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हम भी मुंह में जुबान रखते हैं - जनगणना का आदिवासी पक्ष
-गंगा सहाय मीणा
2011 की जनगणना का पहला (घरों की गिनती का) चरण चल रहा है. मंडल आयोग के बाद से ही ओबीसी की सही संख्या जानने की उत्सुकता सभी के अंदर है. उच्चतम न्यायालय भी इस संदर्भ में कई बार अपनी चिंता जाहिर कर चुका है. 2001 की जनगणना में इसका प्रस्ताव भी आया लेकिन तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे खारिज कर दिया. उन दिनों सत्ता में उसी विचारधारा का बोलबाला था जो आज कह रहे हैं कि ‘हम सब हिन्दुस्तानी हैं, इसलिए हमें हिन्दुस्तानी के रूप में गिनो’. उनके ‘हिन्दुस्तान’ में मुसलमानों के लिए क्या जगह है, इसका प्रमाण 2002 के गुजरात में मिल चुका है. उनके ‘हिन्दुस्तान’ में दलितों के लिए क्या जगह है, इसका प्रमाण लगभग रोजाना देश के किसी न किसी कोने में मिलता रहता है, जिसकी ताजा कडी हरियाणा का मिर्चपुर गांव है, जहां पिछले दिनों वाल्मीकि समुदाय के 25 घर जला दिए गए और उन घरों के साथ एक बाप-बेटी भी जिंदा जला दिए गए. उनके 'हिन्दुस्तान' में आदिवासियों के लिए क्या जगह है, इसका प्रमाण आए दिन झारखंड और छत्तीसगढ के जंगलों में पुलिस द्वारा आदिवासी महिलाओं का बलात्कार कर दिया जाता है. अब अगर कोई ये कहे कि गुजरात या मिर्चपुर या गोहाना या झारखंड या छत्तीसगढ आदि में हिन्दुस्तानियों ने हिन्दुस्तानियों के साथ अमानवीयता और नृशंसता बरती, तो समझिये कि वह आपको और हमें बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा है.
दरअसल जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है, दैनिक समाचार पत्रों के साथ छपने वाले 'वैवाहिकी परिशिष्ट' भी इसका एक बडा प्रमाण है. उल्लेखनीय है कि वैवाहिक विज्ञापन देने वालों में सर्वाधिक संख्या तथाकथित ऊंची जातियों की होती है. जो लोग वर/वधु ढूंढते वक्त कुल, जाति, उपजाति, गोत्र आदि का पूरा ध्यान रखते हैं, वही अब चिल्ला रहे हैं कि 'हम जाति नहीं मानते'. जाति और गोत्र को न मानने वाले युवक-युवतियों की हत्या तक कर दी जाती हैं. ये 'ऑनर किलिंग' या इज्जत के नाम पर हत्याएं दलित-आदिवासियों द्वारा नहीं, बल्कि अधिकांशतः सवर्ण समाज के लोगों द्वारा ही की जाती हैं. प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन के दिनों एक कहानी लिखी थी- मंत्र. इसमें उत्तर भारत से दलितों की 'शुद्धि' के लिए दक्षिण भारत गए एक पंडितजी से वहां के दलित यही सवाल पूछते हैं- अगर आप हमें समान मानते हैं तो क्या हमारे घर अपनी बेटी ब्याहेंगे...' प्रेमचंद समझ गए थे कि जाति व्यवस्था के खात्मे का सबसे सशक्त माध्यम अंतर्जातीय विवाह है. डा. अंबेडकर ने भी जाति तोडने का यही रास्ता सुझाया.
क्या बात है कि जनगणना में जाति का सवाल पूछे जाने का कोई दलित या आदिवासी विरोध नहीं कर रहा है? इस वक्त जाति से दंश से सबसे ज्यादा प्रभावित तो दलित ही हैं. उन्हें तो खुशी होनी चाहिए कि देश के बडे नेता से लेकर बडे अभिनेता, बुद्धिजीवी तक सभी देश के समस्त नागरिकों को हिन्दुस्तानी के रूप में गिनने के लिए आवाज उठा रहे हैं! इसका कारण संभवतः यह है कि अब धीरे-धीरे देश के दलित-आदिवासी भी इस बात को समझने लगे हैं कि जो लोग सभी को ‘हिन्दुस्तानी’ और ‘मानव’ के रूप में गिनने के लिए चिल्ला रहे हैं, इसके पीछे गहरी साजिश छिपी है. ‘हिन्दुस्तानी’ की वकालत करने वाले ‘मानवतावादी’ वही लोग हैं जो दलितों के घर जलाए जाने या महिलाओं से बलात्कार होने पर भी अपनी ऐयाशी में जरा भी कमी करना बर्दाश्त नहीं करते. उन्हें कोई फर्क नहीं पडता. जबकि वे चाहें तो ऐसी घटनाओं के अवसर पर सक्रिय होकर पूरे माहौल को बदल सकते हैं. मीडिया उनकी बात सुनता है. लेकिन वे नहीं बोलते. अब अचानक उनका ‘राष्ट्रधर्म’ जाग उठा है. उनको अपनी करोडों की इंडस्ट्री में बैठे-बैठे जनगणना के बाद फैलने वाले संभावित जातिवाद का खतरा सताने लगा है! जातिवार जनगणना के मुद्दे पर दलित और आदिवासी चिंतकों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है. इस पूरे मसले में स्त्रियों का भी कोई पक्ष हो सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है. ये सभी लोग भूल रहे हैं कि जब तक सभी उत्पीडित अस्मिताएं एक-दूसरे के प्रति सद्भाव और सहयोग नहीं रखेंगी, तब तक मुक्ति का कोई भी आख्यान अधूरा है.
जनगणना में आदिवासियों से जुडे कुछ मसलों को लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है, यहां उनका जिक्र भी जरूरी है. आदिवासियों को जबरन ‘हिन्दू’ के रूप में गिनना और विस्थापित एससी/एसटी को ‘सामान्य’ श्रेणी में गिनना जनगणना की पूरी प्रक्रिया की बहुत बडी गडबडियां हैं, जिन्हें तुरंत दुरुस्त करने की जरूरत है. यह देश के तमाम शहरी और पढे-लिखे लोगों को समझने की आवश्यकता है कि देश में आदिवासियों की जनसंख्या लगभग 10 करोड है और उनमें से नब्बे फीसदी से अधिक आदिवासी किसी भी धर्म को नहीं मानते. उनके धर्म को कोई सामूहिक नाम देना हो तो उसे 'आदि धर्म' या ‘आदिवासी धर्म’ कहा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि जनगणना फॉर्म में हिन्दू धर्म के पंथों तक के लिए कॉलम है लेकिन 'आदि धर्म' के लिए कोई जगह नहीं है. क्या 10 करोड की आबादी के लिए जनगणना फॉर्म में एक कॉलम नहीं बढाया जा सकता? आदिवासी हिन्दू धर्म के किसी रीति-रिवाज, देवी-देवता या कर्मकांड को नहीं मानते लेकिन जनगणक उन्हें ‘हिन्दू’ की श्रेणी में गिन लेता है. चतरा और हजारीबाग के बिरहोर आदिवासी यह समझ भी नहीं पाते कि उन्हें हिन्दू के रूप में गिना जा रहा है. अगर वे समझ पाते तो किसी न किसी रूप में इसका प्रतिरोध जरूर करते. जनगणना की दूसरी बडी गडबडी यह है कि देश के विभिन्न हिस्सों से काम की तलाश में दिल्ली आदि महानगरों में आ बसे एसी/एसटी को सामान्य श्रेणी में गिना जाता है. क्या शहर की झुग्गी में आ बसने से किसी दलित या आदिवासी की स्थिति में रातों-रात परिवर्तन आ जाता है? दरअसल जनगणना में ये घपले सवर्णों और हिन्दुओं की संख्या में इजाफा दिखाने के लिए सायास किये जा रहे हैं. जातिवार जनगणना का इसीलिए विरोध किया जा रहा है कि इससे सभी जातियों की वास्तविक स्थिति सामने आ जाएगी और मुट्ठीभर लोगों द्वारा देश के अधिकांश संसाधनों के उपभोग की बात जाहिर हो जाएगी. जनगणना की इन दोनों भीषण गडबडियों पर सरकार को अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए और इनके निवारण हेतु शीघ्रातिशीघ्र आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए.
इस बार जनगणना के साथ एक ‘यूनिक आइडेंटिटी कार्ड’ बनने की प्रक्रिया भी चल रही है. अभी घरों को गिना जा रहा है, दूसरे चरण में फरवरी 2011 में उन्हीं घरों में दोबारा जाया जाएगा जिन्हें गिना जा चुका है. मुझे चिंता उन लोगों और घुमन्तु जातियों की है जिनके पास न तो कोई अपना घर है, न ही कोई स्थाई ठिकाना. उन्हें भारत के नागरिक के रूप में गिना जाएगा या नहीं? यूनिक आइडेंटिटी कार्ड बनवाकर वे भारत के नागरिक बन पायेंगे या नहीं? एक संभावना ये भी बनती है कि इनमें से कोई भी अगर यूनिक आई कार्ड नहीं बनवा पाया उसे सरकार घुसपैठिया घोषित कर दे. मूल निवासियों को घुसपैठिया बनाने की यह प्रक्रिया काफी दिलचस्प होगी.
आज हमारे सामने मूल सवाल यह है कि समाज से जातिगत भेदभाव कैसे खत्म किया जाए और पिछडी जातियों का जीवन-स्तर कैसे ऊंचा उठाया जाए! इस लक्ष्य की प्राप्ति में जातिवार जनगणना सहायक होगी या जातिरहित जनगणना? जातिवार जनगणना के विरोधी कह रहे हैं कि जाति तो खत्म हो चुकी है, जनगणना में जाति का सवाल जोडने से इसका फिर उभार हो सकता है. उपर्युक्त बातों से जाहिर होता है कि उनकी यह बात बेतुकी है. जाति भारतीय समाज की एक कडवी सच्चाई है. दस साल में एक बार होने वाली जनगणना में धर्म, भाषा, लिंग, व्यवसाय आदि के साथ-साथ जाति की भी गणना की जानी चाहिए. इससे भयभीत होने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं है। धर्म के आधार पर यह देश एक बार टूट चुका है और भाषाई दंगों का भी लंबा इतिहास रहा है। लेकिन इस आधार पर धर्म और भाषा को जनगणना से हटाया नहीं गया। धर्म की गिनती से अगर सांप्रदायिकता नहीं बढ़ती और भाषाओं की गिनती से भाषिक वैमनस्य नहीं फैलता, तो जाति गिनने से जातिवाद कैसे बढ़ेगा? उलटे, जातियों की गिनती के संगठित विरोध के पीछे कठोर जातिगत पूर्वग्रह हो सकते हैं। उनका सुझाव है कि हम कोई जाति-पांति नहीं मानते, इसलिए हमें 'हिन्दुस्तानी' के रूप में गिना जाए. जनगणना फॉर्म में जाति के कॉलम में एक विकल्प ऐसे लोगों के लिए भी बनाया जाए जो जाति नहीं मानने का दावा कर रहे हैं ताकि उनकी वास्तविक संख्या भी पता चल जाए.
मीडिया के तमाम प्रतिक्रियावादी प्रयासों के बावजूद जातिवार जनगणना के मुद्दे पर चारों तरफ बहस का माहौल है. बहसकर्ता विद्वानों में से कुछ यह समझाने की भी कोशिश कर रहे हैं कि सिर्फ ओबीसी की जनगणना हो. इस मांग के निहितार्थ खतरनाक हैं. इसके पीछे वही मानसिकता काम कर रही है जो देश में सवर्णों की संख्या अधिक से अधिक दिखाकर संसाधनों पर उनके अधिकारों को जायज ठहराने की कोशिश कर रही है. अगर सिर्फ ओबीसी की जनगणना होती है तो एससी, एसटी (इनकी जनगणना हर बार होती है) और ओबीसी की श्रेणी से बाहर जो भी बचेगा, उसे स्वाभाविक रूप से 'सामान्य' मान लिया जाएगा. फिर इन्हीं 'सामान्य' श्रेणी के लोगों की संख्या को सवर्णों की संख्या के रूप में पेश किया जाएगा. इसलिए जनगणना सिर्फ ओबीसी जातियों की नहीं, बल्कि सभी जातियों की होनी चाहिए ताकि 'सामान्य' की वस्तुस्थिति समझने में भी मदद मिले.
इस संदर्भ में यह भी दिलचस्प है कि जहां भारतीय संसद में जातिवार जनगणना के पक्ष में आम सहमति का माहौल है, वहीं मीडिया इसके खिलाफ आम सहमति प्रदर्शित करने की पूरी कोशिश कर रहा है. मीडिया के बारे में यह किसी से छिपा नहीं है कि वहां उपेक्षित समुदायों की भागीदारी नगण्य है. उन्हें उचित भागीदारी के लिए उनके दरवाजे पर दस्तक दे रहे दलित-आदिवासी और पिछडे समुदायों का भय सताने लगा है, इसलिए वे एकजुट हो गए हैं. वे अपनी राय को इस रूप में पेश कर रहे हैं मानो वह पूरे देश की राय हो. संभवतः 'जनसत्ता' और 'द हिन्दू' को छोडकर किसी ने भी जातिवार जनगणना का पक्ष लेने वाला कोई आलेख नहीं छापा है.
हमारे देश के नेताओं ने 80 साल यही सोचकर निकाल दिए कि जाति की गणना नहीं होने से जातिवाद खत्म हो जाएगा. लेकिन परिणाम उल्टे निकले. अब क्यों न एक बार जातिवार जनगणना करके देख ही लिया जाए, कौन जाने जातिगत भेदभाव को खत्म करने का कोई रास्ता इसी में से निकल जाए ! जनगणना के दौरान समाज और उसकी विविधता के बारे में आंकड़े जुटाना विकास की योजनाओं के लिए जरूरी है। जातिवार जनगणना से तमाम जातियों की आर्थिक स्थिति, देश के संसाधनों व नौकरियों में उनकी भागीदारी की असली तस्वीर हमारे सामने आ सकेगी. जाहिर है उपेक्षित समुदायों को उनका हक दिलाया जाएगा और उसी से क्रमशः जातिगत भेदभाव कम होगा.