"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


31 July 2019

A matter for consideration - मुद्दा तवज्जो के लिए

ख्यालों के जंगली घोड़ों को बाँधना नहीं चाहता. मुद्दा बार-बार किसी बहाने से सामने आ जाता है इस लिए यह नोट तैयार करके कुछ लोगों को विचारार्थ दिया है. बाकी समय बताएगा.

जब हमारे मेघ समाज के सबसे पहले शिक्षित हुए दो-एक लोगों मे से एक एडवोकेट हंसराज भगत और अन्य प्रबुद्ध जनों ने मेघ समुदाय को अनुसूचित जातियों में शामिल कराने के लिए महत्वपूर्ण प्रयत्न किए थे तब की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां आज की परिस्थितियों से इस मायने में अलग थीं कि उस समय ‘अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)’ की सूचियाँ बनाने की कोई बात नहीं हो रही थी. अपने समाज के लिए कुछ राजनीतिक और आर्थिक सुविधाएँ  जुटाने के लिए हंसराज भगत के प्रयासों के बाद सर छोटूराम की सरकार का लिया गया फैसला उचित ही था कि आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन और सामाजिक व्यवस्था द्वारा सीमाओं में बाँधे गए मेघों को अनुसूचित जातियों की सूची में रखा गया. भूलना नहीं चाहिए कि मेघों के अत्यंत खराब आर्थिक और सामाजिक हालात का मुख्य कारण जम्मू में फैली प्लेग की महामारी और अकाल की स्थितियाँ भी रहीं. अंग्रेज़ों के शासन के दौरान औद्योगीकरण ने मेघों को भी बड़े पैमाने पर बेरोज़गार कर दिया. मेघ कृषक, कृषि श्रमिक और बुनकर रहे हैं.

मेघ कब से बुनकरी का कार्य कर रहे हैं इसकी ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती. लेकिन इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि यह समाज कभी क्षत्रिय रहा है. ये प्रमाण पौराणिक कहानियों और इतिहास दोनों में मिल जाते हैं.

आज की स्थिति यह है कि मेघ कबीरपंथी भी हैं जो एक सामाजिक आंदोलन का प्रभाव है. हथकरघा (खड्डियों) का व्यवसाय बर्बाद हो जाने के बाद वे कई अन्य व्यवसायों में भी गए. मेघ कबीर की वाणी से जुड़े रहे हैं क्योंकि अपने व्यवसाय की झलक उन्हें कबीर की वाणी में मिलती थी. कई मेघ पंजाब के सेंसस रिकॉर्ड में कबीरपंथी के तौर पर दर्ज हैं.

यह सवाल मेघ (भगत, कबीरपंथी) समुदाय के लोगों के ज़ेहन में उठता रहा है कि क्या वे ओबीसी के लिए क्वालीफाई करते हैं विशेषकर कबीरपंथी नाम के तहत? कई शिक्षित मेघजनों यह मानते हैं कि यदि अनुसूचित जातियों की सूचियाँ बनाते समय ओबीसी के वर्गीकरण का विकल्प उपलब्ध रहा होता तो एडवोकेट हंसराज भगत पंजाब की मेघ जाति को उसी में शामिल करने की सिफ़ारिश करते. लेकिन उन्होंने मेघों के अत्यधिक आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण उस समय अनुसूचित जातियों में उन्हें रखे जाने का विकल्प चुना जिसमें कुछ आर्थिक सुविधाएँ संभावित थीं.

उसके बाद के समय में मेघों को सरकारी सुविधाओं और योजनाओं का लाभ मिला है और उनमें एक मध्यम वर्ग उभरा है. यह वर्ग अनुसूचित जाति का कहलाने से बहुत सकुचाता है लेकिन नौकरी या कोई अन्य लाभ पाने के लिए वो जाति प्रमाणपत्र का इस्तेमाल करता है. वो यह चाहता है कि किसी तरह ‘अनुसूचित जाति’ नाम की पहचान से पीछा छूटे. इस समान्यतः शिक्षित वर्ग में सामाजिक और राजनीतिक जागृति आई है. उनके परिवारों से अन्य जातियों में शादियाँ होती हैं. इस वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ी है. लेकिन जो इनके स्तर तक नहीं पहुँचे और जिनकी संख्या काफी अधिक है, उनका क्या? 

जो मेघ गाँवों में रह रहे हैं उनकी संख्या बड़ी है. उन्हें जाति का डंक अधिक झेलना पड़ता है. वे पर्याप्त रूप से जागरूक, शिक्षित और संगठित नहीं हैं. उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई मज़बूत बुद्धिजीवी वर्ग नहीं मिलता. लेकिन कई शहरों में मेघों के छोटे-छोटे सामाजिक संगठन हैं जिन्हें उनकी बात करनी चाहिए. सोचा जाना चाहिए कि क्या वो अति पिछड़े हुए मेघ समाज के लोग आरक्षण का लाभ उठाने की हालत में हैं? ज़मीनी सच्चाई यह है कि एक तरफ उनका शिक्षा का स्तर बहुत कम है और दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरियाँ लगभग ख़त्म हो चुकी हैं. जो बचा-खुचा आरक्षण है उसके प्रावधानों को अदालतों के फैसलों ने इतना कमज़ोर कर दिया है कि वे कारगर नहीं रहे. प्राइवेट सैक्टर में आरक्षण की बात अभी दूर की कौड़ी है.

तुलना करें तो पंजाब में अनुसूचित जातियों के लिए जो आरक्षण के प्रावधान हैं उनके तहत कुछ विशेष जातियों में एक विशेष अनुपात में वो आरक्षण बाँट दिया गया है. ओबीसी को प्रोमोशन में आरक्षण नहीं मिलता. दूसरी तरफ पिछले कई दशकों से कई हथकंडे अपना कर अनुसूचित जातियों के लिए प्रोमोशन के रास्ते बंद ही किए गए हैं. प्रोमोशन में आरक्षण से संबंधित उच्चतम न्यायालय के आदेशों को लागू न होने देने के पीछे प्रशासनिक कारण हो सकते हैं.

भारत के कई राज्यों के बुनकर और कृषि श्रमिक समुदाय ओबीसी में शामिल हैं. (उनकी सूचियाँ एकत्रित की जा सकती हैं). यह एक आधार है जिस पर मेघ समुदाय को ओबीसी में शामिल करने के लिए आवेदन किया जा सकता है. इससे पैदा होने वाले हालात में आरक्षण को लेकर कितना नफा-नुकसान होगा उसका सही आकलन तो नहीं किया सकता लेकिन सामाजिक स्टेटस में होने वाले परिवर्तन को आसानी से समझा जा सकता है. जाति व्यवस्था में जिस स्थान को मेघ अपना समझते रहे हैं और जो उन्हें नहीं मिल पाया उसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है? मेघ जाति क्या है यह बात देश के भीतरी भागों (गाँवों) के लोग नहीं जानते लेकिन यदि उन्हें बताया जाए कि मेघ अनुसूचित जाति में आते हैं तो मेघों को उन जातियों के साथ जोड़ कर देखा जाता है जिनका हिस्सा वो हैं नहीं. गाँवों की यह स्थिति उनके मन में हीनता की भावना पैदा करती है. यदि मेघ जाति ओबीसी में शामिल हो जाती है तो कई दुराग्रहपूर्ण स्थितियों से निजात मिल सकेगी.

एक बात और भी. हम अपनी मौजूदा हालत में अक़सर संतुष्ट हो चुके होते हैं. उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आहट से हम आशंकित हो उठते हैं. लेकिन जहाँ हम हैं वहाँ तो हैं ही, बस, उससे थोड़ा बेहतर हो जाए तो वो ज़रूर बेहतर ही होगा उसके लिए कोशिश होनी चाहिए.

कबीर के संदर्भ

पढ़ी-लिखी जमात में कबीर एक समाज सुधारक के रूप में अधिक जाने गए जिनका मुख्य कार्य हिंदू धर्म में फैले जातिवाद का विरोध था. जातिवाद को चुनौती देने वाले कई संतजन जान पर खेल गए. 

लगभग सभी ओबीसी जातियां कबीर को अपना वैचारिक प्रतिनिधि मानती हैं. विद्वानों ने विश्लेषण करते हुए पाया है कि कबीर जिन जातियों के व्यवसाय से संबंधित बिंबों (imagery) या शब्दों का प्रयोग अपनी कविताई में करते हैं वे मुख्यतः ओबीसी के व्यवसायों से संबंधित हैं, जिनमें जुलाहे, कुम्हार, लोहार, तेली, दर्जी, रंगरेज़, माली आदि. इसी आधार पर कबीर का महिमा मंडल 'दलित साहित्य' की सीमाएँ तोड़ कर 'ओबीसी साहित्य' तक पहुँचा है. यानी कबीर को अब ओबीसी का प्रतिनिधि साहित्यकार कहा जाता है.

मेघ सदियों से कपड़ा बुनने का कार्य करते आ रहे हैं. वे कबीर की वाणी से इस आधार पर भी प्रभावित रहे हैं कि कबीर ने जो अध्यात्म की शिक्षा दी वो कपड़ा बनाने के व्यवसाय से संबंधित बिंबों (शब्दों) के साथ भी थी.



विशेष नोट
मेघ समाज के लोग चाहे किसी भी नाम से अपनी पहचान रखते हों (जैसे मेघ, भगत, कबीरपंथी, जुलाहा, आर्य, पंजाबी जाट आदि) लेकिन वे अनुसूचित जाति के तौर पर अपनी जातीय पहचान से हर तरह से असंतुष्ट हैं. वे ओबीसी के तौर पर अपनी पहचान को बेहतर पाएँगे ऐसा कई मेघजनों का मानना है. यह नोट कई लोगों से विचार-विमर्श के बाद बनाया गया है जो समझते हैं कि मेघ समाज को ओबीसी में शामिल करने के लिए कोशिश अवश्य की जानी चाहिए. यह नोट केवल मेघ समाज के भीतर विचार-विमर्श के लिए तैयार किया गया है. - भारत भूषण, चंडीगढ़)


08 July 2019

Your narrative and your theme - आपका कथ्य और आपकी कथा

कुछ जगह ‘मेघ-इतिहास Megh History’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है. उसका आशय ‘मेघों का इतिहास’ रहा होगा ऐसा मैं मानता हूँ. ‘मेघ-इतिहास’ का दूसरा अर्थ ‘बड़ा इतिहास’ हो सकता है. यहाँ ‘आर्य-भक्त’ या ‘आर्यों का भक्त’ वाली प्रयुक्ति याद हो आती है. यह समास पद्धति का कमाल है. इन शब्दों के बारे में यह किसी वैयाकरणिक (ग्रामेरियन) का नेरेटिव है. इस बारे में आपके मन में जो चल रहा है यदि उसे आप लिख देते हैं तो वो आपका नेरेटिव होगा. शब्द का अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि उसके विभिन्न प्रयोगों की कथा में उसका अर्थ क्या-क्या रहा है. शब्द का वो यात्रा वृत्तांत या ‘कथा’ किसी भाषाविज्ञानी का ‘नेरेटिव’ है. इस बारे में हर व्यक्ति का नेरेटिव अलग हो सकता है. यह तो बात हुई दो-तीन शब्दों के ‘नेरेटिव’ की. इसके आगे अब दूसरी कथा है.

पंजाब में 'आप' पार्टी के एक बड़े पदाधिकारी डॉ. शिवदयाल माली ने गढ़ा, जालंधर की आर्य-समाज में सेमिनार का आयोजन किया था जिसमें अपनी बात रखने का मुझे भी मौका मिला. मेरा विषय था- ‘मेघों का पीछोकड़ (अतीत, इतिहास)’. इस विषय पर कहने के लिए काफी कुछ था लेकिन समय की पाबंदी थी, मैंने बात को सीमित रखा. ख़ासकर आर्य-समाज के साहित्य में मेघों के उल्लेख पर मैंने अपनी बात रखी.

मेघों में कहीं-कहीं एक अवधारणा बनी हुई है कि उनके इतिहास का उदय ‘आर्य-समाज’ के शुद्धिकरण आंदोलन के साथ होता है. इसकी वजह है. मेघों की शिक्षा का पहला प्रबंध ‘आर्य-समाज’ संस्था ने किया था जिसके साथ-साथ ‘आर्य-समाज’ ने उन्हें यह भी बताया-पढ़ाया कि मेघों का उद्धार ‘आर्य-समाज’ ने कैसे किया और उसके साथ कौन-सी सामाजिक और धार्मिक कड़ियां जुड़ती थीं. राजनीतिक कड़ियां तो थी ही नहीं और अगर थीं तो वे सवर्ण समाज से जुड़ी  थीं. आशय यह कि जो इतिहास मेघों को पढ़ाया गया वो उतना ही था जितना ‘आर्य-समाज’ ने अपने मिशन को गौरवान्वित करने के लिए लिखा और बताया. लेकिन दूसरी ओर ऐसे इतिहासकार भी हो चुके थे जिन्होंने मेघ (रेस) के ऐसे संदर्भ अपनी पुस्तकों में दिए थे जिनसे मेघों की उपस्थिति दो-अढाई हज़ार वर्ष पहले के इतिहास में नज़र आती थी. मेघों के बारे में आर्य-समाजियों का नेरेटिव अधिकतर ‘शुद्धीकरण’ की संकरी गली में आता-जाता रहा. उससे बाहर के मेघों की बात नहीं हुई. ‘सिंह सभा आंदोलन’ से जुड़ कर जो मेघ सिख बने ‘आर्य-समाज’ के नेरेटिव ने उनसे दूरी बनाए रखी.

‘आर्य-समाज’ द्वारा पढ़ाए गए इतिहास की परंपरा को बढ़ाते हुए मैंने प्रो. कस्तूरी लाल सोत्रा को देखा-सुना-पढ़ा है उनके अलावा कुछ अन्य बुजुर्ग भी इसी कथा के पक्षधर होंगे. इस बारे में मेरी रुचि रहेगी कि क्या उनमें से किसी ने कुछ लिखा भी है. सोत्रा जी ने यहां-वहां कुछ लिखा है. आजकल वे सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं.

मेघों के लोक-गायक रांझाराम के बारे में कहा जाता है कि वे ‘मेघों की कथा’ सुनाते थे और उस कथा को सिकंदर (Alexander The Great) से जोड़ते थे. कलाकार का अपना थीम होता है जिसे वो अपनी कथा में बताता है. रांझाराम क्या कथा कहते थे उसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं है. तो इस तान को यहीं तोड़ते हैं कि संभव है रांझाराम ने सिकंदर और पोरस (पुरु) की वे कथाएं जानी-सुनी हों जो हमें अन्य स्रोतों से अब मिली हैं. यहाँ जान लेना अच्छा होगा कि पोरस का पुरु के रूप में जो महाभारतीकरण और पौराणीकरण हुआ है वो एक अलग ही कथा है. किसी के लिए वो रोचक हो सकती है.

मेघों के बारे में एक कथा श्री आर.एल. गोत्रा जी की है जिसे उन्होंने दो शीर्षकों से लिखा है ‘Meghs of India’ और ‘Pre-historic Meghs’. इनमें वैदिक और ऐतिहासिक दोनों प्रकार के संदर्भ हैं. गोत्रा जी ने कई जगह स्पष्ट कर दिया है कि इतिहासिक संदर्भ अपनी पृष्ठभूमि के साथ अधिक उपयोगी होते हैं. पौराणिक संदर्भ बात को उलझा देते हैं ('पुराण' शब्द धोखेदार है. कुछ पुराण अंग्रेज़ों के शासन काल में लिखे गए. हो सकता है कुछ पुराण आज लिखे जा रहे हों. मतलब कि ज़रूरी नहीं कि पुराण बहुत पुराने हों). यदि अपने बारे में किसी ने खुद अपनी कही हो तो उसका अलग ही महत्व होता है. आपको और आपकी पृष्ठभूमि को आपसे बेहतर कोई नहीं जान सकता. अपने बारे में अपना इमानदार लेखन आपका इतिवृत्त (इतिहास) होता है. आपके बारे में अन्य का लेखन उनकी आपके बारे में कम जानकारी के कारण पूर्वग्रह (prejudice) और पूर्वाग्रह (bias) से ग्रस्त और अधूरी समझ वाला हो सकता है. इस सब का परिणाम आपके बारे में एक ऐसी छवि का निर्माण हो सकता है जो आपका सत्य ना हो.

पिछले दिनों कर्नल तिलकराज जी ने बताया था कि किसी ने भार्गव कैंप (जिसे मैं कभी-कभी अनधिकारिक रूप से ‘मेघनगर’ कह देता हूं) में रहने वाले लोगों के बारे में किसी ने कहा है यहाँ रहने वाले लोग बहुत ‘सहनशील’ हैं. मैंने ख़ुद कहीं लिखा है कि ‘मेघ समाज कमोबेश एक संतुष्ट समाज है’. मेरे वैसा कहने के पीछे मेघ समाज के व्यापक जीवन के कई संदर्भ समेटने की एक कोशिश थी अन्यथा पूरा समाज संतुष्ट कैसे हो सकता है. लेकिन ‘सहनशील’ शब्द से मेरा माथा ठनका. इसे ठनकने की आदत है. कोई पूरा समुदाय ‘सहनशील’ कैसे हो सकता है? यह किसकी कथा है? है तो ऐसी क्यों है? मेघ समाज क्या समाज के रूप में कभी प्रतिक्रिया नहीं करता? क्या मेघों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि उनकी सहनशीलता (बरदाश्त) की ताकत जवाब दे गई हो?

‘सहनशील’ शब्द बहुत मुलायम, नाज़ुक और सौम्य अभिव्यक्ति है जिसमें किसी की शिक्षा, ग़रीबी, मूलभूत संसाधनों की कमी आदि से उठे क्रंदन को छिपाया जा सकता है. फिर भी लिखने वाले की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए. लेकिन जो लिखा गया है उसका व्यापक अध्ययन करके अपना नेरेटिव बताया जाना चाहिए.

कबीरपंथ के बैकड्रॉप में मेघों के बारे में डॉ. ध्यान सिंह का पीएचडी की डिग्री के लिए लिखा शोध-ग्रंथ बहुत महत्वपूर्ण है. यह मेघों से संबंधित कई कथाओं को ख़ुद में समेटे हुए है. प्रत्यक्षतः यह सबसे पहले डॉ. सिंह का है लेकिन मुख्य रूप से डॉ. सेवा सिंह का है जो शोध के कार्य में ध्यान सिंह जी के गाईड थे. ज़रूरी नहीं कि इसमें जो जिस तरह से लिखा गया है वो डॉ. ध्यान सिंह का ही हो. इसमें सेवा सिंह जी का नेरेटिव शामिल है. ग़ौर से देखें तो शोधकर्ता और गाईड में यदि मतभेद हो तो अधिकतर मामलों में शोधकर्ता को गाईड के आगे नतमस्तक होना पड़ता है. ख़ैर. इस शोधग्रंथ में पौराणिक कथाओं, आर्य-समाज आंदोलन, सिंह सभा आंदोलन, कबीरपंथी आंदोलन आदि के नेरेटिव से काफ़ी कुछ शामिल किया गया है. शोधग्रंथ के लिए प्रयुक्त पुस्तकों की सूची अकसर बहुत लंबी होती है तो यह मान कर चलना चाहिए कि उसमें अनेक नेरेटिव शामिल किए गए हैं. लेकिन सबसे रुचिकर यह है कि मेघों पर किए गए शोध का शीर्षक ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ ही क्यों रखा गया. क्या मेघों की कथा का संबंध कबीरपंथ से है? है तो कितना है और कब से है? उसका एक स्पष्टीकरण तो इस तथ्य में मिल जाता है कि जब यह शोध हुआ (सन् 2008 में प्रस्तुत) तब तक कई जगह मेघों ने ख़ुद को जनगणना के आंकड़ों में ‘कबीरपंथी’ भी लिखवाया हुआ था. मेघ समाज के अपने कबीर मंदिर थे और कबीर साहब की पूजा का प्रचलन था. कहने का तात्पर्य यह कि ‘कबीरपंथ’ नाम का सामाजिक आंदोलन मेघ समाज में दस्तक दे चुका था. उसके रूप-स्वरूप पर अलग से बहस हो सकती है. साथ ही एक बात का नोटिस लिया जाना चाहिए कि मेघ समाज के शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन की कथा को छोड़ दें तो मेघों के जीवन और व्यवसाय में हुई उन्नति और नए व्यवसायों में उनकी कुशलता और प्रोफेशनल स्किल के बारे में दर्ज की गई पहली सकारात्मक टिप्पणियाँ भी डॉ. सिंह के शोधग्रंथ में आई हैं. मेघों की लोक-परंपराओं का पहला लेखा-जोखा इसी शोधग्रंथ में मिलता है. इसके अलावा याद रहना चाहिए कि लेखक का कोई भी कार्य अंतिम नहीं होता. आशा करनी चाहिए कि आगे चल कर डॉ. ध्यान सिंह वो नरेटिव लिखेंगे जो उनका ख़ुद का होगा जिसे वो साधिकार लिखना चाहेंगे.

जागते रहिए. अपना नेरेटिव अपनी कथा ख़ुद, मतलब 'ख़ुद' लिखिए. अपना कथ्य (थीम) ख़ुद तय कीजिए और दर्ज कीजिए. भोजपुरी में जीने का आशीर्वाद यों दिया जाता है- "जिअजागऽ". जिओ और जागते हुए जिओ.
अपने बारे में बोलिए और लिखिए.