"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


Kabirpanthis of Punjab


मेघ जाति की उत्पत्ति और संक्षिप्त आधुनिक इतिहास : डॉ. ध्यान सिंह
(डॉ. ध्यानसिंह का पूरा शोधग्रंथ आप इस लिंक पर देख सकते हैं- पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास.)


यह निर्विवाद है कि पंजाब के मेघ (भगतमूलतः जम्मू राज्य की पहाडियों के तराई क्षेत्र में बसने वाली एक जनजाति हैइस जनजाति का लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है और न ही कोई आधिकारिक ग्रंथ विद्यमान है जिससे हमें सूचनाएँ मिल पाएँ कि यह जनजाति किस प्रक्रिया से हिंदुओं के अछूत वर्ग में रूपांतरित हुई है.

मुझे अनाधिकारिक कोटि की दो ऐसी पुस्तकें प्राप्त हुईंइनमें एक पुस्तक है अजमेर निवासी श्री गोकुलदास डूमड़ा रचित -'मेघवंश इतिहास पुराणऔर दूसरी पुस्तक है 'मेघमालाजिसके लेखक चंडीगढ़ के श्री एमआरभगत हैं.

'मेघमालाके लेखक भगत मुंशीराम मानते हैं कि 'मेघ' नाम पहाड़ी क्षेत्रों में सक्रिय बादलों की कलाओं से लिया गया हैये लोग इधर-उधर भटकते हुए जीवन व्यतीत करते थेजम्मू की पहाड़ियों में यह समुदाय घुमंतू समूह थाअंग्रेजों के आगमन के बाद ज़िला स्यालकोट में कातने-बुनने के व्यवसायों में भर्ती के साथ इन्हें मूलधारा में शामिल होने का अवसर मिलाकुछ लोग खेत मजदूरों के रूप में ग्रामीण क्षेत्रों में खपाए गए हैं.

किसी समय कश्मीर का क्षेत्र बौद्धधर्म के प्रभाव में रहा हैबौद्धधर्म के पतन के पश्चात यहाँ शैवों का प्रभाव देखा जाता हैतुर्कों के हमलों के बाद यहाँ इस्लाम का प्रसार ज़ोरों पर थाइस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जो क्षेत्र ब्राह्मण धर्म के प्रभाव के अंतर्गत नहीं थे अधिकांशतः धर्म परिवर्तन वहीं हुए हैंइस धर्मांतरित जनसंख्या का वहाँ के ब्राह्मणिक समुदायों से संबंध बना रहालेकिन ब्रिटिश भारत में इस क्षेत्र की औद्योगिक गतिविधियाँ स्यालकोट में केंद्रित हो गई थींस्यालकोट में औपनिवेशिक प्रशासनिक मदद से हिंदू समुदाय के उच्च वर्गों ने स्यालकोट में अपने औद्योगिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिए थेदस्तकार और श्रमिक अधिकांशतः मुस्लिम समुदाय के लोग थेऔद्योगिक प्रतिष्ठानों में बढ़ती हुई श्रमिकों की माँग की आपूर्ति आसपास के इन घुमंतू कबीलाई लोगों से हुईभारतीय इतिहास की पुरानी परंपरा है कि कबीलाई अथवा जनजातियों को श्रमिकों के रूप में मूलधारा में शामिल किया जाता रहाजाहिर है कि ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में इन्हें शूद्रों अथवा अछूतों की कोटि में रख कर मूलधारा में शामिल किया गया. ‘मेघ’ लोग जनजाति के रूप में पहले से ही जम्मू की उच्च जातियों द्वारा उत्पीड़ित थेनई व्यवस्था में वे खेत मजदूर व कल-कारखानों में काम करने वाले श्रमिक बने.

उस दौर के मेघ जाति के नेताओं में बाबू गोपीचन्दभगत बुड्डा मलभगत छज्जू रामप्रसिद्ध थेउन्होंने बहुत प्रयत्न किया मगर वे मेघों को ज़मींदारों की सूची में नहीं ला सकेहालाँकि बहुत लोग ज़मीन के मालिक थे और खेती का काम करते थे.

जम्मू में जगत राम एरियन नामक एक मेघ भगत था (जो विधायक भी रहा है), ने अपनी पुस्तक ‘इस्तगासा--राष्ट्रपति’ में मेघों को भूमि का मालिक बताया है और इन पर होने वाले अत्याचारों के बारे में लिखा है.

केंद्रीय प्रशासन द्वारा अनुसूचित जातियों की सूचियाँ 1931 में तैयार की गई थींजब अनुसूचित जातियों की सूची बनी तो उसमें मेघ जाति को नहीं लिया गया क्योंकि मेघ मानते थे कि वे अछूत नहीं हैंस्वयं को आर्य अथवा भगत कहते थेरहन-सहन में इनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती थीइसी कारण सेये लोग विशेष रियायतों/आरक्षण के हक़दार नहीं माने गएपरन्तु अन्ततः अनेक प्रयत्नों से मेघ जाति अनुसूचित जातियों की सूची में रख ली गई.

मेघमाला’ का लेखक स्वयं मेघ जनजाति से संबद्ध थाउसने अपने व्यक्तिगत अनुभव दर्ज किए हैंलेखक के पूर्वज कृषि करते थेतवी नदी के किनारे उनकी ज़मीन थीनदी में हर साल बाढ़ आने के कारण ज़मीन बह गई थीकोई और व्यवसाय न रहा तो वे राजपूत क्षत्रिय राजाओं की जम्मू रियासत छोड़कर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने वाले पंजाब में जिला स्यालकोट के गाँव सुन्दरपुर में जा बसे.

मेघमाला’ के लेखक ने बताया है कि मेघ जाति के लोग प्राचीन काल से भगत कहलाते आ रहे हैंभगत वह है जो भक्ति करता हैजिसकी आवश्यकताएँ दबा दी जाती हैं या सीमित कर दी जाती हैंचाहे जो भी काम करता हैजैसा समय आए वह वैसा व्यतीत कर लेता हैऐसे लोग स्वाभाविक भक्त हो जाते हैं.

मेघों या मेघवंशियों की उत्पत्ति के बारे में अनेक पौराणिक गाथाएँ और किंवदंतियाँ हैंपंजाब के मेघों ने भी अपनी जन-जातीय प्राचीनता और उच्च परंपराओं को खोजने का प्रयत्न किया है. ‘मेघवंश इतिहास’ इसी प्रकार का ग्रंथ है जिसमें मेघ समुदाय की ऋषि परंपरा खोजी गई है.

'मेघवंश इतिहास (ऋषि पुराण)" नामक ग्रंथ के लेखक गोकुलदास ने मेघ जाति के विकास का वर्णन किया हैइन्होंने लिखा है कि ऋषियों की उत्पत्ति और उनकी वंशावली स्मृतियों और पुराणों में विस्तारपूर्वक लिखी हुई हैयहाँ संक्षेप में मेघवंश जाति से संबंधित वंशावली का वर्णन दिया जा रहा है.

लेखक के अनुसार ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र और अत्री ऋषिअत्ति ऋषिअनुसुइया के ब्रह्माविष्णुमहेश के वचन से दत्तात्रेयदुर्वासा और चंद्रमा ये तीन पुत्र हुएअत्री ऋषि के समुद्रसमुद्र के चंद्रमा (सोमसे चन्द्रवंश चलाचंद्रमा के बृहस्पतिबृहस्पति के बुद्धबुद्ध से पुरुरवापुरुरवा से आयुआयु के नोहास (नहुषइनके सात पुत्र यतीययातिसंयातिउद्भव पाचीसर्य्याति और मेघ जाति.

ययाति के यदुइनसे यदुवंश चलाब्रह्मा जी के पुत्र वशिष्ट ऋषि की अरुंधति नामक स्त्री से मेघ उत्पन्न हुआ और ब्रह्माजी के पुत्रमेघ ऋषि से मेघवंश चलाब्रह्मा जी के जो 10 मानसपुत्र हैंउन सभी ऋषियों से उन्हीं के नामानुसार गोत्र चले जो अब तक चले आ रहे हैंउनमें वशिष्ठअत्रिअंगिराअगस्त्य आदि गोत्र इस जाति में अभी भी पाए जाते हैंअतः इस जाति का मूल इन्हीं ऋषियों में है और इस जाति की ऋषि उपाधि प्राचीन काल से है.

ब्रह्मा जी के पुत्र मेघ ऋषि थेजिनसे मेघवंश चलाये ब्रह्म क्षत्रिय थेइससे स्पष्ट है कि यह समाज ब्राह्मण और क्षत्रियों का मिला हुआ समाज है क्योंकि इस जाति के बहुत से प्राचीन वंश और गोत्र ब्राह्मणों से मिलते हैं और अधिकांश वंश और गोत्र क्षत्रियों से मिलते हैंइन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों में से हिन्दुओं की अनेक जातियों का प्रादुर्भाव हुआआरंभ से ही हिन्दू समाज की व्यवस्था का विधान ऐसा रहा है कि थोड़ा-सा दोष अथवा त्रुटि रहने पर व्यक्ति को श्राप देकर श्रेणी से अलग कर दिया जाता थाइस नीति के कारण अनेक छोटे-छोटे समूहों की उत्पत्ति होती चली आई है.

क्षत्रियों ने तो स्वार्थवश यहाँ तक किया कि अपने छोटे भाई और उसकी संतान को अपने बराबर का दर्जा तक नहीं दिया और धीरे-धीरे उसे अपने से अलग करके उसकी दूसरी जाति बना दी जैसे राजपूतरावतमीनाजाटअहीर आदिशास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि समय और आवश्यकता पड़ने पर प्राचीन महर्षि किसी भी जाति को वेदादि विधि से शुद्ध करके ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय बना लेते थे.

इस पुस्तक के लेखक का निष्कर्ष है कि इन्हीं दोनों वर्णों (ब्राह्मणक्षत्रियसे बहुत सी जातियाँ निकलीं और बहुत-सी जातियाँ अपने कर्मानुसार इनमें मिलींउसने इस जाति की प्रामाणिकता के लिए कुछ पौराणिक प्रमाण भी दिए हैंमत्स्य पुराण में कश्यप की धनु नामक स्त्री से सौ पुत्रों में एक मेघवान बतलाया गया है.

मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट 1891 भाग में लिखा है कि, ‘परमेश्वर’ ने अपने बदन के मैल से एक पुतला बनाया और उसको जिंदा करके ‘मेघचंद’ नाम रखाउसके चार बेटे हुएराँगीजोगाचंड और आदराजोगा (जोग चन्द्रअदरा (आदि रिख). आगे यह भी लिखा है कि “बाजे मेघ वालों ने यों भी लिखाया कि मेघचंद असल में ब्राह्मण था और मेघ ऋषि कहलाता थाउसकी औलाद मेघवाल है.” इसी ग्रंथ के पृष्ठ 535 में गरुड़ जाति का इतिहास लिखा है जिसमें लिखा है कि ब्रह्मा जी के दो बेटे थेमेघ ऋषि और गर्ग ऋषिमेघ ऋषि के मेघवाल और गर्ग ऋषि के गारुड़ हुए.

संत राम कृत पुस्तक ‘हमारा समाज’ (जनवरी 1949 .) के पृष्ठ संख्या 112 पंक्ति 14 में लिखा है कि मेघों के पूर्वज ब्राह्मण थेबम्बई “कास्ट एंड ट्राईब्ज़” नाम के अंग्रेजी ग्रंथ के मराठी अनुवाद (सन् 1928 .) के पृष्ठ संख्या 240 पर मेघवाल जाति का वृत्तान्त हैउसमें जाति के जन्मदाता का नाम मेघ ऋषि लिखा है जिसका रिखिया-राखिया (ऋषिनाम से कहलाना भी लिखा हैसर इबर्टसन कृत जनगणना रिपोर्ट पंजाब (सन् 1881) में जातियों का जो वृत्तान्त छपा है वह पुनः सन् 1916 में पंजाब सरकार द्वारा “कास्ट एंड ट्राईब्ज़ ऑफ पंजाब” नाम से प्रकाशित हुईउसमें मेघ जाति के लिए लिखा है कि ये लोग जम्मू की पहाड़ियों में पाए जाते हैंकपड़ा बुनने का कार्य करते हैंमौज मंदिर जयपुर से मिती भादवा सुदी शनिवार सम्मत् 1991 विक्रमी को इस जाति की व्यवस्था के लिए एक स्टाम्प पर वहाँ के पंडितों ने जो लिख कर दिया था उसमें यह भी था कि इस प्रांत में जो जाति बलाई नाम से प्रसिद्ध है वह अस्पृश्य शूद्र जाति है.

मेघवंश इतिहास ग्रंथ में लिखा है कि वैदिक काल में वस्त्र बुनने वालों की बड़ी प्रतिष्ठा थीउनका बड़ा सत्कार था और उनके बनाए वस्त्र धारण करके लोग स्वयं को आयुष्मान मानते थेवैदिक काल में समस्त ऋषि वस्त्र बुनने का कार्य करते थेमातंग ऋषिमेघ ऋषिलोमश ऋषिजोग चंदआदरारागीपारीक विशिष्टमहचंदअत्रिअंगिरा आदि ऋषि इसके आविष्कारक थेइसमें सिद्ध करने की कोशिश है कि मेघ ब्राह्मण हैंकपड़ा बुनना अच्छा काम है जो वेदों के समय से चलता आ रहा है.

मेघमाला’ के लेखक ने ‘जाति कोष’ नामक पुस्तक (साधु आश्रमहोशियारपुरको उद्धृत करते हुए लिखा है, “…जिसके पृष्ठ 77 पर लिखा है कि ‘इनका पूर्वज ब्राह्मण की संतान था’वह काशी में रहा करता थाउसके दो पुत्र थेएक विद्वान और दूसरा अनपढ़पिता ने विद्वान पुत्र को पढ़ाने के लिए कहापर उसने पढ़ाने से इंकार कर दियाइस पर विद्वान पुत्र को बहिष्कृत कर दिया गयाउसकी संतान मेघ है”लेकिन ‘मेघमाला’ के लेखक भगत मुंशीराम ने स्वयं ही बहुत प्रभावी तरीके से इस कथा का खंडन कर दिया हैमेघ जाति के विषय में एक और भी कथा है. “जम्मू के प्रथम राजा के विषय में सुना जाता है कि उसके अंगरक्षक बड़े बहादुर थेराजा के आदेश मिलने पर एकदम रक्षा करने और शत्रुओं को झटपट पकड़ लेने का काम करते थेसजा देते थेउधर के लोग उनसे बहुत डरते थे और कहते थे कि ‘ये मेघ हैं.' क्योंकि ये लोग भी ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले थेवहाँ की स्थिति के अनुसार और संस्कारों की वजह से उन अंगरक्षकों को मेघ जाति का कहते थेउसके बाद उन अंगरक्षकों की जो संतान हुई वे भी बहादुरी का संस्कार प्रचलित रखने के लिए मेघ कहलाए. “जम्मू की तरफ़ से हमारा ब्राह्मण पुरोहित हर साल आता था और एक मुसलमान मिरासी भी आया करता थावह हमारी वंशावली पढ़कर सुनाया करता था और आखिर में हमारी जाति को सूर्यवंश से मिलाता थाहम मेघ जाति के लोग सूर्यवंशी हैं." एक जगह लिखा है कि “एक ब्राह्मण जम्मू में आया थाजिसने यज्ञ किया और गौ बलि दी मगर वह गाय को जीवित न कर सकाइसलिए उन ब्राह्मणों ने उसका तिरस्कार किया और उसी की संतान मेघ कहलाई”.

साक्षात्कारों से यह पता चला है कि सभी मेघ स्वयं को ब्राह्मणों के साथ जोड़ते हैं लेकिन यह कहना भी नहीं भूलते कि वे शूद्र हैंविदित है कि मेघ अछूत थे और उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल कर लिया गया है.

भारत में विदेशियों के पदार्पण और उनके स्वेच्छाचारी शासन के कारण हिन्दू समाज की सामाजिक अवस्था पूर्ण रूप से अस्तव्यस्त हो चुकी थीसमय के प्रवाह ने इस समाज को जिसके संबंध में हम लिख रहे हैं अछूता नहीं छोड़ाइस जाति से अनेक शाखाएँ निकलकर भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नामों से फैल गईंइसकी आजीविका के साधन भी परिस्थिति और कालभेद के कारण एक दूसरे से भिन्न हो गएअलग-अलग टुकड़ों में बैठ जाने के कारण और अनेक दूसरी जातियों के समावेश के कारण इनका सामाजिक स्तर कायम नहीं रह सकाजहाँ रीति-रिवाज़ों की असमानता पैदा हुईवहाँ अनेक सामाजिक कुरीतियों ने भी घर कर लियाफलस्वरूप हिंदू समाज में इस जाति का एक पददलित समाज का दर्जा बन गयाक्योंकि धार्मिक प्रतिबंधों (यथा मनुस्मृति में निर्धारितके कारण यह जाति शिक्षा से दूर कर गई थी इसलिए शिक्षा के अभाव के कारण किसी को भी इस ओर विचार करने का अवसर नहीं मिला. 18वीं शताब्दी के अंत तक यह जाति अत्यंत हीन अवस्था में थीजम्मू प्रांत में राजपूत राजाओं का राज्य थाउनके अधीन रहना स्वाभाविक थाये लोग उनके दास बनकर रहेजिन बडे भूमिपतियों की खेती का ये काम करते थे वे भी उतना ही देते थे जिससे ये जीवित भर रहेंअन्य जातियों के लोग इनसे घृणा करते थेमेघ जाति के लोगों के मन में दासता और हीनता का भाव गहरे तक बैठा दिया गया थालेखक का कहना है कि मैंने स्वयं मेघ जनजाति के लोगों की पीड़ित जिंदगी को देखा हैकई परिवार ऐसे थे जिनको तन ढाँपने के लिए कपड़ा नहीं मिलता थाखाने में सब्जी-दाल नहीं होती थीसूखी तंदूरी रोटियाँ होती थींघर के पाँच सदस्य हों तो पाँच रोटियाँ बनाते.

यह दलित वर्ग सामंतशाही व जागीरदारी प्रथाओं के अंतर्गत निस्सहाय थाइनसे अनुचित बर्ताव किया जाता थाजब इसके विरुद्ध कुछ लोगों द्वारा प्रबल आंदोलन खड़ा किया गया तो शुरुआती तौर पर भयभीत ग्रामीण जनता में से बहुत कम लोगों ने इसमें सहयोग दियाजिन मुट्ठी भर लोगों ने इस आंदोलन में अग्रणी बनकर कार्य किया उन पर पाश्विक अत्याचार हुएकुओं से पानी भरनाजंगल से लकड़ी लानाचरागाहों में उनके पशुओं का चरना निषिद्ध कर दिया गयालेकिन जैसे-जैसे लोगों में साहस बढ़ता गया वे इन कष्टों का संगठित रूप से प्रतिरोध करने लगेयह क्रम वर्षों चलता रहाधीरे-धीरे दलितों में चेतना बढ़ी तो व्यवस्था का विरोध शुरू कियालोगों ने अपने रहन-सहन के तरीके बदलना आरंभ कियाअनेक गांवों में प्रबल संघर्ष हुएयहाँ तक कि कई निरपराध व्यक्तियों को अपने प्राण गँवाने पडेअनेक गाँवों में फ़ौजदारी मुकदमे चले जिनमें अपार जन-धन की क्षति हुई.

हमें ध्यान में रखना होगा कि जम्मू क्षेत्र में केंद्रित मेघ अछूतों से भी दयनीय स्थिति में जीवन जीते रहे हैंये हिन्दू और मुसलमान दोनों द्वारा तिरस्कृत थेमंदिरमस्जिद में प्रवेश निषेध थायहाँ के सत्ताधारी राजपूत अथवा डोगरे इन पर पाश्विक अत्याचार करते रहे हैंये बंधुवा मज़दूर के रूप में ऊँची जातियों की सेवा में लगाए जाते थेइन्हें स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता थाइन्हें मेघ होने के कारण फ़ौज में या अन्य कहीं नौकरी नहीं मिलती थीविवाह शादी पर घोड़ी पर बैठना मना थासिर पर तेल नहीं लगा सकते थेकोई सिर पर तेल लगा लेता तो उसके सिर में मिट्टी डाल दी जातीइन्हें पगड़ी बाँधने का हक भी नहीं थाइनके बच्चों का अच्छा नाम रखने की भी मनाही थीजाति पहचान ‘मेघ’ एक अपमान का सूचक मानी जाती थीजम्मू में राजपूत लोगों ने इनका शोषण कियाराजपूतों ने पुराने जम्मू में इनके स्थानों पर ज़बरदस्ती कब्जा कियाकइयों को भगा दियाकइयों को मार दियाकइयों को जिंदा ही जला दियाजम्मू में एक काला कानून ‘कारे बेगार’ लागू थाकोई भी राजपूत इन लोगों से बेगार करवा सकता थाकानूनी तौर पर ये मना नहीं कर सकते थेयदि कोई मना करता तो उसे पीटा जाताउसे पुलिस थाने ले जाकर कोड़े लगवाए जातेरू.50/- (पचास रुपएजुर्माना किया जाताये तो पहले ही गरीब थेइतनी रकम कहाँ से होतीइसलिए इन्हें शारीरिक यातना ही सहनी पड़ती.

राजपूत लोग मुसलमानों के साथ तो कुएँ से पानी पी लेते थे लेकिन इन लोगों को पानी के पास फटकने भी नहीं देते थेइसी लिए बहुत से मेघ मुसलमान हो गएजो धनाढ्य मुसलमान थे वे अपनी बेटी की शादी में काम करने के लिए दो मेघ भेजते थेपीछे से उनके परिवार को गुजर-बसर के लिए कुछ पैसे देते रहते थेकहते हैं कि दुल्हन उतना नहीं रोती थी जितना कि ये मेघमृत्यु तक ये उनके वफ़ादार बनकर काम करते.

कानूनी तौर पर इन्हें ज़मीन रखने का अधिकार नहीं थाये सिर्फ़ खेत-मजदूरी ही कर सकते थेइनके श्मशान घाट भी अलग ही होते थेइन्हें गाँव में और घरों में जाने की मनाही थी.

भीषण सामन्ती शोषणों के सताए कुछ मेघ युवाओं और उद्यमी लोगों ने जम्मू से पलायन भी कियाजम्मू के साथ सटा हुआ राज्य पंजाब था जिसमें स्यालकोटगुरदासपुर तथा कुछ हिमाचल का हिस्सा थास्यालकोट में अँगरेज का राज्य थावहाँ बँधुआ मज़दूरी लगभग नहीं थीलोगों को खेती व उद्योग धंधों में रोजगार आम मिलने लगाजिससे इन लोगों ने पूरे परिवार सहित पलायन कियाये लोग स्यालकोट से ही मलखा वालीसरगोधा आदि इलाकों में फैल गएदूसरी ओर जम्मू के साथ पठानकोट लगता थापठानकोट से होते हुए कांगड़ा व हिमाचल के अन्य भागों में ये लोग फैल गए.

प्रान्तीय भेद और जातीय उपभेदों के कारण जिस परिस्थिति और कालवश जहाँ जैसी जीविका के साधन उपलब्ध हुए उन्होंने वैसे ही अपना लिएलेकिन इनकी समस्याओं का हल इन्हें शहरों की ओर पलायन में ही दिखायही कारण है कि इस समाज के लोग न केवल भारत के दूर-दूर के शहरों में ही फैले हैं बल्कि पड़ोसी देशों तक में जाकर आबाद हुए हैं.


आर्य समाज और मेघ


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वीं शताब्दी में धार्मिक तथा समाज सुधारक आंदोलनों में आर्य समाज निःसन्देह सबसे महत्वपूर्ण थास्यालकोट के डस्का शहर में सन् 1884 में और जफ़रवाला में 1887 में आर्यसमाज स्थापित हो चुकी थीये दोनों समाजें मेघोद्धार का केंद्र थीं.

हिंदू समाज के दमन से तंग आए निम्नजातियों के हिन्दू इस्लाम तथा इसाई धर्म की ओर जाने लगे थेआर्य समाज के प्रयत्नों से यह प्रवाह कम हुआआर्यसमाज के प्रयत्नों के फलस्वरूप हिंदू समाज में अछूतों के साथ कुछ अच्छे सलूक की शुरुआत हुईआर्यसमाज ने दलितों के उद्धार की ओर भी ध्यान दिया.

बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा स्यालकोटगुरदासपुर और गुजरात जिलों में मेघों की शुद्धि के उद्धार का कार्यक्रम आरम्भ किया गया. 1903 में स्यालकोट आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव में निश्चित किया गया कि मेघों की शुद्धि का श्रीगणेश कर दिया जाएसनातनी हिन्दुओंईसाइयों और मुसलमानों ने इसका विरोध कियादिनांक 28-03-1903 को 200 मेघों का शुद्धिकरण किया गयापरंतु आर्यसमाज के इस कार्य को सवर्ण हिन्दू और मुसलमान सहन नहीं कर सकेस्यालकोट के राजपूत और मुसलमान ज़मींदारों के सामने मेघों की स्थिति गुलामों जैसी थीवे किसी भी दशा में उन्हें बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं थेमेघों ने राजपूतों को 'ग़रीब नवाज़' कहना छोड़ 'नमस्ते' कहना शुरू किया तो उन्हें राजपूतों ने शुद्ध हुए मेघों को लाठियों से पीटा और मुसलमान जमींदारों ने उन्हें अपने कुओं से पानी भरने से रोक दियापृथक कुएँ भी नहीं खोदने दिएमेघों पर झूठे मुकद्दमे चलाए गएलेकिन शुद्धिकरण का काम बंद नहीं हुआआर्यसमाजी जी-जान से मेघों की सहायता के लिए वचनबद्ध थेवे उनके साथ खान-पान का व्यवहार करते थे और उनकी शिक्षा के लिए प्रयत्नशील थेपर्वों और संस्कारों के अवसर पर उनसे मिलते-जुलते थेआर्यों ने उन्हें ‘मेघ’ के स्थान पर ‘आर्य भगत’ कहना शुरू कर दिया थामेघों को नया नाम और नई पहचान मिलीवे अनेक प्रकार की दस्तकारी सीख कर अपनी आर्थिक दशा को उन्नत कर सकेमेघ लोग बहुधा खेती-बाड़ीस्पोर्ट्ससर्जिकल जैसे कामों में देखे जा सकते थेइन्होंने अपनी मेहनत से स्यालकोट का नाम रोशन कियाआर्य समाज द्वारा उनके लिए एक दस्तकारी स्कूल भी खोला जो आगे चल कर हाई स्कूल बना दिया गया थाएक आश्रम भी खोला गया जिसमें रहने वाले छात्रों को अपने घर से केवल आटा ही लाना होता थाअन्य सभी ज़रूरतें आर्यसमाज द्वारा पूरी की जाती थींआर्य मेघों ने सभा के तत्वाधान में सात प्राइमरी स्कूल देहात में खोले जिनके कारण मेघों को शिक्षा प्राप्त करने की अच्छी सुविधा प्राप्त हो हुईसन् 1906 में स्यालकोट आर्य समाज के प्रधान लाला देवीदयाल ने 2,000 रुपए इनके (शिक्षाके लिए दान दिए ताकि उस राशि पर प्राप्त सूद से मेघ विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जा सकेइससे गुरुकुल गुजराँवाला में दो मेघ बालक निःशुल्क दाखिल किए गए और वहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त कीइससे ‘आर्य भगत’ केसर चन्द के पुत्र ईश्वरदत्त को गुरुकुल में दाखिल करवाया गया और वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सन् 1925 में स्नातक (बी..) बनेसन् 1910 में इसके लिए ‘आर्य मेघोद्धार सभा’ नाम से पृथक सभा स्थापित कर दी गई जिसके प्रधान राय ठाकुर दत्त धवन और मंत्री लाला गंगा राम वकील थे.

अछूत समझी जाने वाली जातियों की दुर्दशा को ठीक करने तथा आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए सरकार ने भूमि प्रदान करना निश्चित कियाआर्य मेघोद्धार सभा ने भी मेघों (आर्य भगतोंके लिए सरकार से भूमि प्राप्त करने में सफल हो गएखानेवाल स्टेशन के पास एक भूखण्ड मेघोद्धार सभा को दिया गया जहाँ ‘आर्य नगर’ नामक एक नई बस्ती बनाने की योजना बनीबहुत से आर्य भगत वहाँ खेती के लिए बस गएउन्हें जमीनों का मालिक बनाया गया और जमींदारों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया गयाकई सुविधाएँ आने पर आर्यनगर आदर्श बस्ती बन गयाअछूत समझी जाने वाली जातियों की आर्थिक और सामाजिक दशा जिस प्रकार सुधरी उनका अंदाजा बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है.

मेघों की दशा सुधारने के प्रयास करने वालों में महाशय रामचन्द्र का स्थान सर्वोपरि हैमेघों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए संघर्ष करते हुए वे एक जानलेवा हमले का शिकार हुए और वे अपनी जान पर खेल गए.

लेकिन देखने में आया है कि अब आर्यसमाज आंदोलन बिखर गया हैयह सिर्फ़ उच्च जातियों का संगठन बन कर रह गया हैअपने मूल राह से भटके इस संगठन को दलित जातियों के लोग छोड़ गए हैं और छोड़ रहे हैं.

सिंह सभा आंदोलन और मेघ

आधुनिक पंजाब के धार्मिक एवं समाज सुधारक आंदोलनों में सिंह सभा आंदोलन एक महत्वपूर्ण आंदोलन थाइस आंदोलन की नींव 1873 में रखी गई.

सिंह सभा ने धार्मिकसामाजिक शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किएइस आंदोलन के प्रचारकों ने जाति प्रथाछुआछूत आदि कुरीतियों का खण्डन कियालाहौर सिंह सभा में बहुत से निम्नजातियों के लोग शामिल हुएअमृतसर सिंह सभा में उच्च श्रेणी के सिखों का प्रभुत्व थाइसलिए अमृतसर सिंह सभा (बाद में अमृतसर खालसा दीवानसिखों में अप्रिय हो गई और लाहौर सिंह सभा की सर्वप्रियता बढ़ती गई.

साक्षात्कारों से पता चला है ढोढू कोंट गांव में 1824 में जन्मे एक बाबा बूटा सिंह को खालसा राज का अनुभव थाएक छोटी-सी पुस्तक है जिसके लेखक कवि बांत सिंह ज्ञानी थेइस पुस्तक के प्रकाशन का वर्ष का पता नहीं चलता हैबाबा बूटा सिंह ‘मेघ’ थेइनकी शादी जम्मू के गाँव ‘पिंडी’ में हुई थीयह इसलिए लिखा जा रहा है कि कुछ कबीर पंथी मेघ पहले से ही सिख थेजो सिख होता था उसे छुआछूत नहीं होता थाइसी पुस्तक से पता चलता है कि जब सिंह सभा लहर चली तब ये लोग डाँवाडोल थे और जंगलों में भटक रहे थेइन्होंने 15 आषाढ़, 1882 के दिन अपने गांव में सिंह सभा की कांफ्रेंस की थी और इसी दिन 150 लोगों को अमृतपान कराया गयाबाबा बूटा सिंह ने पहली पत्नी के निधन उपरांत दूसरा विवाह कर लिया था जो जम्मू के गाँव जाड़ी में हुआ था.

बाबा बूटा सिंह ने ‘खालसा कबीर दल’ की स्थापना की थीइससे यह पता चलता है कि इन्होंने बहुत से कबीर पंथी लोगों को सिंह सभा लहर से ही नहीं जोड़ा अपितु सिख बनायावे सारी उम्र लोगों में सिख धर्म का प्रचार करते रहेलगता है कि यह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मेघों को सिख बनाने के लिए प्रचार किया और नेतृत्व दियादेखने की बात यह है कि मेघ लोग तम्बाकू का सेवन करते थेइसलिए ये सिख कम बनेफिर भी गाँव में सिंह सभा का बहुत प्रचार हुआ. 20-06-1935 को बाबा बूटा सिंह का देहांत हो गया.

साक्षात्कारों से यह पता चला है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी दलित बच्चों को पढ़ाई के लिए वजीफा भी देती रही है खासकर मेघ बच्चों को जो कबीर पंथी कहलाते थे.

मेघों का सामाजिक रूपान्तरण

स्यालकोटगुरदासपुर और गुजरात में अंग्रेज़ों द्वारा विकसित औद्योगिक परिवेश में मेघ जनजाति मूलधारा में प्रवेश कर पाईभारतीय इतिहास के अतीत की तरह इस दौर में भी इस जनजाति का समावेश श्रमिक भर्ती के रूप में हुआस्यालकोट में उद्योग धंधों के विकास के साथ नए श्रमिकों की जरूरत थी जिसके चलते इस जनजाति को विकास के नए अवसर मिलेनई भूमि के विकास के लिए आवश्यक खेत मजदूरों के रूप में भी इस जाति के लोग लिए गए.

सन् 1882 की जनगणना में इस जनजाति ने धर्म के रूप में कबीरपंथी नाम दर्ज करवाया थाइस जनजाति को स्यालकोट के गतिशील परिवेश में दाखिल होने का अवसर मिलाये 1850 में स्यालकोट की ओर जाने लगे थेअंग्रेजों के आने के बाद स्यालकोट नगर में जब नए उद्योगों का विकास हुआ तो श्रमिक के रूप में भर्ती पाने के लिए ये लोग जम्मू क्षेत्र से स्यालकोट आ बसेइन्हें अधिकतर सूती कपड़ा उद्योग में लगाया गयाखेलों का सामान भी वहाँ बनता थाइन कारखानों के मुख्य कारीगर मुसलमान होते थेउनकी सहायता के लिए मेघ लोग भर्ती किए गएमुसलमान शिल्पियों के सान्निध्य में ये लोग भी इस्लाम कबूल कर सकते थेअतः इनके कपड़ा बनाने के व्यवसाय से जुड़े होने के कारण इन्हें कबीरपंथी कहा जाने लगाभारतीय इतिहास जानता है कि जब कभी किसी जनजाति को मूलधारा में लाया गया तो उस जनजाति को शूद्र रूप में उसका व्यवसायगत नाम दे दिया गयाइस कबीले को मुसलमान होने से बचाने के लिए आर्यसमाज ने शुद्धिकरण का प्रयास करते हुए इन्हें शूद्र रूप में ‘भगत’ नाम दिया.

धीरे-धीरे मेघ स्वयं कुशल शिल्पी के रूप में अपना स्थान बनाते चले गएनए परिवेश में इनकी स्थिति यद्यपि निम्नजातीय अछूत थी पर अब उन्हें उद्योग धंधों में नकद अदायगी होने लगी थी जिससे इनके जीवन में नई गतिशीलता आ गई.

इसी काल में आर्यसमाज से प्रतियोगिता करते हुए सिंह सभा लहर का आंदोलन भी ज़ोरों पर थाआर्यसमाज के लोग मुख्यतः शहरी मध्य वर्ग से थे और सिंह सभा लहर का प्रभाव ग्रामीण सिख किसानों पर थाइस मेघ जनजाति के लोग जो गाँव में खेत मजदूर के रूप में भर्ती हुए थे गाँव में जाकर खड्डियों (हथकरघोंपर काम करने लगेवे सिंह सभा लहर के प्रभाव के अंतर्गत केशधारी धारी सिख बना लिए गएइस प्रकार सिखों में एक नई जाति कबीर पंथियों का उद्भव हुआ और शहरों में उद्योग धंधों में मजदूरी करने वाले मेघ आर्य समाज की विचारधारा का प्रभाव ग्रहण करने लगे और ‘मोने’ बने रहे और आर्य भगत कहलाने लगेमेघों को वैसे ही कबीरपंथी कहा गया जैसे सिखों में मज़हबीरामदासियेरामगढ़िये आदि अन्य शिल्पी निम्नजातियाँ हैं.

इंडियन कौंसिल एक्ट (मार्ले मिंटो सुधार) 1909 के तहत सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था में इस एक्ट के अनुसार विधान परिषदों के चुनाव में विभिन्न वर्गों को अलग-अलग प्रतिनिधित्व दिया गयापंजाब में बड़ी संख्या में शूद्र ‘मेघ’ थेइनकी ओर आर्य समाज और सिंह सभा का ध्यान गया ताकि पंजाब में मुसलमानों का मुकाबला किया जा सकेभारत सरकार की 1882 की जनसंख्या रिपोर्ट ने अँगरेज़ों को भारत की जनसंख्या के अध्ययन का एक मौका प्रदान किया थाइससे स्पष्ट हुआ कि लाखों लोग जो अछूत कहे गएवे नाममात्र के हिन्दू थेशूद्र गाँवों के भीतर अलग मुहल्लों में झुग्गियाँ बनाकर रहते थेजबकि अति शूद्र गांवों की आबादी से बाहर रहा करते थेउन्हें शिक्षा का कोई अधिकार नहीं थाऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने ईसाई मिशनरियों को प्रोत्साहित किया कि वे अछूतों को ईसाई बनाएँ.

1901 में पंजाब में कुल जनसंख्या का 53% गैर मुसलमान थे जबकि मुसलमान 47% थेपरन्तु 1941 में गैर मुस्लिम 47% रह गए और मुसलमान 53% हो गएपरिणामस्वरूप ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की चुनौती के मद्देनजर हिन्दुओं को खतरा था और उन्होंने इसका मुकाबला आर्य समाज के द्वारा कियायही हालात जम्मू और कश्मीर में थे.
1910 में 36000 से अधिक मेघ स्यालकोट के क्षेत्र में शुद्धिकरण द्वारा आर्य समाजी हो गएइसी प्रकार मुस्लिम और सिख भी निम्न जातियों के लोगों को अपने धर्म की ओर आकर्षित करने लगेमुस्लिम और क्रिश्चियन मेघों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल नहीं हो पाएकुछ गाँवों के लोगों को सिख बनाए जा सके.

सन् 1900 के लैंड एलीनेशन एक्ट के तहत मेघों सहित सभी निम्नजातियों के लोग कृषि भूमि के अधिकार से वंचित कर दिए गए थेक्योंकि पारम्परिक रूप से वे कृषि से जुड़े हुए नहीं थेइस दौरान निम्नजातियों का एक आंदोलन ‘आदि धर्म’ मेघ समुदाय के लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका था.

गंगाराम एक आर्यसमाजी थेउन्होंने आर्य मेघ उद्धार सभा का गठन किया थाउन्होंने जिला मुल्तान के तहसील खानेवाल में पड़ने वाली बंजर जमीन पर आर्य नगर की स्थापना की थीइस जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े मेघों में बाँटे गए ताकि जमीन को कृषि योग्य बनाया जा सकेजमीन का विभाजन 50% फ़सल के हिस्से के आधार पर किया गया थाबाद में इन्होंने जो वहाँ बस गए थे दो तिहाई हिस्सा स्वीकार करा लिया थालाला गंगाराम इस माँग को नहीं मान रहा थाउसके साथ हाथापाई भी की गईआगे चलकर एडवोकेट भगत हंसराज के प्रयत्नों से कोर्ट के द्वारा मेघों की मिल्कियत सुरक्षित कर दी गई.

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दालोवाली गाँव के निवासी भगत हंसराज और ननजवाल गाँव के निवासी जगदीश मित्र 1935 तक आर्य समाज के प्रयत्नों से ही शिक्षा प्राप्त करते रहे और दोनों कानून के स्नातक थेभगत जगदीश मित्र ज्यादा समय जीवित नहीं रहे जबकि भगत हंसराज स्यालकोट में वकालत करते रहे और विभाजन के बाद दिल्ली में बस गएयहाँ 1966 में उनका देहांत हुआभगत हंसराज आदि धर्म आंदोलन के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने आदि धर्म की एक महिला के साथ विवाह किया थाआर्यसमाज को यह बात पसंद नहीं आई थीभगत हंसराज के आर्यसमाजी मित्र विवाह-समारोह में शामिल नहीं हुए थे विशेष रूप से इस तर्क के आधार पर कि मेघ एक अपेक्षाकृत ऊँची जाति के लोग होते हैंआदि धर्मियों से उनका रक्त का संबंध नहीं हैभगत हंसराज डॉक्टर अंम्बेडकर के विचारों से प्रभावित थेयह बात आर्यसमाज के अनुकूल नहीं थीअंबेडकर के विचारों के अनुसार भगत हंसराज चाहते थे कि दलित लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठेंउनकी अपनी जिंदगी इसका एक उदाहरण थी.

उधर जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने भूमि सुधार लागू किए तो 1971 के माल गोदावरी के आधार पर मेघ लोगों को उन ज़मीनों का मालिकाना हक प्राप्त हो गयाजिस पर वे खेती करते थे.
जम्मू में ही 1930 के आसपास एक संस्था मेघ मंडल स्थापित की गई जिसके संरक्षक भगत छज्जूराम थेइस सभा का उद्देश्य आर्यसमाज का प्रचार करना थापर 20वीं शताब्दी के अंत तक आर्यसमाज आंदोलन का पतन हो गया थाइसका मुख्य कारण यह था कि आर्यसमाज हिंदू धर्म में समानता के विचारों को स्थापित करने में सफ़ल नहीं हो सका. 1940 में मेघ मंडल से ही हरिजन मंडल बनाया गया था जो कि मेघों का ही थास्यालकोट और साथ लगते ज़िले गुजरात और गुरदासपुर के कुल मिलाकर मेघों की जनसंख्या लाख के करीब थी.

जो कबीर पंथी स्यालकोट या पाकिस्तानी पंजाब से इस पूर्वी पंजाब में आए थे उन्होंने बहुत ही बुरे दिन देखे हैंकई-कई दिन भूखे काटने पड़ेइनको रिफ्यूजी कैंपों में बिठा दिया गया थाइन्हें खाली जगह पर टैंट लगा कर रखा गया थाकुछ लोग घास आदि काट-बेच कर अपना निर्वाह करते रहे हैंचाहे ये लोग हरियाणाराजस्थानहिमाचल आदि में बसे हैं लेकिन पहले पंजाब में ही आए थेवहाँ से जो स्थान ठीक लगा या जहाँ रिश्तेदार थे उसी ओर चले गएपंजाब में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने एक कमेटी बनाई थी ताकि इन बेज़मीने लोगों को जमीन दी जाए या मदद की जाएयह प्रस्ताव किया गया कि रू.1,000/-(एक हजार रुपएप्रति परिवार को दिया जाए लेकिन उन्होंने 1000 नकद की बजाए रजिस्ट्रेशन फ़ीस लेकर उसे जहाँ हैबैठा दियाउनके नाम जगह अलाट कर दी गईपंजाब में पैप्सू की सरकार के दौर में पंजाब में 1956 में एक सोसाइटी एक्ट बना जिसमें पैप्सू में पड़ी हुई नजूललैंड बाँटी जानी थीयह जमीन सिर्फ दलित लोगों में ही बाँटी जानी थीकोई भी पाँच आदमी सोसाइटी बनाकर रजिस्टर करवा सकते थेबाद में सोसाइटी को 1957 में उस जमीन की कुछ कीमत लगाकर यह फ़ीस दो सौ रुपए प्रति एकड़ या मालिए का 90 गुनादोनों में से जो भी कम होजमा करवाना थाजमा करवाने के बाद सोसाइटी के नाम से प्रति मेंबर नौ एकड़ जमीन मिली थीजिसमें मेघ लोगों को बहुत फ़ायदा हुआये लोग मुजारों से छोटे किसान बन गए थे.

पंजाब के कबीर पंथी अधिकांशतः मेघ कबीले से ही संबंधित हैंनिम्नजाति के प्रमाण-पत्र पर भी ‘मेघ’ और कबीर पंथी लिखा जाने लगाअनुसूचित जातियों की सूची में कबीर पंथी और मेघ दोनों हैं और वे मेघ समुदाय से संबंधित हैं.

मेघों की अनेक सभाएँ बनी हुई हैं जैसे लुधियानाचंडीगढ़अमृतसर में हैंपंजाब के मेघ समुदाय के कबीर पंथी लोग विभाजन के बाद स्यालकोट क्षेत्र से उजड़ कर पंजाब में बसे थेइनकी अधिकाँश जनसंख्या अमृतसर के सूती कपड़े के कारखानों में नौकरी करती है और अमृतसर के ढपईछोटा हरिपुरा आदि क्षेत्र में रहते हैंस्यालकोट से आए हुए लोगों की दूसरी बड़ी संख्या जालंधर के भार्गव कैंप में बसी हुई हैये लोग ज़्यादातर खेलों का समान बनाने वाले कारखानों में काम करते हैंपिछले दो दशकों में जालंधर में डी..वीकॉलेज के पास कबीर नगर नाम का मोहल्ला बस गया हैयहाँ अधिकांश कबीरपंथी रहते हैंइसी प्रकार जालंधर में ही गाँधी कैम्पबस्ती बावा खेलबस्ती दानिशमंदांतिलक नगरआर्य नगरबस्ती नौराम नगर आदि क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मेघ रहते हैंइसी प्रकार अमृतसर में मजीठाहरिपुराछोटाबड़ावेरकामजीठाऊँचे तुगकबीर विहारफतेहगढ़ चूड़ियाँबटालागुरदासपुर आदि क्षेत्रों में बड़ी संख्या में मेघ कबीरपंथी रहते हैंलुधियाना में जवाहर नगरधुस मुहल्लालेबर कालोनीगन्दा नाला का क्षेत्रशिवपुरीशिमला पुरी और जनक पुरी आदि क्षेत्रों में भी बड़ी संख्या में कबीर पंथी रहते हैंइसी तरह कपूरथला में भी फ़ैजलाबादनूरपुर मैनवातलवंडी महैमाबौली आदि गाँव में भी बड़ी संख्या में कबीर पंथी लोग रहते हैं.

कुछ कबीर पंथी केशधारी हैं और अन्य मोनेसिख और हिन्दू परिवारों में परस्पर शादियाँ आम बात हैकेशधारी कबीर पंथी गुरुद्वारे से भी जुड़े हैं और मोने कबीर पंथी पहले आर्यसमाज से जुड़े थेअब उन्होंने आर्यसमाज मंदिरों से अलग हो कर एक नए रूप में कबीर मंदिरों का सिलसिला शुरू किया है.

ध्यान देने की बात है कि पंजाब में केशधारी कबीर पंथी कम होते जा रहे हैंकुछ क्षेत्रों यथा अमृतसर के हरिपुरा के कबीर पंथी अम्बेडकर की ओर झुकने लगे हैं और उनकी इच्छा है कि एक दलित साझा मोर्चा गठित होयहीं के कुछ मेघ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हैंजालंधर के श्रमिक कबीर पंथियों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने कोई काम नहीं कियाशायद इसी कारण ये लोग किसी ट्रेड यूनियन का हिस्सा नहीं रहे हैं हालाँकि वे खेलों का सामान बनाने वाली इकाइयों में काम कर रहे हैंकुछ लोगों ने स्वतंत्र रूप से अपनी यूनिट लगा ली है.

देखने में आया है कि अधिकतर कबीरपंथी या मेघ कांग्रेस के प्रति झुकाव रखते हैंगाँव में कुछ लोग अकाली धड़ों को वोट देते हैंभारत की स्वतंत्रता के पश्चात पिछड़ी और दलित जातियों को शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी सुविधाएँ दी गईं जिसके कारण इन्हें शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति करने का अवसर मिलानिःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्तियों का सदुपयोग करते हुए इस समाज के अनेक छात्र ऊँची शिक्षा प्राप्त कर राष्ट्र निर्माण के कार्यों में जिम्मेदारी के पदों पर देश और जाति की उन्नति में भागीदार बन रहे हैं.

साक्षात्कारों से पता चला है कि पाकिस्तान में रतिया सैदा गाँवस्यालकोट में 200 के करीब मेघ कबीरपंथी लोगों के घर हैं जो बँटवारे के समय इधर नहीं आएइनमें से लगभग पाँच मुस्लिम हो चुके हैंजो लोग बिखर कर अकेला-अकेला परिवार पाकिस्तान में रह गया वे मुसलमान हो गए हैंउनकी रिश्तेदारियाँ अभी भी जम्मू व पंजाब में हैंये लोग एक दूसरे से संपर्क बनाए हुए हैंइन लोगों का कहना है कि इनके पूर्वज भी जम्मू से ही आए थेये लोग पाकिस्तान में अभी भी मेघ या कबीरपंथी कहलाते हैंभगत भी कहलाते हैंकुछ पाकिस्तानी कबीरपंथियों के साक्षात्कारों से यह पता चला है कि ये लोग अभी हिन्दू कहलाते हैंआर्थिकता इधर जैसी है यानि ग़रीबी ही हैउन्होंने बताया कि पास ही में एक शिया गाँव हैवहाँ 20 घर भगतों के हैंअभी भी आर्यसमाज की रस्में होती हैं तथा वैदिक रीति-रिवाज़ों से विवाह आदि सम्पन्न करते हैंपहले ये बहुत ही गरीब थेबंधुवा मजदूर थे लेकिन अब हालात बदल रहे हैंअपनी बिरादरी का आदमी ही विवाह आदि में रस्में कराता हैलेकिन ये लोग पाकिस्तान छोड़ कर आना चाहते हैं क्योंकि इनकी ज्यादातर रिश्तेदारियाँ भारत में हैंवहाँ इनके लड़कों का विवाह नहीं हो पा रहा हैकुछ लोगों की लड़कियों के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती भी हो जाती हैवहाँ इनकी जो संपत्ति है ये उसमें कानूनी तौर पर रह सकते हैं मगर बेच नहीं सकतेपाकिस्तान में अभी भी बिरादरी के हिसाब से राजनीतिक सीटें सुरक्षित हैंउन्होंने यह बताया कि पाकिस्तान में अभी भी कुल मिलाकर 50000 के करीब मेघ आबादी होगी लेकिन इसके बारे में वे कोई प्रमाण नहीं दे सके हैं.

देश के बंटवारे के समय 40000 मेघ परिवार वापिस जम्मू में जा बसेइन सभी की रिश्तेदारियाँ जम्मू में ही थींये लोग जम्मू से ही स्यालकोट या पंजाब के अन्य भागों में गए थेलेकिन इन मेघ परिवारों को आज भी जम्मू में शरणार्थी ही कहा जाता हैइनको वहाँ का आवास नहीं मिला हैउन्हें दूसरे लोगों जैसे हक-हकूक नहीं मिले हैं भले ही उनके पुरखे जम्मू से ही स्यालकोट या पंजाब के अन्य भागों में आए थे जिसका इन्होंने प्रमाण भी ढूँढ लिया हैये लोग रिफ्यूजी कमेटी रजिस्टर करवा कर संघर्ष कर रहे हैं.

जम्मू में मेघों को 1947 के बाद कस्टोडियन एक्ट के तहत जमीन मिली तथा 1952 में लैंड रिफ़ॉर्मेशन एक्ट के तहत लाभ हुआ और मुजारा किसान जमीनों के मालिक हो गएजिनके पास 182 कनाल से अधिक भूमि थीछीन ली गई. 1954 में दलितों को जमीनें अलॉट होनी शुरू हुईं तथा ‘कारे बेगार कानून’, 1956 में खत्म हुआ और जो ज़मीन मुसलमान छोड़कर 1947 में पाकिस्तान चले गए थे वह ज़मीन इन मुजार लोगों में बाँट दी गई है. 1956 में इन लोगों को जम्मू में दलित जातियों की लिस्ट में लिया गयाये 1960 के बाद सेना में भर्ती हुए हैंनौकरी में आरक्षण 1970 में मिलना शुरू हुआजम्मू में छः सदस्यों के परिवार को 32 कनाल जमीन मिलीबाकी छः कनाल प्रति सदस्य को जमीन मिलीछः सदस्य से ऊपर कम से कम दो घुमाह जमीन मिलीआम आदमी के 182 कनाल जमीन से कम करके 72 कनाल कर दी गईजम्मू में बंटवारे के समय 56 मुस्लिम गाँव पाकिस्तान चले गए थेउनकी ज़मीन भी दलितों में बाँट दी गईइस तरह से ये कबीरपंथी लोग बड़ी संख्या में जम्मू में रहते हैं तथा दलितों में आधी से अधिक आबादी इनकी है.

पिछले 200 वर्षों का इतिहास बताता है कि मेघ अधिकतर रावी और चिनाब नदियों के बीच में स्यालकोट जिले में रहा करते थे और साथ ही गुरदासपुर के कुछ भागों मेंजम्मू प्रांत मेंहिमाचल प्रदेश के चम्बा और कांगड़ा में भी रहते थेमुगलकाल में जिला अनन्तनाग में रहने वाले कुछ परिवार मुसलमान हो गए बताए जाते हैंवे धीरे-धीरे गरीबीबेगारी और अकाल के कारण से 19वीं शताब्दी में स्यालकोटजम्मूछंबराजौरीपुंछ आदि इलाकों में चले गए थेजम्मू-कश्मीर के प्रारम्भिक डोगरा राजाओं के शासनकाल में भी बेगारी के कारण भीषण शोषण ने उन्हें स्थान बदलने के लिए मजबूर किया.

आजादी से पहले जो मेघ स्यालकोट आदि क्षेत्र में रहा करते थे वे पंजाबहिमाचल प्रदेशहरियाणामेरठअलवर आदि स्थानों की ओर चले गए. 2000 से 2500 मेघ परिवार जिला अलवर में बसाए गएउनके परिवार के आकार के अनुसार कृषि भूमि के छोटे-छोटे क्षेत्र अलॉट किए गएकेन्द्र सरकार के पुनर्वास विभाग से ज़मीन अलॉट करवाने के लिए आप्रवासी मेघों के तब के नेता भगत हंसराज एडवोकेटभगत गोपीचन्द और भगत बुड्ढामल इन परिवारों को नेतृत्व प्रदान कर रहे थेपरन्तु वहाँ के मेघों की जाति सरकारी अभिलेखों में जाट लिखी गई हैजबकि वैवाहिक उद्देश्य और सामाजिक संबंधों के लिए वे भारत के दूसरे क्षेत्रों में रहने वाले मेघों के साथ ही जुड़े हैंपंजाब में वे अधिकतर ज़िला जालंधरकपूरथलाअमृतसरगुरदासपुरलुधियाना और चंडीगढ़ में केंद्रित है.

काहन सिंह बलोरिया ने (तारीखे राजगण जम्मू व कश्मीरमें लिखा है कि मेघों में से कुछ निम्नजातियों के पुजारी हुआ करते थेनरसिंह देव एक पत्रकार इतिहासकार ने अपनी पुस्तक ‘डूगर देश’ में इस बात का समर्थन किया हैयद्यपिपीढ़ी दर पीढ़ी इस पुरौहित्य के लिए उनके पास शिक्षा का नितांत अभाव थाजम्मू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हरिओम शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ जेएंड के.’ में इस बात का समर्थन किया है. 20वीं शताब्दी के दूसरे अर्धांश के दौरान ऊँची शिक्षा के प्रसार द्वारा इस समुदाय का एक छोटा-सा हिस्सा सरकारी नौकरियों में आ गया और उनमें से कुछ सरकार की आरक्षण नीति के कारण आई..एसआई.पी.एस., चिकित्सकइंजीनियरबैंक प्रबंधककेन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रथम श्रेणी के ऊँचे पदों पर पहुँचे हैं.

आज के कबीरपंथियों का धर्म और आर्यसमाज
समाज की मूलधारा में प्रवेश पाने से पहले पंजाब के कबीरपंथी जनजातीय स्तर पर थेजनजातीय लोगों का धर्म आदिम जादुई प्रकार का होता हैउनके यहाँ कोई ईश्वर नहीं होताकोई उपासना नहीं होतीवे कर्मकांडीय जादुई ढँग से अपनी इच्छा पूर्ति के लिए प्राकृतिक और अतिप्राकृतिक शक्तियों के प्रति क्रियाशील होते हैंउनके ये कर्मकांड सामूहिक होते हैं और सब के हित के लिए नियोजित किए जाते हैं.

पंजाब के कबीरपंथियों का मूल क्षेत्र जम्मू के नीम पहाड़ी क्षेत्र है जहाँ इस मेघ कबीले के अलग-अलग गोत्रों के समुदायों की अलग-अलग देहुरियाँ हैंदेहुरी एक धार्मिक स्थल को कहा जाता है जहाँ लोग अपने धार्मिक कर्मकांड संपन्न किया करते हैंये देहुरियाँ उसी प्रकार प्रचलित रहीं जैसे पंजाब के दूसरे क्षेत्रों में जठेरों के स्थान प्रचलित हैं.

भारत विभाजन के बाद जब कबीरपंथी स्यालकोट क्षेत्र को छोड़ पूर्वी पंजाब में आए तब तक आर्य समाज अपने मंदिरों में सिमट गया थाउसका प्रगतिशील ओज धूमिल हो गया थाआर्यसमाजी मंदिरों पर धीरे-धीरे मध्यवर्गीय हिंदू लोगों का वर्चस्व बढ़ता गयानिचले तबकों के आर्य समाजियों के लिए इन मंदिरों में कोई स्थान नहीं थाऐसी स्थिति में आर्यसमाजी कबीरपंथियों ने नगर केंद्रों में अपने कबीर मंदिरों की नई श्रृंखला शुरू कर दीछूआछूत विरोधी जिस विचारधारा को लेकर आर्य समाज बना था उस विचारधारा से वह पीछे हट गयायही कारण है कि जिस आर्य समाज ने कबीरपंथी लोगों का शुद्धिकरण कियापढ़ाया लिखाया था उसी समाज में आज इनको पूरा सम्मान नहीं मिल पा रहा हैइसी कारण ये लोग अब आर्य समाज से टूट कर अपना अलग अस्तित्व बना रहे हैं.

इसलिए पिछले लगभग डेढ़ दशक से इनमें मंदिर निर्माण की ओर रुझान हुआ है। अब जगह-जगह पंजाब में व जम्मू में शुद्ध रूप से कबीर मंदिर बन रहे हैं.

पहले कबीर के नाम से कुछ सभाएँ बनीं जैसे 'मेघ सभालुधियानाजवाहर नगर कैंप में स्थित है.  लेकिन क्योंकि पंजाब में केवल मेघ ही कबीरपंथी हैं इसलिए उस सभा में कबीर के ग्रंथ व मूर्ति न होकर आम हिंदू मंदिरो जैसा मंदिर है और साथ में जंजघर (विवाह स्थलभी बना दिया गया है.इन मंदिरों को चलाने के लिए अनेक प्रबंधक समितियों के गठन की सूचनाएँ प्राप्त हुई हैंकुछ ब्यौरा नीचे दिया गया है.

शिरोमणी सत्गुरु कबीर मंदिर प्रबंधक कमेटी यह कमेटी जालंधर के मुख्यतः सभी कबीर मंदिरों का संचालन करती हैसभी कबीर मंदिरों ने मिल कर यह कमेटी बनाई हुई हैइसका गठन सन 2003-2004 में हुआ थायह कमेटी कबीर से संबंधित दिन व त्योहार मनाती है.
सत्गुरु कबीरपंथ को-ऑर्डिनेशन कमेटी पंजाब यह अलग कमेटी शिरोमणी सत्गुरु कबीर मंदिर प्रबंधक कमेटी में अलगाव से बनी हैयह भी अपनी तरह से कबीरपंथ के विकास का कार्य कर रही है.
मेघ सभाएँ मेघों की बहुत सी सभाएँ भी यह कार्य कर रही हैं.
आचार्य राजपाल ग्रुप यह ग्रुप विशेषकर जालंधर में मेघपंथियों के विकास व कबीरपंथ का कार्य कर रहा है.
बाबा विजय ग्रुप बाबा विजय कबीरपंथी मंदिरों के सेवादार हैंवे कीर्तन करते हैंसत्संग करते हैंइन्होंने विवाह नहीं किया और सारा जीवन इसी कार्य को समर्पित कर दिया है.
कबीर धर्मशालाएँ अथवा सत्गुरु कबीर मंदिर जालंधर में इन मंदिरों की संख्या 17 के करीब हैये सभी कबीर मंदिर हैं जिन्हें शिरोमणी सत्गुरु कबीर मंदिर प्रबंधक कमेटी चला रही हैधर्मशालाओं को सरकार अनुदान देती है जो मंदिरों के लिए उपलब्ध नहीं है.
सत्गुरु कबीर मिशन पंजाब इसका गठन 1980 में हुआ थाइन्होंने कबीरपंथियों के विकास और उनमें जागृति फैलाने का कार्य किया हैइस ग्रुप में भी आपसी बिखराव हुआ है लेकिन यह अपने कार्य में लगा है.
कबीर महासभा पंजाब यह सभा लंबे समय से जालंधर में कबीरपंथी लोगों में धार्मिकराजनीतिक और सामाजिक जागृति फैला रही है.
पंजाब के लगभग सभी उन स्थानों पर कबीरमंदिर बने हैं जहाँ कबारपंथियों की जनसंख्या हैयहाँ अब कुछ कबीरपंथियों ने कबीरपंथी रीति-रिवाज़ से विवाह करना प्रारंभ किया है.


परिशिष्ट-1

मेघों भगतों के पूजा स्थल

देहुरियाँ (डेरे-डेरियोंका इतिहास
पंजाब और जम्मू क्षेत्र की ‘मेघ’ जाति की अधिकतर ‘देहुरियाँ’ और ‘देहुरे’ (डेरे-डेरियाँजम्मू क्षेत्र में बने हैंपंजाब में भी दो-एक देहुरियाँ हैं जो जम्मू की देहुरियों से कुछ यादगार या प्रतीक के तौर पर कुछ मिट्टी-पत्थर ला कर बनाई गई हैंये डेरियाँ मेघों के पूजा स्थल हैंप्रत्येक गोत्र (खापकी अलग डेरी हैइन पर वर्ष में दो बार  मेला लगता है जो दशहरा और जून मास में होता हैइसे ‘मेल’ कहते हैंप्रत्येक गोत्र के लोग अपनी-अपनी डेरी पर इकट्ठे होते हैंये देहुरियाँ जम्मू के आसपास छोटे-छोटे गाँवों में बिखरी हुई हैं. झिड़ी नामक गाँव में देहुरियों की काफी संख्या है.

अधिकतर देहुरियाँ खेतों में बनी हैंखेतों की मेढ़ पर चल कर इन तक पहुँचना पड़ता हैकुछ देहुरियों का स्थान जंगल-सा दिखाई देता हैवहाँ पेड़ व झाड़ियाँ हैंइसे बाग़ भी कहते हैंकुछ स्थानों पर इन बाग़ों को काट कर देहुरियों को अच्छी तरह से बनाया जा रहा हैपहले ये अधिकाँशतः कच्ची मिट्टी की और बहुत छोटी हुआ करती थीं.

ये देहुरियाँ (मौखिक इतिहास के अनुसारमेघ शहीदों और सतियों के स्मृति स्थल हैं जिन्हें ऊँची जाति वालों ने कत्ल कर दिया थालोगों ने क़त्ल की जगह पर कुछ पत्थर या पिंडी रूपी पत्थर लगवा दिए और उनकी पूजा करने लगे.

अधिकतर देहुरियाँ इतनी छोटी हैं कि इनके भीतर बैठनाखड़े होना संभव नहींदेहुरी के भीतर जो पिंडी होती है जिसे 'स्थानअथवा 'शक्तिपीठभी कहते हैंपरंपरागत आस्था के अनुसार उसमें बहुत शक्ति होती हैजब से पंजाब के मेघभगतकबीरपंथी इन देहुरियों पर जाने लगे हैंइनकी हालत में सुधार आया हैपिछले 20-25 वर्षों में लोगों का इस ओर रुझान हुआ है.

पहले इन देहुरियों पर बकरा हलाल किया जाता थालेकिन अब यहाँ झटका हो रहा हैक्योंकि पहले वहाँ मुसलमानों का प्रभाव थावे इन्हें झटका नहीं करने देते थे.

इन देहुरियों पर लोग अपनी मन्नतें माँगने आते हैंमन्नत पूरी होने पर अहसान के तौर पर बकरे की बलि दी जाती हैमेघ अपने यहाँ पहला पुत्र होने पर बकरा देते हैंमुंडन पर भी बकरा देते हैंशादी होने पर भी कुछ देहुरियों पर बकरा लगता हैजिसे अपनी जाति की देहुरी पर लेकर जाते हैं.

देहुरी के पुजारी को ‘पात्र’ कहा जाता हैपुजारी का एक ‘चेला’ भी होता है. ‘पात्र’ या ‘चेला’ मेले के दिन देहुरी पर बैठते हैंजो मेघ बकरे को बलि के लिए लेकर आते हैं वे परिवार सहित देहुरी के भीतर या बाहर बैठते हैं और कहते हैं कि “बाबा जी दर्शन दोबकरा परवान करोमेहर करो”.

बकरे के सामने धूप जलाया जाता हैउसका सिर व पाँव पानी से साफ़ करते हैंवह शरीर झटकता हैयदि वह शरीर न झटके तो उसके ऊपर पानी के छींटे लगाए जाते हैंवह फिर अपना शरीर झटकता है तो लोग कहते हैं कि “बिजी गया” और फिर उसको काट देते हैंउसके रक्त से सभी को टीका लगाया जाता हैउसकी कलेजी पोट पहले बनाकर खाई जाती है जो प्रसाद की तरह लिया जाता है. इसे 'मंडलाभी कहा जाता है.

यदि किसी कारण बकरा अपना शरीर नहीं झटकता तो बकरा चढ़ाने वाले परिवार के बड़े बूढ़े कान पकड़ते हैंनाक रगड़ते हैं और कहते हैं कि हमें कुछ पता नहीं थाहमारी भूल क्षमा करोसिर झुकाते हैंयह तब तक दुहराया जाता है जब तक बकरा ‘बिज’ नहीं जातायहाँ आने वाले मेघों को जाति निर्धारित नियमों का उपदेश दिया जाता हैफिर सभी बकरा खा लेते हैंअब राजपूत व मुसलमान भी इसमें शरीक होते हैं.

मेले के अवसर पर बकरा अर्पित करते हुए लोग शराब पीते हैंबकरा भी खाते हैंइससे कई बार विवाद हो जाता हैइसी लिए कुछ देहुरियों पर बकरा काट कर रांधने की मनाही हैइन देहुरियों पर लाल रंग का झंडा होता हैवहाँ कुछ चूहों ने मिट्टी निकाल कर ढेर लगा रखा होता हैकहा जाता है कि ऐसे स्थान पर सांप देवता निवास करते हैंउस मिट्टी को लोग ‘वरमी’ कहते हैंउसकी भी कुछ लोग पूजा करते हैंएक देहुरी पर एक ही दिन में 10 बकरों की बलि भी होती हैशाकाहारी मेघ भी यहाँ आ कर रीति को निभाने के लिए बकरा ‘चख’ लेते हैंऐसे मौकों पर देहुरी का पात्र ‘मेल’ के अवसर पर चौंकी (ज़ोर से सिर हिलानाकरता है तथा आए हुए लोगों की ‘पुच्छों’ (प्रश्नोंके उत्तर देता है.

कभी इन देहुरियों पर पीने का पानी नहीं होता नहीं होता था लेकिन अब वहाँ नल लगा लिए गए हैंकुछ देहुरियों पर छाया के लिए शैड बन गए हैंकुछ ने आने-जाने वालों के लिए बर्तन भी रख लिए हैंबकरा बनाने के लिए ईंधन इकट्ठा कर लिया जाता है.

कुछ देहुरियों पर अन्य चित्रों के साथ कुत्ते की भी पूजा होती है क्योंकि वह किसी की शहादत या सती होने के समय वहाँ रहा थाकुछ राजपूत यज्ञ आदि करते हैं तो वह एक मेघ और कुत्ते को रोटी खिलाते हैंइसी से वह यज्ञ संपूर्ण हो पाता हैकहा जाता है कि राजपूतों की एक जाति को हत्या लगी हुई हैइसलिए ये यज्ञ के दिन ‘मेघ’ की पूजा करते हैं.

देरियों पर एक प्रे़ेंटेशन इस लिंक - Meghon Ki Derian पर उपलब्ध है.

परिशिष्ट-2

मेघ भगतों के गोत्रों की सूची

अगर, अस्सरिया,

एरियन,

कंगोत्रा, ककड़, कतियाल, कड़थोल, कपाहे, कम्होत्रे, कलसोंत्रा, कलमुंडा, करालियाँ, कांचर, कांडल, काटिल, काले, किलकमार, कूदे, केशप, कैले, कोकड़िया, कोण,

खंगोतरे, खंडोत्रे, खड़िया, खढ़ने, खबरटाँगिया, खरखड़े, खलड़े, खलोत्रा, खोखर, खोरड़िये,

गंगोत्रा, गाँधी, गुटकर, गड़गाला, गड़वाले, गिद्धड़, गोत्रा, गौरिये,

घई, घराई, घराटिया, घराल, घुम्मन,

चखाड़िये, चगोत्रा, चगैथिया, चबांते, चलगौर, चलोआनियाँ, चितरे, चोकड़े, चोपड़ा, चोहड़े, चोहाड़िए, चौदेचुहान, चौहान,

छापड़िया, छोंके,
जजूआं, जल्लन, जल्लू,

टंभ, टनीना, टुंडर, टुस्स, टेकर, टोंडल,

डंडिये, डंबडकाले, डग्गर, डांडिये, डोगरा, डोगे,

ढम, ढींगरिये,

तरपाथी, तराहल, तरियल, तित्तर,

थंदीरा, थिंदीआलिया, थापर,

दत्त, दमाथियां, दलवैड, दरापते,

धूरबारे,

नजोआरे, नजोंतरे, नमोत्रा,

पंजगोत्रे, पंजवाथिए, पंजाथिया, पकाहे, पटोआथ, पडेयर, पराने, परालिये, पलाथियाँ, पवार, पहाड़ियाँ, पाड़हा, पानोत्रा, पाहवा, पूंबें,
पौनगोत्रा, प्राशर (पराशर),

बकरवाल, बजगोत्रे, बजाले, बदोरू, बक्शी, बग्गन, बाखड़ू, बादल, बटैहड़े, बरेह, बिल्ले, बैहलमें,

भगोत्रा, भलथिये, भसूले, भिंडर, भिड्डू,

मंगलीक, मंगोच, मंगोतरा, मंजोतरे, मड़ोच, मनवार, मन्हास, ममोआलिया, मल्लाके, मांडे, मुसले, मैतले,

रतन, रत्ते, रमोत्रा, रूज़म,

लंगोतरा, लंबदार, लालोतरा, लचाला, लचुंबे, लसकोतरा, लातोतरा, लासोतरा, लीखी, लुड्डन, लेखी, लोंचारे,

शौंके,

संगलिया, संगवाल, संगोत्रे, सकोलिया, सपोलिया, समोत्रा, सलगोत्रे, सलगोत्रा, सलहान, सलैड, सांगड़ा, साठी, सिरहान, सीकल,
सीहाला, सोहला, सुंबरिये, सेह,

हरबैठा, हितैषी.
साकोलियों की डेरी, बडियाल ब्राह्मणा, आर.एस. पुरा, जम्मू.

                                          

संदर्भित पुस्तकें

मेघमाला - एम.आर. भगत

मत्स्य पुराण
मेघवंश इतिहास - स्वामी गोकुलदास
आधुनिक भारत का इतिहास - डॉ. अविनाशचंद्र अरोड़ा
भाई जोधसिंह अभिनंदन ग्रंथ
The Arya Samaj and its impact on contemporary India - Sriram Sharma
Origin of the Singh Sabha - Prof. Harbhajan Singh
Arya Dharma, Hindu Consciousness - Kenneth W. Jones
(अन्य  संदर्भग्रंथ एवं साक्षात्कार)

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