"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


10 December 2014

Must have something National - कुछ न कुछ राष्ट्रीय होना चाहिए

हंगामा ही हो गया कि देश की एक 'राष्ट्रीय धार्मिक पुस्तक' होनी चाहिए. ओके....ओके. बना लो भई....बना लो. देश में पहले भी कई राष्ट्रीय चीज़ें हो गुज़री हैं. जैसे कोई न कोई 'राष्ट्रकवि' भी होता था बल्कि कई हो चुके होंगे (पता नहीं कौन-कौन था). 'राष्ट्रीय योगी', राष्ट्रीय साधु-महात्मा भी दिखने लगे हैं. बाकी के राष्ट्रविरोधी नहीं हैं तो कम से कम ग़ैर-राष्ट्रीय तो होंगे ही.
देशी खबरों का हालिया इतिहास देखें तो एक 'राष्ट्रीय अपराध'-सा भी कुछ उभर कर आया है - 'बलात्कार'. चाहें तो इस शब्द को रिप्लेस कर लें लेकिन ख़बरों और ख़बरिया चैनलों को पहले जाँच लें. मतलब यूँ कि हर क्षेत्र में 'राष्ट्रीय' जैसा कुछ न कुछ है ज़रूर. जाति आधारित समाज में एक अति 'राष्ट्रीय जाति' का बिंब उभारें मारने लगा है जिस पर फोकस किए बगैर आपकी गाड़ी 'गाड़ी' कहला सकेगी इसमें संदेह है, लेकिन, आप कुछ न कुछ 'राष्ट्रीय' करते रहिए. तभी तो हंगामा होगा, लोग देखेंगे. अच्छा लगता है!!

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14 November 2014

Sidhhartha of Hermann Hesse - a meaning revisited - हरमन हेस का सिद्धार्थ - अर्थ की पुनर्यात्रा

जर्मन-स्विस उपन्यासकार हरमन हेस Hermann Hesse ने एक बहु चर्चित उपन्यास लिखा था - Sidhhartha. जिस पर अंगरेज़ी में इसी नाम से एक फिल्म बनी थी. मुझे बहुत पसंद आई थी. कई वर्ष बाद उसमें प्रयुक्त एक बंग्ला गीत- 'ओ नोदी रे, एकटी कोथा शोधाय शुधु तोमारे' यू ट्यूब पर सुनने को मन किया तो सिद्धार्थ और उसके मित्र गोविंदा के बीच के संवाद फिर ध्यान से सुने. उन्हें यहाँ रख लिया है. इनमें एक बात है जो आध्यात्मिक खोज को एक अंत देती है. यह अहसास नया न सही, लेकिन आज भी ताज़ा है. Thank you, Mr. Hesse.

सिद्धार्थ – ''गोविंदा! मेरे प्यारे दोस्त गोविंदा, उद्देश्य की यही समस्या है कि आदमी उद्देश्य को लेकर उससे ग्रस्त हो जाता है. जब तुम खोज रहे हो तो उसका अर्थ है कि कुछ पाना बाकी है लेकिन असल मुक्ति तो यह समझ लेने में है कि लक्ष्य तो कुछ है नहीं. जो है वह अब है. जो कल हुआ वह चला गया. कल क्या होगा हम नहीं जानते. इसलिए हमें वर्तमान में ही जीना चाहिए. नदी की तरह. हर चीज लौटती है. कोई चीज़ वैसी ही नहीं रहती. गोविंदा, कोई व्यक्ति कभी भी पूरी तरह संत नहीं होता या पूरी तरह पापी नहीं होता. बुद्ध डाकू में भी है और वेश्या में भी. ईश्वर सब कहीं है.'' 
गोविंदा - ''ईश्वर सब कहीं है?'' 
सिद्धार्थ - (एक पत्थर को प्रेमपूर्वक हाथ में लेकर) ''तुम इस पत्थर को देख रहे हो. यह पत्थर कुछ समय बाद मिट्टी हो जाएगा और मिट्टी से यह पौधा या प्राणी या मनुष्य बनेगा. अब यह सब जानने से पहले मैं कहा करता था यह एक पत्थर है, इसकी कोई कीमत नहीं है. अब मैं सोचता हूँ कि यह पत्थर सिर्फ पत्थर नहीं है. यह प्राणी है, यह ईश्वर है, यह बुद्ध है, और परिवर्तन के चक्र में यह मनुष्य और जीव बन सकता है. इसका महत्व हो सकता है क्योंकि पहले ही यह बहुत कुछ रह चुका है. मैं पत्थर से प्रेम करता हूँ.....मैं इसे प्रेम करता हूँ क्योंकि यह एक पत्थर है. गोविंदा, मैं शब्दों के बिना प्रेम कर सकता हूँ इसीलिए मैं शिक्षकों में विश्वास नहीं करता. नदी..!! नदी सबसे बढिया शिक्षक है.''
गोविंदा - ''तुम्हें बुद्ध याद है?''
सिद्धार्थ – ''हाँ, मुझे याद है और वे सभी याद हैं जिनको हमने प्रेम किया और जो हमसे पहले मर गए.....और मैंने यह जाना है कि हमें खोज को भूलना होगा.''
गोवंदा - ''मुझे भी कुछ बताओ जिससे मुझे सहायता मिले. मेरा रास्ता बहुत कठिन है. मुझे वह बताओ जो मैं समझ सकूँ. मेरी सहायता करो, सिद्धार्थ!''
सिद्धार्थ - ढूँढना बंद करो, चिंता करना छोड़ो और प्रेम देना सीखो. मेरे पास रुको और नदी पर मेरे साथ काम करो, गोविंदा! शांति से रहो!......गोविंदा, शांति से रहो!!

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06 November 2014

Your problem – आपकी समस्या

आप भी न फिजूल शक करते हैं. भारत को निश्चय ही गुणी नेता मिला है जो बताता कि हज़ारों साल पहले भारत के एक प्लास्टिक सर्जन ने सिर कटे बच्चे के धड़ पर हाथी का सिर जोड़ा होगा जिससे गणेश बना. यह तो अद्भुत और नई बात है! और फिर वैज्ञानिक सोच का सिर काट कर उस पर फेविकोल से पुराणपंथ फिट करने वाला प्लास्टिक सर्जन जैसा नेता अब कहीं जाकर भारत को मिला है. क्या यह भी अद्भुत नहीं है सर जी? हाँ कहने में आपको कोई समस्या है क्या....

अरे नहीं..नहीं..नहीं. बोइंग और एयरबस को माडर्न इंडिया से क्यों जोड़ रहे हैं. हमारी 'पुष्पक' एयरलाइंस रामायण काल से चल रही है. यह रामायण में लिखा है, गुजरात में छपा है. मुगलों ने लाख सिर पटका लेकिन हमारे अदृष्य विमानों को नहीं देख सके पर अंगरेज़ हमारे विमान और तकनीक चुरा ले गए. चोर कहीं के. यह सब कैसे हुआ....कब हुआ....जैसे सवाल पूछ कर आप अपने पूर्वजों का गौरव मिट्टी में मिलाना चाहें तो अलग बात है वरना गर्व से कह सकते हैं कि महाभारत काल में हमने न्यूक्लिर बमों से भी बड़े बमों यानि ब्रह्मास्त्रों का इस्तेमाल किया था जिससे डायनासोर धरती से समाप्त हो गए थे. इसे मान लेने में भी आपको कोई समस्या है क्या....


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21 October 2014

Mahishasur and his monument – महिषासुर और उसका स्मारक

कई जानकारियाँ फेसबुक के माध्यम से बहुत जल्दी मिलती हैं. इसी सिलसिले में महिषासुर, जिसे हमारे देश के कई यादव और असुर जनजाति के लोग अपना पूज्य और आराध्य पूर्वज मानते हैं, के बारे में इन नवरात्रों के दौरान काफी जानकारी मिली. कहीं उसका शहादत दिवस मनाया गया और कहीं उसके बारे में छापने वाली पत्रिका फारवर्ड प्रेस (Forward Press) के कार्यालय से उसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गईं. ख़ैर, फेसबुक के ज़रिए Piyush Babele से यह जानकारी मिली :-

''भैंसासुर का स्मारक और हिंदुत्व की दुहाई
ये तस्वीर है भैंसासुर यानी महिषासुर के स्मारक की. मऊरानीपुर से हरपालपुर के रास्ते पर धसान नदी को पार करके कुछ ही दूर बाद बाएं हाथ पर एक सडक़ मुड़कर यहां तक पहुंचती है. पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षित घोषित किया है लेकिन ऐसा कोई बोर्ड नहीं लगा है जिस पर इसका निर्माण काल लिखा हो. लिखापड़ी के इस अभाव में भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमारी कथित हिंदू संस्कृति किसी न किसी रूप में महिषासुर को स्वीकार करती थी. अब जब नई सरकार ने महिषासुर को नायक मानने पर पत्रिका फारवर्ड प्रेस पर डंडा चलाया है, तो सोचना पड़ेगा कि सरकार संस्कृति की रक्षा कर रही है या उसका नाश कर रही है. ये हरकतें देखकर मेरा विश्वास फिर दृढ़ होता है कि हिंदू धर्म को खतरा सिर्फ हिंदुत्व से है और किसी से नहीं.''

बहरहाल चित्र से मालूम पड़ता है कि इस स्मारक के रखरखाव का काम पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है. लेकिन चित्र पूछ रहा है कि यह विभाग कार्य कर रहा है क्या?
एक अन्य लिंक- महिषासुर का स्मारक

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09 October 2014

Panda of Dalits- Ganga Ram - दलितों का पंडा गंगा राम

विकास जाटव (वाया फेसबुक)
 
कई बार समूह चर्चा में यह सुनने को मिल जाता है कि अब दलित राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के जज, प्रशासनिक अधिकारी, से लेकर काफी उच्च पद प्राप्त कर चुके हैं. इसलिए अब जातिवाद खत्म हो रहा है. समय बदल चुका है. लेकिन अगर कोई दलित हरिद्वार किसी रिश्तेदार की अस्थि विसर्जित करने जाता है तो उसे इस बात का एहसास जरूर हो जाता है कि वो भारतीय धर्म आधारित व्यवस्था में 'अनुसूचित जाति' वर्ग से आता है.
 
ऐसे ही; हरिद्वार में 'अनसूचित जाति' के व्यक्ति की अस्थि विसर्जित केवल 'गंगाराम नाम का व्यक्ति' ही कर सकता है अगर आपकी कार रुकती है और पता चलता है कि आप अस्थि विसर्जित करने आये हैं तो पंडित सबसे पहले जाति पूछते हैं और फिर दलित पता होने पर उसे 'गंगाराम' के पास भेजते हैं. इसका कारण मुझे देवभूमि पत्रिका से यह मिला है कि-
 
"बहुत पुरानी बात है। संत रविदास हरिद्वार आए। पंडितों ने उनका दान लेने से मना कर दिया। पंडित गंगा राम ने कहा मैं आपका दान लूंगा और कर्मकांड संपन्न कराऊंगा। पंडित गोपाल आगे कहते हैं- उस वक्त हंगामा हो गया। ब्राह्मण पंडों ने कहा ऐसा होगा तो आपका सामाजिक बहिष्कार होगा। मगर पंडित गंगाराम ने परवाह नहीं की और संत रविदास से दान ले लिया। संत रविदास ने उन्हें पांच कौड़ी और कुछ सिक्के दान में दिये।
 
उसके बाद पंडों की पंचायत बुलाकर कई फैसले किए गए। फैसला यह हुआ कि अब से कोई सवर्ण और ब्राह्मण पंडित गंगाराम से कोई धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराएगा। पंडित गंगाराम ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें कोई पछतावा नहीं है। उसके बाद तय हुआ कि कोई पंडित गंगाराम के परिवार से बेटी-बहिन का रिश्ता नहीं करेगा।
 
पंडित गोपाल कहते हैं आज भी पंडों की आम सभा गंगा सभा में उन्हें सदस्य नहीं बनाया जाता। तब के फैसले के अनुसार कोई सवर्ण हमसे संस्कार कराने नहीं आता। हमारे पास सिर्फ हरिजन और पिछड़ी जाति के ही लोग आते हैं। पंडित गोपाल कहते हैं पुराने ज़माने में कोई हरिजन हरिद्वार नहीं आता था। एक तो उनके पास यात्रा के लिए पैसे और संसाधन नहीं होते थे दूसरा उन्हें गंगा स्नान से वंचित कर दिया जाता था।
 
साथ ही पंडा लोग दलित तीर्थयात्रियों का बहिखाता भी नहीं लिखते थे। हरिद्वार आने वाले सभी तीर्थयात्रियों का बहिखाता लिखा जाता था जिससे आप जान सकते हैं कि आपके गांव या शहर से आपके परिवार का कोई सदस्य यहां आया था या नहीं। बहरहाल हरिजन का बहिखाता नहीं होता था। लेकिन पंडित गंगा राम ने वो भी शुरू कर दिया। पंडित गंगाराम कहते हैं कि पिछले तीस साल से दलित ज़्यादा आने लगे हैं। दान भी ख़ूब करते हैं। हमारे परिवार का कारोबार भी बढ़ा है। अब हमारे परिवार के चार सौ युवक पंडा का काम कर रहे हैं। हमारी शादियां बाहर के ब्राह्मणों में होती है।"
 
अब आप चाहे कितने भी उच्च पद पर हैं तो आपको इसका एहसास हो ही जायेगा कि अगर धर्म में रहना है तो वर्ण व्यवस्था व उससे उत्पन्न प्रक्रिया तो माननी ही पड़ेगी. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्तमान में गंगाराम के वंशज के 400 लोग इस कार्य को कर रहे हैं और पिछले 40 सालों में उनकी कमाई में बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है क्योंकि संविधान के तहत आरक्षण से मिली नौकरियों ने दलितों के पास कुछ पैसा-संसाधन पहुँचाए हैं और वे इसका इस्तेमाल कर्मकांड में भी कर रहे हैं.
 
वैसे जो लोग कहते हैं कि अब जातिवाद नहीं है वे इस बारे में क्या कहेंगे कि क्यों केवल 'गंगाराम के वंशज' ही अनुसूचित जातियों का अस्थि विसर्जन करवाता है बाकी क्यों मना कर देते हैं?

27 September 2014

Dr. B.R. Ambedkar was a Meghvanshi and also a Kabirpanthi - डॉ. भीमराव अंबेडकर मेघवंशी हैं और कबीरपंथी भी

डॉ. अंबेडकर महार समुदाय से थे. आमतौर पर शाम के समय अपनी मस्ती में कबीर के शब्द गाया करते थे.

महार बुनकर (जुलाहों) की जमात योद्धा और जुझारू रही है जिसे क्षत्रिय भी कहा गया है. बहुत कम 'मेघ भगत' जानते होंगे कि अंबेडकर कबीरपंथी थे और महार समुदाय का मुख्य व्यवसाय कपड़ा बुनना रहा है. इसके अलावा मेघों के लिए आज की तारीख में विश्वास कर पाना कठिन है कि 'महार' समाज वास्तव में 'मेघ' समाज ही है. मेरे ऐसा कहने का आधार नीचे दिए संदर्भित लिंक्स हैं जिससे मालूम पड़ेगा कि मेघ और महार एक ही जाति समूह है और कि डॉ. अंबेडकर कबीरपंथी परिवार से थे.

हमारे बुद्धिजीवी इस बात पर भी गर्व कर सकते हैं कि भारतीय संविधान पर मानवधर्म के जिन सिद्धांतों की छाप है उसके मूल में कहीं बुद्ध, कबीर, राष्ट्रपिता फुले, अंबेडकर और मेघ परंपराओं का प्रखर दर्शन है. दूसरे शब्दों में इसी का नाम ''नमो बुद्धाय'', ''जय कबीर'', ''जय भीम'' और ''जय मेघ'' है. सत्यशोधक समाज के संस्थापक ज्योतिराव फुले ने विशेषकर महार या मेघ समाज को संगठित करने का कार्य किया और 1903 में इनका पहला सम्मेलन मुंबई में कराया.

अब प्रश्न है कि पंजाब और जम्मू-कश्मीर का 'मेघ भगत' समाज समय के अनुसार अंबेडकर को क्यों नहीं समझ पाया. अशिक्षा एक कारण रहा. दूसरे, आर्यसमाज ने जहाँ एक ओर इस समाज को शिक्षा के क्षेत्र में दाखिल होने का मौका दिया वहीं आर्यसमाजी विचारधारा ने इनके लिए ऐसी ब्राह्मणवादी वैचारिक अड़चनें भी पैदा कर दीं जिससे न तो ये मुग्गोवालिया के आदधर्म आंदोलन से जुड़ पाए न ही अंबेडकर की विचारधारा से. श्री रतन गोत्रा, जो विद्वान और काफी वरिष्ठ नागरिक हैं, ने अपना अनुभव बताया कि जब भी वे अपने मेघ समाज में अंबेडकर की बात करते थे तो लोगों की पहली प्रतिक्रिया होती थी कि अंबेडकर तो चमार समाज से थे. कई अन्य वरिष्ठ नागरिकों के साथ भी यही अनुभव हुआ जिनमें मैं भी एक हूँ. धार्मिक संस्थाओं के प्रोपेगंडा से प्रभावित लोगों ने मेघ और चमार के बीच में ऊँच-नीच का सवाल बनाया हुआ है. शिक्षा के प्रसार के साथ अब स्थिति बदल रही है और पढ़ा-लिखा मेघ समाज वास्तविकता को समझने लगा है.

इसी जानकार वर्ग के लिए शुभकामनाएँ.

संदर्भित लिंक्स


(उक्त सभी लिंक 27-09-2014 को देखे गए हैं.)

13 September 2014

Megh Warriors – मेघ योद्धा

Bheema Koregaon Victory Pillar
मेघों को मेघों से पूछते सुना है कि क्या मेघों ने कभी कोई युद्ध लड़ा है. मेघों ने ज़रूर युद्ध लड़े हैं. इसके पक्ष में पहला साधारण तर्क तो यह है कि कोई भी जातीय समूह वीरों से विहीन नहीं होता. यदि कोई वीर होने के साथ सभ्य भी है तो वह असभ्य और क्रूर जातीय समूह (जैसे आर्य या अन्य) से पराजित भी हो सकता है. संभवतः अपनी इसी कमज़ोरी के कारण मेघवंशियों ने युद्ध हारे हैं. लेकिन मेघवंशी वीरों का कभी भी सर्वथा अभाव नहीं रहा.

अब सूचना प्रणाली में आई तेज़ी और नए दृष्टिकोण ने उस इतिहास के अर्धसत्य को पूर्णता प्रदान करने के प्रयास तेज़ किए हैं. बताया जाने लगा है कि आधुनिक इतिहास में दलितों के सहयोग से लड़ा गया पहला प्लासी का युद्ध था जिसे दुसाध (पासवान) वीरों के सहयोग से जीता गया. दूसरा भीमा कोरेगाँव का युद्ध है जो पेशवाओं के खिलाफ था और म्हारों के सहयोग से जीता गया था. इस युद्ध ने भारत से पेशवा राज को समाप्त कर दिया. इतिहासकारों ने म्हारों और मेघों को एक ही जाति समूह का माना है. महारों के इतिहास की झांकी इस इस लिंक पर देख सकते हैं.

अंग्रेज़ों ने मेघवंश के योद्धाओं की मदद से दो युद्ध जीते. उनके बारे में लिखते हुए पुरानी विचारधारा वाले इतिहासकारों ने संकोच से काम लिया और इतिहास में उनका विस्तृत उल्लेख नहीं किया. दोनों युद्ध जीतने के कारण ही अंग्रेज़ों को भारत में अपना राज्य स्थापित करने में मदद मिली. इऩ युद्धों की पृष्ठभूमि में देश के दलितों को अंग्रेज फौज में भर्ती होने का अवसर मिला और उन्होंने अपने युद्ध कौशल का प्रमाण दिया. आगे चल कर अंग्रेज़ों ने दलितों के हित में कई कदम उठाए. लॉर्ड मैकाले ने अपने लगभग तीन वर्ष के कार्यकाल में नई शिक्षा प्रणाली शुरू की जिसने दलितों के लिए शिक्षा के रास्ते खोल दिए और भारत को Indian Penal Code और Criminal Procedure Code दे कर मनुस्मृति की काली छाया को समेट कर छोटा कर दिया.

भीमा-कोरेगाँव युद्ध पर एक विस्तृत आलेख 


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