं करतीं.


सुबह की सैर में ज़िंदगी की ज़रूरी आवाज़ें कम होती हैं. शाम की सैर जानदार होती है. शाम का सूरज अधिक रंग दे जाता है.

16 July 2012

The black has to die first – पहले काला मरेगा


In a Hollywood movie an African origin character Mr. Kol says to his white boss, "I know the black has to die first." Is it not ironical that a victim of racism is saying so?

I recollected this dialogue while reading a news regarding death of 24,000 children in Maharashtra State last year. They died of malnutrition. In a civilized country citizens may die of malnutrition but they do not die of hunger as the government definition of hunger  does not allow them to die of hunger. Moreover, malnutrition is not a matter of national shame.

Photographs show that children those who died were black, of course with straight hair. Nobody would have created a problem even if names of two ‘killers’ of children were published. The killers were Corruption and Indian Apartheid.  We all know that the pattern of 'corruption' in the country is based on our own local 'apartheid' and racism/casteism.

So, when, in any case, the black has to die first, let us express sort of condolences. The rest can be thought of later to design the format of condolence. 

हॉलीवुड की एक फिल्म में अफ़्रीकी मूल का एक पात्र 'मिस्टर कोल' अपने गोरे बॉस को कहता है, मैं जानता हूँ कि पहले काले को मरना होगा. रंगभेद के शिकार का ऐसा कहना मज़ेदार है न

पता नहीं क्यों इसकी याद हो आई जब महाराष्ट्र राज्य में पिछले वर्ष 24000 बच्चों के कुपोषण से मरने की खबर छपी. एक सभ्य देश में नागरिक भूख से नहीं मर सकते क्योंकि सरकार की भूख की परिभाषा उन्हें भूख से मरने की अनुमति नहीं देती, हाँ वे कुपोषण से मर सकते हैं. और बच्चों का कुपोषण राष्ट्रीय शर्म का मुद्दा भी नहीं है.

फोटो बताते हैं कि मरने वाले बच्चे काले थे. जिन्होंने उनकी हत्या की है उन दो हत्यारों का नाम भी बता दिया गया होता तो कोई बवाल भी होने वाला नहीं था. हत्यारों में एक भ्रष्टाचार है और दूसरा भारतीय रंगभेद. सभी जानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार का पैटर्न हमारे अपने स्थानीय 'रंगभेद' और वंशवाद/जातिवाद पर आधारित है.

अब क्योंकि पहले काले को ही मरना है सो थोड़ा अफ़सोस-ववसोस करते चलते हैं, बाकी फिर कभी सोचा जा सकता है कि अफ़सोस जताने का नया फार्मेट क्या हो.

संदर्भ- 24000 kids killed



06 July 2012

Akbar Ilahabadi- A poet still in flesh - अकबर इलाहाबादी- एक शायर जो ज़िंदा है



गुलाम अली की हंगामा ग़ज़ल हंगामा है क्यों बरपा का शायर कौन हैइसे लिखने वाला कोई इश्किया-पियक्कड़ शायर नहीं बल्कि जनाब सैयद हुसैन हैं जिनका जन्म सन् 1846 में और मृत्यु सन् 1921 में हुई लेकिन वे ज़िंदा है और हमारे बीच हैं. पियक्कड़ों के पक्ष में ग़ज़ल कहने वाले रिटायर्ड सेशन जज सैयद हुसैन-उर्फ़-अक़बर ‘इलाहाबादी’ आप हैं जिनसे मैं मुख़ातिब हूँ. बैठिए साहब.

आपकी की उँगलियाँ समाज की नब्ज़ पर रहीं. मुहज़्ज़ब (सभ्य) होने का जो अर्थ आपने सामने देखा उसे अब सामाजिक समस्याओं के तौर पर पिछले पचास साल से कालेजों में पढ़ाया जा रहा है. कम्पीटिशन और दौड़-भाग के माहौल में पिसते जिस जीवन को हम सभ्यता का विकास मानते हैं उसे आपने दो पंक्तियों में कह दिया. यह देखो आप ही ने लिखा है-


हुए इस क़दर मुहज़्ज़ब कभी घर का न मुँह देखा

कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर


जी सरइक्कीसवीं सदी आते-आते हम अस्पताल में भर्ती होने के लिए हेल्थ इंश्योरेंस के नाम से पैसे जोड़ने लगे हैं. अब घर में मरना बदनसीबी हो चुका है. यह आज की हक़ीक़त है.


महिलाओं के सशक्तीकरण के उन्नत बीज आपने अपने समय में देख लिए थे. आपका तैयार किया दस्तावेज़ आप ही की नज़्र है-


बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीबियाँ

अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया

पूछा जो उनसे -आपका पर्दा कहाँ गया?’

कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.


देखिए न, ज़माना महसूस करता है कि अक़्ल पे सदियों से कुछ पड़ा है.


कभी हटक्लर्क कहीं का एक चुभने वाली गाली थी. लेकिन आज 'सरकारी क्लर्कख़ानदानी चीज़ है. सुरक्षित नौकरीबिना काम वेतन और ‘ऊपर की कमाई. एमबीए वाली हाई-फाई नौकरियाँ ही अपने इकलौते भाई 'सरकारी क्लर्कको हेय दृष्टि से देखती हैं. आपने कहा भी है


चार दिन की ज़िंदगी है कोफ़्त (कुढ़न) से क्या फायदा

कर क्लर्कीखा डबल रोटीखुशी से फूल जा.


सरकारी नौकर के लिए खुश रहने के सभी कारण आपने दे दिए हैं. वह काफी फूल चुका है. उधर प्राइवेट सैक्टर और औद्योगीकरण में दिख रही समता आधारित सामाजिक व्यवस्था पर आप फरमा गए-


हम आपके फ़न के गाहक होंख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब

सब काम मशीनों ही से चलेधोबी न रहे नाई न रहे!


सरसरसर!!! पकड़ा आपने चतुर वर्ण व्यवस्था को. सोशियोलोजी पर आपका क़र्ज़ हमेशा बाकी रहेगा.


विकासवाद के सिद्धांत में डारून (डार्विन) द्वारा चंचल बुद्धि बंदरों को फिट करना आपको या मुझे कभी जँचा ही नहीं. हमारा सवाल साझा और सीधा है. सभी बंदर आदमी क्यों नहीं बने? जिसमें आदमी बनने की संभावना थी वह आदमी ही तो ठहरा नहमारे मूरिस (पूर्वज) बंदर हुए तो यह विकासवाद न हुआ इल्ज़ाम हो गया. आपने एक फैसले में कहा है-


'डारून साहब हकीकत से निहायत दूर थे,

मैं न मानूँगा कि मूरिस आपके लंगूर थे'


शुक्रिया जज साहब. ऐसा फैसला आप ही से मुमकिन था. पीने के आप कभी शौकीन नहीं रहे. लेकिन आपकी महफिल में चाय तो चल ही सकती है. लीजिए. 


लीडरों के बारे में देश की राय आजकल अच्छी नहीं. कभी कोई भला ज़माना रहा होगा जब लीडर अच्छे थे. अब तो हर शाख़ पर बैठे हैं. आप ही ने बताया था-


कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ


गाँधी के ज़माने का आपका यह डेढ़ सौ साल पुराना शे'र पढ़ कर दिल बैठा जा रहा है कि हम हमेशा से ही ऐसे लीडरों की रहनुमाई में रहे हैं और ख़ुदा ने हमें पनाह देना मुनासिब नहीं समझा. लीडर देश को खा गए और आप भी फ़रमा गए-


थी शबे-तारीक (अंधेरी रात), चोर आए, जो कुछ था ले गए

कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा


सही है हुज़ूरआप खाँसते रहे हैं. हम तो भौंकते हैं और चोर मुस्करा कर चल देता है. चलिए, छोड़िए. चलते हैं और कुछ देर जंतर-मंतर पर बैठ कर नए ज़माने की हवा खा आते हैं.