(जन्म 1887. निर्वाण 23 अप्रैल 1985 को-निन्यानबे वर्ष की आयु में)
मेरा बचपन धार्मिक वातावरण में बीता. पिता जी कई वर्ष पूर्व स्वामी शिवानंद से मार्गदर्शन ले चुके थे. तुलसी की विनय पत्रिका के पद भावविभोर हो कर गाया करते थे. और 1963 तक वे बाबा फकीर चंद जी के संपर्क में आ गए और उनकी जीवन-धारा बदल गई. वे साधक थे और उससे घर का वातावरण सुगंधित था. टोहाना स्थित हमारा सरकारी स्कूल जैन साध्वियों, स्वामियों (जिनमें स्वामी हरमिलापी जी भी थे) और कई योगाचार्यों के आगमन से सुशोभित होता रहता था.
इन्हीं दिनों पिता जी तीन वृह्दाकार पुस्तकें ले कर आए जिनके शीर्षक थे- ‘बहिरंग योग’, ‘आत्म-विज्ञान’ और ‘ब्रह्म-विज्ञान’. मैं उस समय सातवीं कक्षा में था. बहुत जानकारी नहीं थी. ‘आत्म-विज्ञान’ और ‘ब्रह्म-विज्ञान’ पुस्तकें बहुत आकर्षक थीं. उलट-पलट कर देखीं लेकिन उनका कथ्य समझ में नहीं आया. फिर ‘बहिरंग योग’ पढ़नी शुरू की. इसके शुरू में ही अष्टांग योग का वर्णन था जो मेरी बालसुलभ बुद्धि में सहज ही बैठता चला गया. यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को जिस परिमार्जित भाषा में समझाया गया था वह कठिन नहीं थी. मैं समाधि लगाने की ओर अधिक प्रवृत्त हुआ. लेकिन जैसा कि मैंने कहा है तब मैं सातवीं कक्षा में था. किशोरावस्था आ चुकी थी (स्कूल में दाखिला छः वर्ष की आयु में होता था). इस आयु में जिन विचारों का विकास हो रहा होता है, सभी जानते हैं. समाधि में जिस प्रकार के हमारे विचार-वृत्तियाँ होती हैं उन्हें बल मिल जाता है. इससे मुझे आगे चल कर हानि उठानी पड़ी. पिता के मार्गदर्शन के कारण कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ. निजी अनुभव बता देना मैंने ज़रूरी समझा. बेहतर होता है कि इस आयु में बच्चों को पूजा-पाठ, समाधि की ओर न लगा कर उनके चरित्र निर्माण पर अधिक ध्यान दिया जाए. वैसे आजकल बच्चों को इन यौगिक विषयों की ओर देखने का अवसर ही नहीं मिलता और परिणामतः वे कई मायनों में योगियों-साधकों आदि से बेहतर जीवन जी जाते हैं. मैंने कहीं पढ़ा है कि यदि युवा बच्चे अधिक धार्मिकता प्रदर्शित करने लगें तो माता-पिता को होशियार हो जाना चाहिए कि कहीं बच्चा मानसिक ब्रह्मचर्य की समस्या में तो नहीं है.
कुछ विषयांतर हो गया. ख़ैर, मैंने उस पुस्तक का डूब कर अध्ययन किया. अनजाने में पुस्तक के लेखक ब्रह्मचारी स्वामी व्यास देव की छवि भी मन में उतरती गई. यही स्वामी व्यास देव आगे चल कर श्री 1008 स्वामी योगेश्वरानंद सरस्वती के नाम से जाने गए. पिछले दिनों नेट पर सर्च के दौरान देखा कि उनका नाम स्वामी योगेश्वरानंद परमहंस भी दर्ज हुआ है. समझते देर नहीं लगी कि भाव समाधि की उनकी साधना के कारण उन्हें यह नाम दिया गया.
कुछ विषयांतर हो गया. ख़ैर, मैंने उस पुस्तक का डूब कर अध्ययन किया. अनजाने में पुस्तक के लेखक ब्रह्मचारी स्वामी व्यास देव की छवि भी मन में उतरती गई. यही स्वामी व्यास देव आगे चल कर श्री 1008 स्वामी योगेश्वरानंद सरस्वती के नाम से जाने गए. पिछले दिनों नेट पर सर्च के दौरान देखा कि उनका नाम स्वामी योगेश्वरानंद परमहंस भी दर्ज हुआ है. समझते देर नहीं लगी कि भाव समाधि की उनकी साधना के कारण उन्हें यह नाम दिया गया.
समाधि के क्षेत्र में उनकी एक नई खोज का उल्लेख भगत मुंशीराम जी ने अपनी एक पुस्तक में किया है. इसमें साधक अपने मन में किसी एक वस्तु यथा- ‘पृथ्वी’- का रूप बना लेता है और उससे संबंधित एक-एक वस्तु को देखता जाता है और एक बार देखी वस्तु को दोबारा स्मरण नहीं करता. यह करते हुए वह एक ऐसी अवस्था में चला जाता है जिसे शून्य समाधि कहा जाता है. योग के क्षेत्र में यह नई पद्धति थी.
स्वामी योगेश्वरानंद जी की पुस्तक से प्राप्त संस्कार मेरे मानस पर गहरे हैं. मैं उनसे मिलना चाहता था. सुयोग से मेरे कॉलेज के दिनों में वे चंडीगढ़ के एस.पी. श्री भनोट के घर पधारे. उनका एक प्रवचन लाला लाजपतराय भवन में सुना तथा श्री भनोट जी के निवास पर योग प्रशिक्षण के दौरान उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ. योगी कैसे मन को प्रभावित करते हैं और चमत्कार दिखाते हैं इसका अनुभव वहीं हुआ. हवा के झोंकों को महसूस करना, उनकी अंगुली से निकलती विद्युत तरंगों को देखना, अपने भीतर त्रिकुटी के स्थान पर गुफा द्वार से आते तीव्र प्रकाश में प्रवेश करना एक नया अनुभव था. (क्षमा करें, मैं यहाँ चमत्कारों की स्थापना नहीं कर रहा. ऐसे अनुभव साधक को सुझाव (impressions and suggestions) दे कर कराए जाते हैं. साधक वही महसूस करता है जो उसे अनुदेशक (instructor) या गुरु बताता है.
यह पोस्ट अपने समय के महानतम योगी स्वामी योगेश्वरानंद सरस्वती परमहंस को कृतज्ञता पूर्वक सप्रेम समर्पित है जिनकी कही बातों ने मेरे जीवन को अच्छी दिशा दी.
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