गोत्र
व्यवस्था और मेघवंश : ताराराम
(यह आलेख माननीय ताराराम गौतम जी की पुस्तक 'मेघवंश- इतिहास और संस्कृति-2' का एक अंश है)
Tararam ताराराम |
हिंदू
समाज में जाति अपने आप में न
केवल एक सामाजिक घटक बन चुका
है, अपितु
राजनीतिक और सांस्कृतिक घटक
भी बन चुका है। सामाजिक और
सांस्कृतिक घटक रूप में प्रत्येक
जाति अपने प्रभुत्व के लिए
गोत्र की सहायता लेती है।
जातिवादी व्यवस्था में वर्ग
प्रभुत्व को स्थायी बनाए रखने
में गोत्र-व्यवस्था
ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी
है। भारतीय समाज किंवा हिंदू
समाज में गोत्र का विचार विभिन्न
सामाजिक रस्मों-रिवाज
एवं सामाजिक सरोकारों में
किया जाता है,
यह
रूढ़ि मेघ समाज में भी वर्तमान
है। मेघ समाज में गोत्र की
प्रथा अन्य समाजों में व्याप्त
इस प्रथा की देखा-देखी
से आयी है। जब चारों ओर गोत्र
की परंपरा का बोलबाला हो गया,
तो
मेघों ने भी अपने को ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में मिलाते हुए इस
व्यवस्था को प्रश्रय देना
प्रारंभ कर दिया। यह गोत्र-परंपरा
मेघों की अपनी सामाजिक या
सांस्कृति परंपरा नहीं है,
बल्कि
ब्राह्मणी परंपरा से ली गई
प्रथा है।
ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में प्रत्येक जाति
अपनी उत्पति किसी न किसी ऋषि
या नायक (शूरवीर)
से
जोड़कर अपनी जाति के वर्ग
प्रभुत्व की व्याख्या करती
है। अपनी जाति की श्रेष्ठता
को स्थापित करने में गोत्र
व्यवस्था को महत्वपूर्ण आधार
के रूप में देखा जाता है। ये
सब 'गोत्र'
व्यवस्था
को परंपरागत रूप से मिली दृढ़
मान्यता के सूचक हैं। ब्राह्मणवादी
व्यवस्था के पोषक ऋषियों ने
देखा कि जब तक व्यक्ति या समाज
के जीवन में जात्याभिमान या
वंश अभिमान की सृष्टि नहीं
की जाएगी,
तब
तक वर्ग प्रभुत्व की कल्पना
साकार रूप नहीं ले सकती है।
इसीलिए उन्होंने इसे व्यावहारिक
रूप देने के लिए गोत्र प्रथा
का सृजन किया। प्रारंभ में
इने-गिने
ऋषि थे,
जिन्होंने
इस व्यवस्था को चलाया। परंतु
बाद में यह संख्या बढ़ती गयी।
कई ऋषियों के नाम वेदों,
ब्राह्मणों
और उपनिषदों में आते हैं,
परंतु
वे किसी गोत्रकर्ता अर्थात
गोत्र-व्यवस्था
को चलाने वाले नहीं बताए गए।
वेदों में उल्लेखित बहुत से
ऋषि मन्त्र दृष्टा बताए गए
हैं,
परंतु
वे सभी भी गोत्र-कर्ता
नहीं हैं। स्पष्टत:
इस
व्यवस्था को लेकर भी ऋषियों
में मतभेद थे। भारत की विभिन्न
परंपराओं में इसका कभी-भी
एक-सा
स्वरूप व स्वीकृति नहीं रही
है।
भारत
की ब्राह्मणवादी परंपरा में
गोत्र-भेद
की पृष्ठभूमि भेद-भाव
और ऊँच-नीच
की वर्णवादी व्यवस्था को
स्थायी और सनातन बनाने के लिए
ही रची गई है और इसे चालू रखकर
प्रथा एवं परंपरा का रूप इसलिए
दिया गया,
क्योंकि
यह वर्ण व्यवस्था या जाति-व्यवस्था
को मजबूत बनाती है। वस्तुत:
यह
मनुष्यों को विभक्त करने की
एक अन्य सोची-समझी
भेदकारी व्यवस्था है,
जो
जन-जीवन
में रूढ़ होकर परंपरा के रूप
में चली आ रही है। वैदिक व्यवस्था
या ब्राह्मणवादी व्यवस्था
में इससे किसी व्यक्ति या
समुदाय विशेष की आंशिक इतिहास
की छानबीन करने में भी सहायता
मिलती है। वैदिक परंपरा में
यह उस समय की देन है,
जब
मानव-समुदाय
अनेक भागों में विभक्त होने
लगा था और उसे अपने पूर्वजों
और संबंधियों का ज्ञान कराने
के लिए संकेत की आवश्यकता
प्रतीत होने लगी। क्रमश:
जैसे-जैसे
मानव-समाज
अनेक भागों में विभक्त होने
लगा व वर्ण-व्यवस्था
प्रभावी होने लगी,
वैसे-वैसे
इस गोत्र-व्यवस्था
या गोत्र नाम के प्रति मनुष्यों
में मोह भी बढ़ता गया। भारत
की जिन परंपराओं में इसका कुछ
भी स्थान नहीं था,
वहां
भी यह धीरे-धीरे
फैल गई। इस प्रकार से विवाह-संबंध
और सामाजिक रीति-रिवाजों
में उसका विचार किया जाने लगा
एवं किसी न किसी रूप में सभी
ने इसको स्वीकृति प्रदान कर
दी। वर्तमान मेघवाल समाज भी
इससे बच नहीं सका। प्रारंभ
में जिन आठ ऋषियों को गोत्रकर्ता
माना जाता है,
उन्हें
गोत्र-प्रवर
में इस प्रकार से उल्लेखित
किया गया है-
जमदग्निभरद्वाजो
विश्वामित्रात्रिगौतमा:।
वशिष्ठकश्यपोSगस्त्यो
मुनयो गोत्रकारिण:।।
अर्थात
जमदग्नि,
भरद्वाज
विश्वामित्र,
अत्रि,
गौतम,
वशिष्ठ,
कश्यप
और अगस्त्य ये गोत्रकर्ता
मुनि हैं। यहां ध्यान देने
योग्य बात यह है कि जगदग्नि
आदि इन आठ ऋषियों के समय भृगु
और अंगिरा आदि भी अनेक ऋषि थे,
परंतु
उस समय उनके नाम के गोत्र का
प्रचलन नहीं हुआ था। ये अन्य
ऋषि भी मंत्रदृष्टा थे,
परंतु
इनके नाम से गोत्र नहीं बनें
अर्थात ये गोत्रकर्ता नहीं
बन पाए। ऐतिहासिक रूप से यह
विचारणीय है कि ऐसा क्यों हुआ।
एक ही जाति में अलग-अलग
गोत्र भी सुने जाते हैं और
अलग-अलग
जातियों का एक ही गोत्र या
समान नाम के गोत्र भी सुने
जाते है। इन सबके विश्लेषण
से एक बात स्पष्ट होती है कि
हक़ीकत में इन ऋषियों या
शूरवीरों का एक-दूसरे
ऋषि या शूरवीर से कुछ भी लेना-देना
नहीं है,
तभी
तो कई जातियां एक ही नामधारी
ऋषि से अपनी उत्पत्ति बताती
हैं। परंतु वास्तव में उन
जातियों का आपस में कुछ भी
लेना-देना
नहीं होता है। साधारणतया
ब्राह्मण परंपरा में गोत्र
प्रथा को रक्त-परंपरा
की पर्यायवाची माना गया है।
अत: यह परंपरा
यह स्वीकार करती है कि ब्राह्मण
सदा-सर्वदा
ब्राह्मण ही बना रहता है।
जिसका ब्राह्मण जाति में जन्म
हुआ है, वह
अन्य जाति वाला कभी नहीं हो
सकता है। ब्राह्मणवादी परंपरा
में प्रारंभ से ही सदाचार की
अपेक्षा रक्त परंपरा को अधिक
महत्व दिया गया है। जब इस
परंपरा में रक्त-शुद्धता
का सिद्धांत अस्वीकृत होने
लगा या डंबोडोल होने लगा,
तो
रक्त की शुद्धता के सिद्धांत
को सामाजिक व्यवस्था की शुद्धता के सिद्धांत पर ला खड़ा किया गया। यही गोत्र
परंपरा का गंभीर भेद है। अन्य
देशों में रंगभेद या नस्लभेद
तो है,
परंतु
गोत्र-भेद
नहीं है। ब्राह्मणवादी परंपरा
में जाति की इस जटिल व्यवस्था
को गोत्र-प्रवर
की व्यवस्था ने न केवल भेदकारी
बनाया,
अपितु
उसे कारगर व स्थायी बनाने में
भी संस्थागत आधार प्रदान किया।
भारत
की गैर ब्राह्मणवादी परंपराओं
में गोत्र व्यवस्था का ऐसा
कोई भेदकारी स्वरूप नहीं था।
वर्ण-व्यवस्था
या जाति-व्यवस्था
की शुद्धता के आधारभूत रूप
में गैर ब्राह्मणवादी परंपराओं
यथा बौद्ध-जैनों
में गोत्र का ऐसा कोई विधान
कभी भी स्वीकृत नहीं हुआ।
वैदिक लोगों की गोत्र की
व्यवस्था उन-उन
ब्राह्मणों को उन-उन
ऋषियों का वंशज प्रकट करती
है। ब्राह्मणवादी गोत्र-व्यवस्था,
जो
पहले उच्चवर्ण तक ही थी,
वह
धीरे-धीरे
सभी वर्णों व जातियों में से
गोत्रों की जो व्यवस्था
ब्राह्मणों तक सीमित थी,
वह
क्षत्रियों और वैश्यों तक
जाने या अनजाने रूप में आ गई,
परंतु
ब्राह्मणों के अलावा अन्य
वर्णों में गोत्र का कोई महत्व
नहीं था।
वर्णों
में गोत्र का कोई महत्व नहीं
था और शूद्र एवं गैर वैदिक
लोगों में तो इसका वैसे ही कोई
महत्व नहीं रखा गया था यहाँ
तक कि क्षत्रियों में भी इसका
कोई महत्व नहीं था,
मेघ
समाज का गठन पूर्ण रूपेण गैर
ब्राह्मणवादी परंपरा से हुआ
था, अत:
वे
इससे अनभिज्ञ से बने रहे,
धीरे-धीरे
मेघ समाज अब एक जाति के रूप
में पुकारा जाने लगा और अभिहीत
किया जाने लगा तो वर्णवादी
व्यवस्था के अन्य पोषक तत्त्वों
का भी इस समाज में प्रश्रय मिलाना
शुरू हुआ। इसी के परिणाम स्वरूप
वे खाप को ही अपना गोत्र कह
देते हैं।
मेघ
समाज संपूर्ण भारत में मेघ
जाति से ही पहचाना जाता है।
यह अपने आप में एक परंपरागत
सांस्कृतिक घटक है,
जिसकी
अपनी एक विशिष्ट पहचान है।
मेघों का अपना वंश है। वे वंश
के नाम से ही जाने जाते हैं,
इसके
अलावा इनका कोई गोत्र नहीं
है। वंश या बंस ही उनका कुल या
गोत्र है,
अन्य
दूसरा कोई गोत्र नहीं है। अपनी
विशिष्ट सामाजिक और राजनीतिक
सोच एवं सांस्कृतिक व धार्मिक
परंपरा से उनके वंश का गठन हुआ
है। इस वंश या बंस को कई समाज
सुधारकों ने गोत्रकर्ता ऋषियों
से जोड़कर देखने की चेष्टा
की। उनका प्रयास हिंदू व्यवस्था
में इस जाति के मान को बढ़ाने
हेतु था,
परंतु
वास्तव में ऐसे प्रयास इस जाति
की हीनता को ही स्थायी बनाने
वाले सिद्ध हुए हैं। अत:
मेघों
को अपने कुल या बंस को ही पुन:
प्रतिष्ठित
करना होगा। जिसे ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में सम्मिलित होने
के प्रयासों में वे भूल गए
हैं। सन 2001
की
भारत देश की जनगणना में मेघ
जाति सबसे ज्यादा राजस्थान
में निवास करती है,
जहाँ
बहुधा वे मेघवाल नाम से जाने
जाते हैं। राजस्थान की समस्त
अधिसूचित अनुसूचित जातियों
की जनसंख्या में इनकी जनसंख्या
21.23% है।
जो चमारों की जनसंख्या से
थोड़ी सी कम है। जम्मू-कश्मीर
की समस्त अधिसूचित अनुसूचित
जातियों की जनसंख्या में मेघों
की जनसंख्या 39.00%
से
ज्यादा है। इस प्रकार से यहां
पर मेघ लोग सघन रूप से निवास
करते हैं। इन मेघों की कुछ
खापें एक-सी
हैं अर्थात मिलती हैं एवं कुछ
खापें ऐसी है,
जो
नहीं मिलतीं। यहां पर उसकी
विवेचना अपेक्षित नहीं है।
परंतु इससे एक बात स्पष्ट है
कि कुछ खापें तो भौगोलिक प्रभाव
से बनी है,
कुछ
राजनीतिक कारणों से व अन्य
कारणों से उत्पन्न हुई हैं।
उनमें गोत्र प्रवर की कोई
मान्यता ऐतिहासिक रूप से कभी
भी नहीं रही है। इस बात को
स्पष्ट करने के लिए राजस्थान
की मेघ जाति की कुछ खापों का
उल्लेख करना समीचीन है,
जिससे
मेघ जाति इस गोत्र के बारे में
पनप रही मिथ्या धारणा को समझ
सके एवं पुन:
एक
सांस्कृतिक और राजनीतिक वजूद
रखने वाला प्रभुत्वकारी घटक
बन सके।
राजस्थान
के मेघवालों में गोत्रकर्ता
के नाम का कोई भी गोत्र प्रचलित
नहीं है। वे अपने सामाजिक
रीति-रिवाजों
में अपनी खाप को ही गोत्र का
नाम दे देते हैं। इस प्रकार
से खाप की अभिव्यक्ति उनके
ब्राह्मणवादी गोत्र की कमी
को पूरा कर देती है। ये खापें
भी राजस्थान में बहुधा राजपूतों
की उपजातियों से मिलती हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि
राजपूतों की ये उपजातियां भी
उनका कोई गोत्र या प्रवर नहीं
है। वस्तुत:
राजपूत,
जाट
और मेघ आदि जातियों का परिघटन
एक ही आधार पर हुआ है,
परंतु
परंपरा व प्रभुत्व भेद से
उनमें ऊँच-नीच
की दीवारें खड़ी हो गई अन्यथा
ये सभी एक ही घटक दल व घटनाक्रम
की उपज हैं।
मेघ
समाज एक जाति के रूप में ज्ञात
होने से पहले एक संगठित व
अभिज्ञात राजनीतिक और सांस्कृतिक
दल था जिसकी राजनीतिक सत्ता
का केन्द्र वत्स जनपद था। वहां
पर मेघ राजा वसिष्ठीपुत्र
भीमसेन के शौर्य एवं बल से
उनको एक विशेष पहचान मिली।
की पीढ़ियों तक शासन करने के
बाद जब ये सत्ताविहीन हुए तो
विस्थापित हुआ यह समाज भारत
के विभिन्न भागों में जा बसा,
जहां
पर ये कई जगहों पर शासक या
गवर्नरों के रूप में ख्यात
नाम हुए। चूंकि मेघों की परंपरा
वर्ण,
जाति
और गोत्र आदि परंपरा से भिन्न
थी, अत:
उनकी
पहचान वशिष्टी के नाम से ही
की जाती रही अर्थात मेघ जाति
बनने से पूर्व ये अपने को
वशिष्टी या वशिष्ठा नाम से
ही अपना परिचय देते थे जो उनके
गौरव और शौर्य का इतिहास बयान
करता था। अत:
सारे
भारत में मेघ वाशिष्ठी,
वशिष्टा
या वासिका नाम से संज्ञान हुए।
कई भू-भागों
में यह वशिष्टा नाम धीरे-धीरे
लुप्तप्राय हो गया और भू-भाग
विशेष में निवास करने के कारण
उस भू-भाग
का नाम उनके साथ जुड़ गया यथा
मारू-मेवाड़ा
आदि,
ऐतिहासिक
रूप से मेघों के प्रतिबोध हेतु
ऐसे कई अन्यान्य शब्दों का
भी प्रयोग होने लगा। परंतु
ये न तो उनके गोत्र थे और न ही
उन्होंने इन्हें गोत्र के
रूप में धारण किया था। उस समय
तक वे गोत्र-व्यवस्था
को अभिसात नहीं कर पाए थे,
क्योंकि
अभी तक ब्राह्मणवादी व्यवस्था
में उनका विलीनीकरण नहीं हुआ
था।
राजस्थान
में राजपूतों के उत्कर्ष के
समय और उसके बाद भी उनमें
गोत्र-प्रवर
की ललक कहीं पर भी दृष्टिगोचर
नहीं होती है। इसके कई कारण
थे, परंतु
सबसे बड़ा कारण यह था कि
प्रभुत्वकारी रूप में उभरे
राजपूत भी गोत्र-व्यवस्था
के प्रति उदासीन ही थे। यह तो
राजपूतों का जब हिंदूकरण हुआ,
तो
उनमें हिंदू वर्ण व्यवस्था
में उच्च स्थान प्राप्ति के
उत्साहस्वरूप गोत्र के प्रति
उनका रुझान बढ़ा। ब्राह्मणवादी
व्यवस्था के पुरोधे गैर
ब्राह्मणवादी परंपराओं को
अपने में मिलाने के लिए उनको
कृत्रिम नाम और उत्पति की
कथा-किंवदतियों
से उनका उत्साहवर्धन कर रहे
थे। इस युग में एक ही घटक दल
के विभिन्न मानव समूह विभिन्न
जातियों में विभक्त कर दिए
गए। जिनका राजनीतिक वजूद स्थिर
हो चुका था,
वे
राजपूत नाम से ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में उच्चवर्ण में
मिला दिए गए व खेती-बाड़ी,
शिल्पकारी
या अन्य पेशों में संलग्न
लोगों को,
जो
ब्राह्मणी परंपरा के नहीं
थे, उन्हें
निम्नस्तर पर खपाया जाने लगा।
सत्ता प्राप्त लोगों का
अतिउत्साह से पुरानी परंपरा
में मेल कराने का कार्य उनके
इतिहासकारों ने बखूबी किया
बाकी आमजन को उनका आश्रित
बनाकर उनकी अभिज्ञात जाति का
नाम धारण करने का लोभ देकर
उनको भी इस चक्रव्यूह में पीसा
गया। यह जनता जनार्दन कहीं
से भी न तो ब्राह्मण थी और न
ही शूद्र,
वैश्य
या अन्य वर्णवादी व्यवस्था
का अंग। परंतु जब उनके बड़े-बड़े
लोगों को मिला दिया,
तो
उनके अन्य स्वजनों को भी इस
घेरे में लेना आवश्यक था। इसी
पर पूरा सामाजिक और राजनीतिक
वजूद टिका था। अत:
एक
शासक कौम मेघ का,
जिसका
कोई अभिज्ञात गोत्र नहीं था,
उसे
इस व्यवस्था ने अपने में खपाने
में सफलता प्राप्त की। उनके
लिए इतना भर अभीष्ट था कि वे
फलां-फलां
राजपूत वर्ग या जाति से हैं,
चूंकि
वे अब शासक वर्ग से नहीं है,
अत:
उनकी
स्थिति निम्न है। खेती-बाड़ी
उनका मुख्य पेशा था। वर्षा
के मौसम के अलावा वे कपड़े
बुनने का कार्य व अन्य शिल्पकार्यों
में संलग्न हो गए। कपड़े-बुनने
व अन्य शिल्प व दस्तकारी
ब्राह्मणवादी व्यवस्था में
शूद्र की श्रेणी में ही गिने
जाते थे। अत:
धीरे-धीरे
हिंदू व्यवस्था में वे हीन
अवस्था को प्राप्त होते गए।
प्रभुत्कारी
जातियों के नाम का उपयोग उनकी
जाति नहीं भी,
बल्कि
वह उनका नख कहलाता था। नख का
वास्तविक अर्थ यही है कि जो-जो
जिस-जिस
नख को धारण करता है,
वह-वह
उस-उस
शासक के अधीन है। राजस्थान
में मेघों में विभिन्न खापों
के नाम यथा परिहार,
पँवार,
चौहान,
सोलंकी,
राठौड़,
भाटी
आदि प्रचलित हैं,
वे
भी उनके गोत्र नहीं हैं। बल्कि
स्पष्टतः उनसे वही अद्यबोध
होता है कि फलां-फलां
सत्तासंपन्न वर्गों से ही
इनका संबंध है। ये खापें मेघों
के गोत्र कदापि नहीं रहे हैं
व न ये गोत्र हैं। ये जो खापें
हैं वे भौगोलिक और राजनीतिक
कारणों से बनी हैं,
इसके
अलावा इसमें गोत्र,
प्रवर
आदि का कोई आधार भी नहीं है।
इसे स्पष्ट करने के लिए हमें
इन राजपूतों के गोत्रों के
बारे में जानना आवश्यक है।
ऐतिहासिक
साक्ष्यों से यह सुविदित है
कि ब्राह्मणों के गौतम,
भरद्वाज,
अत्रि
आदि अनेक गोत्र मिलते हैं,
जो
उन ब्राह्मणों का उन-उन
ऋषियों का वंशज होना माना जाता
है। परंतु राजपूतों के गोत्र
उनके वंशकर्ता के सूचक नहीं
हैं,
क्योंकि
प्रारंभ में गोत्र व्यवस्था
ब्राह्मणों तक ही सीमित थी।
यह विशुद्ध रूप से वर्ण व्यवस्था
को टिकाऊ बनाने की एक कारगर
युक्ति थी जिसके प्रति जितने
कायल ब्राह्मण थे,
अन्य
कोई वर्ग उतना उत्सुक नहीं
था। परंतु धार्मिक व राजनीतिक
क्षेत्र में ब्राह्मणों की
पूरी पैठ थी,
अत:
इसे
पुरोहित के माध्यम से क्षत्रियों
तक विस्तारित किया गया। जो-जो
पुरोहित जिन-जिन
क्षत्रियों के याजक होते थे,
उन-उन
क्षत्रियों को भी उस गोत्र
का माना जाने लगा। यह सिर्फ
धार्मिक पूजा-पाठ-यज्ञ-याज्ञ
आदि तक सीमित था। भगवान बुद्ध
एवं श्रमणवादी परंपरा ने वर्ण
व्यवस्था को स्थायी करने वाली
इस संकल्पना को कभी भी स्वीकार
नहीं किया। अत:
बौद्धमय
भारत में हमें क्षत्रियों के
गोत्रों का कहीं पर भी कोई
सायाश उल्लेख नहीं मिलता है।
बौद्ध धर्म के अपकर्ष के बाद
एवं हिंदू धर्म के उत्थान के
समय गोत्र की संकल्पना ने फिर
दृढ़ होना शुरू किया और राजपूतों
के उदय के साथ उनके हिंदू धर्म
में मिल जाने पर उनके भी गोत्रों
पर विचार किया जाने लगा। जिस-जिस
राजपूत राजे के जो-जो
पुरोहित होते थे,
वे
उस-उस
गोत्र में अभिज्ञात किए जाने
लगे। यह सरल युक्ति राजपूतों
व अन्य घटक दलों को ब्राह्मणवादी
व्यवस्था में अंतर्भूत करने
में संजीवनी का काम करने लगी
और इस प्रकार से उन-उन
गोत्रों से जुड़े प्राचीन
क्षत्रियों से इन राजपूतों
ने बड़े उत्साह से अपना संबंध
जोड़कर इतिहास की रिक्तता को
पूरा करने में कामयाबी हासिल
की। परंतु निम्नस्तर पर जीवन
यापन करने वाले वर्ग को इससे
न तो कोई सरोकार था और न गौरव
और न ही ब्राह्मणी व्यवस्था
उन्हें गोत्र या प्रवर की
परिधि में लाने की इच्छुक थी,
क्योंकि
गोत्र की संकल्पना जात्यायिमान
और वर्णवाद से जुड़ी थी,
जिसे
ब्राह्मणवादी व्यवस्था खंडित
या कलुषित नहीं करना चाहती
थी। अत:
निम्नस्तर
पर जीवनयापन करने वाला वर्ग
कभी भी इसके प्रति कायल नहीं
रहा।
जहां
तक परिहार,
पंवार,
भाटी
आदि नामों का संबंध है। ये न
तो उनके गोत्र हैं और न राजपूतों
की एक-एक
खाप में अलग-अलग
गोत्रों की अभिव्यक्ति ही इस
बात का संकेत करती है कि जातीयता
के दायरे में लिए जाते वक्त
इन राजे-लोगों
को कहां-कहां,
क्या-क्या
मेल-जोल
करना पड़ा। कुछ विद्वान यह
अवश्य कहते हैं कि राजपूतों
के गोत्र भी वास्तव में उनके
मूल पुरुषों के सूचक हैं,
पुरोहितों
के नहीं और पहले क्षत्रिय लोग
ऐसा ही मानते थे अर्थात
भिन्न-भिन्न
क्षत्रिय वास्तव में उन
ब्राह्मणों की संतान हैं,
जिनके
गोत्र वे धारण करते हैं। इसी
युक्ति को मेघ समाज में भी
फैलाने का कार्य अज्ञानतावश
कुछ लोग करने लगे हैं,
जिसका
आशय यह है कि मेघों की फलां-फलां
खाप फलां-फलां
राजपूत से उत्पन्न है। यह
विचार मेघों को हिंदू समाज
में निम्नतर स्थिति को जायज
ठहराने का कुत्सित प्रयास
है। इस कूटनीति व छलपूर्ण बात
को प्राचीन काल के मेघ लोग
बखूबी जानते थे,
अत:
उन्होंने
उसे कभी भी अपना गोत्र नहीं
माना। अपना गोत्र तो वे मेघ
ही बताते व मानते थे। जो इस
जाति या वंश का मूल पुरुष था।
उनका मूलपुरुष ही सदैव उनका
गोत्र माना जाता था। आंख मूंदकर
देखा-देखी
करने की बजाय मेघों को अपने
वंश को ही गोत्र के रूप में
पुन:
प्रतिष्ठित
करना चाहिए।
जहां
तक पुरोहित या गुरु के गोत्र
की युक्ति का प्रश्न है,
जिससे
राजपूतों आदि के गोत्रों का
संज्ञान किया जाता है,
वह
भी मेघों के समाज पर उपयुक्त
नहीं बैठती है,
क्योंकि
आदिकाल से ही मेघ लोग अपने
मूलपुरुष के रूप में मेघ नामधारी
महापुरुष को ही मानते आए हैं।
कई जगहों पर भाषा-भेद
या प्रचलन में भेद होने से भले ही
उसे मेघऋषि,
मेघ
सिरी,
मेघरिख,
मेघ
कुमार या धारूमेघ आदि कुछ भी
कहा जाता हो,
परंतु
व्यक्तिवाचक मेघ शब्द उन सब
में समान रूप से स्वीकार्य
है। यह मूल पुरुष ही उनका
गोत्रकर्ता (वंशकर्ता)
है।
इसी बात को मेघों को ध्यान में
रखना चाहिए और मानते रहना
चाहिए। कुछ लोगों ने वशिष्ठ
आदि गोत्रकर्ता ऋषियों का
अभिज्ञान होने से व मेघों
द्वारा भी प्राचीन काल में
अपने को वशिष्ठी या वसीका कहने
के आधार पर मेघों का गोत्र
वाशिष्ठी बताने की सायास
चेष्टा की है। परंतु यह स्पष्ट
है कि मेघ लोगों का वासिष्ठी
नाम वशिष्ठी ऋषि के कारण प्रचलन
में नहीं आया था,
बल्कि
उनकी मातृशक्ति के बहुमान से
प्रचलन में आया था और स्वीकार्य
हुआ था। अत:
मेघों
को पुन:
अपने
प्राचीन गोत्र जिसे मेघवंश
कहा गया है,
उसे
ही मान्यता देनी चाहिए। अन्य
जो खापें हैं,
उन्हें
गोत्र के रूप में मान्यता नहीं
देनी चाहिए,
क्योंकि
ये खापे किसी भी आधार पर उनके
गोत्र नहीं है और न ही उन राजपूत
जातियों के,
जिनसे
ये अपना निकास मानते हैं।
गोत्र व्यवस्था और मेघवंश बहुत बढ़िया
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कृपया मेघवाल समाज की संपूर्ण गौत्र के नामों की लिस्ट बताए।
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