The Unknowing Sage
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"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह
30 December 2013
28 December 2013
Bhagata Sadh - भगता साध
As revealed by the history of famines during the 19TH century, because of hunger and tormenting poverty, many people among the communities like Meghs had even started eating the flesh of animals, dead or otherwise. Hunger also compelled them to eat the left-over food of both the Muslims and Hindus. However, Basith and Dhian (sub-castes among Meghs in Jammu province) did not develop such habits. Because of this reason, they started keeping aloof from the other Meghs or Mihnghs.
However, the issue was resolved through the efforts of Baba Bhagata Sadh r/o Vill. Khairi, Dist. Jammu, who later on came to be known as ‘Guru of Keran’. Consequently, by a contract which was concluded and signed in 1879, through the influence of a ‘Guru of Keran’, the representatives of Meghs hailing from different areas pledged themselves to total abstinence from it. A breach of this agreement made a man liable to pay Rs. 25 to the Government, Rs. 5 to the headmen of village, and a sum, fixed according to the means of the offender, as a penalty was to be paid to the brotherhood (Biradari). In default of payment, he was liable to exclusion from the caste. This contract did have a good impact over the people and since then the Meghs have generally believed in vegetarian food habits.
(यह सूचना श्री रतन गोत्रा जी के एक आलेख Meghs of India से मिली है. यह भी सुनने में आया है कि भगता साध के अनुयायी आज उनकी जीवन-कथा के साथ कुछ चमत्कारों के जुड़ने की बातें भी बताते हैं.)
06 December 2013
Balli Singh Cheema - बल्ली सिंह चीमा
ग़ज़ल के क्षेत्र में यह एक सशक्त हस्ताक्षर दिखा है. शायद मैं ही इसे देखने में लेट हूँ. आप इसका आनंद लीजिए.
यूँ मिला आज वो मुझसे कि ख़फ़ा हो जैसे
मैंने महसूस किया मेरी ख़ता हो जैसे
तुम मिले हो तो ये दर-दर पे भटकना छूटा
एक बेकार को कुछ काम मिला हो जैसे
ज़िंदगी छोड़ के जायेगी न जीने देगी
मैंने इसका कोई नुकसान किया हो जैसे
वो तो आदेश पे आदेश दिये जाता है
सिर्फ़ मेरा नहीं दुनिया का ख़ुदा हो जैसे
तेरे होठों पे मेरा नाम ख़ुदा ख़ैर करे
एक मस्जिद पे श्रीराम लिखा हो जैसे
मेरे कानों में बजी प्यार भरी धुन बल्ली
उसने हौले से मेरा नाम लिया हो जैसे
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यूँ मिला आज वो मुझसे कि ख़फ़ा हो जैसे
मैंने महसूस किया मेरी ख़ता हो जैसे
तुम मिले हो तो ये दर-दर पे भटकना छूटा
एक बेकार को कुछ काम मिला हो जैसे
ज़िंदगी छोड़ के जायेगी न जीने देगी
मैंने इसका कोई नुकसान किया हो जैसे
वो तो आदेश पे आदेश दिये जाता है
सिर्फ़ मेरा नहीं दुनिया का ख़ुदा हो जैसे
तेरे होठों पे मेरा नाम ख़ुदा ख़ैर करे
एक मस्जिद पे श्रीराम लिखा हो जैसे
मेरे कानों में बजी प्यार भरी धुन बल्ली
उसने हौले से मेरा नाम लिया हो जैसे
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01 December 2013
The Koris - कोरी
कोरी जाति के बारे में विकिपीडिया पर एक आलेख उपलब्ध है जिसे मैंने हाल ही में (शायद दोबारा) देखा है. रुचिकर है. इस आलेख को और कोली तथा मेघवाल आलेख को मिला कर पढ़ें तो काफी स्पष्ट हो जाता है कि ये तीनों जातियों में कोई अंतर नहीं है. और भी जानकारी वहाँ मिलेगी.
22 November 2013
Meghs/Kol of J&K-2
जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पंजाब के कई भूभाग सन 1900 के आसपास chamba state में शामिल थे। रावी और चंद्रभागा नदियों के कारण यह महत्वपूर्ण क्षेत्र था। उन्नीसवीं सदी के अंत में अंग्रेजों ने इस भूभाग का विस्तृत सर्वे और अनुसन्धान किया जिसे गजेटिअर ऑफ़ चाम्बा के नाम से 1910 में प्रकाशित किया। सैमुएल टी वेस्टन द्वारा सम्पादित इस गजेटियर में इन इलाकों में निवासित लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, खानपान, व्यवसाय और इतिहास आदि पर महत्वपूर्ण सामग्री है। पंजाब और जे. के. आदि क्षेत्रों में निवास करने वाले मेघ समुदाय पर उपलब्ध सूचना संक्षेप में निम्न प्रकार है-
To Satish Bhagat-.यहाँ
पर आपको सैम्युल टी वेस्टन के मेघ इतिहास के बारे में व्यक्त मत का अनुवाद
पेश कर रहा हूँ। कृपया संग्रहित करें। जम्मू-कश्मीर में ज्यादातर मेघ
आबादी पर्वतीय क्षेत्रों में रहती है। ये वर्त्तमान में पर्वतों पर नहीं बसे
हैं बल्कि जब से पहाड़ी क्षेत्रों में बस्तियाँ बसने लगीं तभी से आबाद हैं। आज
ये एक जाति के रूप में जाने जाते हैं।
सैमुअल टी वेस्टन लिखते हैं- "पर्वतों पर रहने वाले ये लोग मूलतः कौन थे? इस
बारे में अत्यल्प जानकारी भी उपलब्ध नहीं है; जो इस बारे में हमारी मदद कर
सके। परम्परागत मान्यता है कि ये लोग मैदानी इलाकों से आकर यहाँ बसे हैं।
जहाँ सब कुछ अनिश्चित है; जहाँ कोई अनुमान की जोखिम उठाता तो यह असम्भाव्य
नहीं लगता है कि वर्त्तमान में जो मेघ आदि जातियाँ हैं वे लोग ही यहाँ के
आदि (मूल) निवासी है।--------इनकी आबादी एक चौथाई है। जो कोली----मेघ और कुछ
अन्य में परिगणित हैं। यद्यपि वे सामाजिक स्तरीकरण में अलग अलग हैं परन्तु
हिन्दुओं द्वारा उन्हें बहिष्कृत (जाति बाह्य) ही माना जाता है। इन लोगों के
पास अपने मूल निवास की कोई इतिहास-परंपरा भी नहीं है। जो इस अनुमान को पुष्ट
करता है कि उनको यहाँ निवास करते हुए लम्बा काल गुजर चुका है। जनरल
कन्निन्घम आश्वस्त हैं कि किसी समय पश्चिमी हिमालय क्षेत्र, मध्य भारत में
बसने वाली कोल प्रजाति के समान मानव समूहों द्वारा ही आबाद था। आज भी ये
बहुतायत लोग है; जो कोल; मेघ नाम धारण करते हैं । ये वही लोग है।" पूर्वोक्त
पृष्ठ 58.
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11 November 2013
Megh and Magh - मेघ और मघ
राय,
एस.एन,
भारतीय
पुरालिपि एवं अभिलेख,
पृ.
201
विषय
विवेचन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण
ध्यातव्य पक्ष है कि 1929
ईस्वी
से लेकर अभी हाल तक मघ नरेशों
को प्रसंगित करने वाली
संख्या-प्रचुर
मुहरों एवं मुद्राओं के अतिरिक्त
ऐसे अनेक अभिलेख प्राप्त हो
चुके हैं कि इनसे संबंधित अनेक
ऐतिहासिक समस्याएँ
विचार एवं विमर्श की विषय बन
बैठी हैं.
जिन
विशेष स्थानों के सर्वेक्षण
एवं समुत्खनन शोधों से ये
उपकरण प्रकाश में लाये गये
हैं, वे
हैं उत्तर प्रदेश में स्थित
कौशाम्बी,
भीटा,
गिंजा,
फतेहपुर
तथा मध्य प्रदेश में स्थित
बन्धोगढ़.
संबंधित
शासकों के नाम ’’मघ’’ शब्दान्त
हैं, अत
एव ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक
सम्भावना प्रस्तावित की जाती
है कि जिस विशेष राजवंश में
इनका आविर्भाव हुआ था,
उसे मघ
राजवंश की संज्ञा मिली होगी.
किन्तु
ऐसी सम्भावना पौराणिक सन्दर्भों
के कारण बाधित हो जाती है,
जिनकी
पाण्डुलिपियों में ’’मेघ’’,
यहां तक
कि ’’मेधातिथि’’ पाठ मिलता
है. इण्डिया
आफिस लाइब्रेरी में सुरक्षित
वायु पुराण की पाण्डुलिपि
संख्या 1310
में
’’मेध्य’’ पाठ मिलता है.
वायुपुराण
के आनन्दाश्रम संस्कृत सिरीज़
संस्करण में ’’मेधातिथि’’
पाठ मिलता है.
14 इन
भ्रान्तिमूलक शब्दों के प्रयोग
का कारण उत्तरकालीन संकलनकर्त्ताओं
का अज्ञान माना जा सकता है.
इन
पाण्डुलिपियों के संदर्भों
का उल्लेख पार्जिटर ने अपने
ग्रन्थ ’’पुराण टेक्स्ट ऑफ
दि डाइनेस्टीज़ आफ
दि कलि एज’’,
पृष्ठ
32 पर
किया है.
विभिन्न
पुराण-पाठों
को समायोजित कर पार्जिटर ने
निम्नोक्त पाठ
प्रस्तावित किया है:
कोसलयांतुराजानोभविष्यन्ति
महाबलाः ।
मेधा इति
समाख्याता बुद्धिमन्तोनवैवतु
।।
उक्त स्थिति
को ध्यान में रखते हुए निम्नोक्त
तथ्यों पर विचार किया जाना
अपेक्षित प्रतीत होता है:
(1) पौराणिक
एवं आभिलेखिक स्थलों में
प्रसंगित क्रमशः मेघ और मध
शब्दों में कौन-सा
शब्द वस्तुस्थिति का परिचायक
है? अर्थात
संबंधित राजवंश का वास्तविक
नाम क्या था?
(2) संबंधित
राजवंश के शासकों की वास्तविक
संख्या क्या थी,
जिसे
पौराणिक पंक्ति में नव बताया
गया है.
(3) संबंधित
शासकों की शासन-सत्ता
का समय क्या था,
जिसे
पार्जीटर ने पौराणिक संदर्भ
में तृतीय शताब्दी ईस्वी माना
है.
(4) संबंधित
राजवंश की शासन-सत्ता
का क्षेत्र क्या था,
जिसे
पौराणिक पंक्ति में कोसल की
संज्ञा दी गई है.
उल्लेखनीय
है कि इलाहबाद जिले में स्थित
भीटा नामक स्थान से जो मुहर
प्राप्त हुई थी,
उसके
अभिलेखांकन में सर जान मार्शल
एवं राय बहादुर दया राम साहनी
ने भद्रमेघ एवं शिवमेघ जैसे
शासक-द्योतक
नामों को निरूपित किया था.
17
संदर्भ:
14. वायुपुराण,
99.373-382
ब्रम्हाण्डपुराण,
3. 74, 186.993
विष्णुपुराण,
4.24.17-18
भागवतपुराण,
12.1.34-37 (इन
स्थारनों में ’’मेघ’’ शब्द
मिलता है)
।
17. सर
जान मार्शल,
आर्क्यालाजिकल
सर्वे आफ इण्डिया रिपोर्ट,
1911-1912, डी.आर.
साहनी,
एपिग्राफिया
इण्डिका,
भाग 8,
पृष्ठ
15-16
Roy, S.N., Magha Inscriptions in the Allahabad Museum, p.36-38
There
is yet another pint involved in the analysis of Nagar, the
foundamental core of which needs careful consideration. As shown
above, he invites our attention to the Purana-passage which alludes
to the existence of nine rulers in the Magha dynasty. He
seems to believe that the information of the Puranas in this regard
can not be justified without postulating the existence of the new
king Jayamagha and without distinguishing this king from Vijayamagha.
The number of Magha rulers otherwise falls short of one.
Before
examining the reasonability of the above observation, it may be
desirable to take into account the authenticity of Puranic statement
in this regard. Among the scholars, who have taken any cognizance of
the Puranic evidence on the present issue mention can be made of
Altekar. He observes, that the information supplied by the Puranas
is very meager, that they only tell us that there will be nine kings
in this dynasty, that they neither refer to the names of these rulers
nor to the reign period of each of them, that their time also is not
specifically indicated, that the context shows that they must have
ruled in the 2nd and the 3rd centuries A.D.89
Explaining
the position comparatively in a greater detail, Sastry points out
that the dynastic text as reconstructed by Pargiter avers in the
usual prophetic vein that there would flourish nine wise and powerful
kings well known as Maghas, that according to Pargiter, the dynasties
mentioned here of which Megha is one, flourished in the third century
A.D., that on account of the similarity of this dynastic designation
with the word Magha found suffixed to the names of some of the
members of what is popularly known as the Magha dynasty, the Meghas
of the Puranas have by common consent been identified with the
Maghas, that since the manuscripts of the Puranas give variant
readings of the dynastic appellation, it is possible that the
original reading was Magha and the substitution of the medial “e”
for “a” is due to the copysts, that according to the Puranas, the
Meghas (or Maghas) ruled in Kosala, that in view of its association
with some areas of the Doccan like Mekala and Nishadha and the Nala
dynasty Kosala in the present context, appears to refer to South
Kosala which comprised the Chhattisgarh region of Madhya Pradesh and
the Sambhalpur district of Orissa; that the find-spots of the records
of the Maghas, on the other hand, lie between Bandhogarh in the south
to Fatehpur in the north with Kausambi approximately occupying the
central position; that Bandhogarh, which judging from the provenance
of inscriptions, formed the southernmost part of the Magha kingdom is
situated at a distance of a few hundred kilometers from the
northernmost portions of the Chhattisgarh region, that this
discrepancy must be explained away if the Maghas of the inscription,
coins and seals are taken as identical to the Meghas of the Puranas.
In
continuation, Sastry suggests the possibility of three alternative
explanations; that the dominions of some of the Megha chiefs extended
as far south as Dakshina Koala, or touched upon its borders for which
no evidence has come to the fore so far; that the sourthern border of
Dakshina Kosala may at one time, have extended much further that the
Chhattisgarh area so as to touch upon or cover the Bandhogarh region
(here Sastry91 cities the case of Panduvamsi King Nannaraja whose
dominions reached as far as the banks of the river Varada, mod.
Wardha, a tributary of Godavari, E.I. XXXI, pp. 35-36); that the
Puranas have erroneously referred to Kosala instead of Vatsa or some
other geographical name as the dominion of the Maghas; that such
errors are not rare in the Puranas and if none of these alternatives
are acceptable, the Meghas of the Puranas will have to be treated as
different from the Maghas of our archaeological records and a search
for the archaeological records of the Meghas will have to be
instituted.
It is
evident from the notes and observations of Altekar and Sastry that
the Purana-passage under reference is not free error and consequently
its authenticity also is not unquestionable. Its wording even
though meticulously reconstructed by Pargiter taking into
consideration the variants dispersed in the extant manuscripts hardly
makes it useful for the purpose of history. The employment of the
expression Megha instead of Magha makes one believe, at least at the
first glance, that the passage has its reference to some other ruling
house and not to that one which is introduced by the antiquarian
records explored so far. If this is taken for error attributable to
the copyist of the text, then in that case we will have to locate the
particular situation responsible for this kind of error. But the
fact remains that any such attempt is likely to be a futile exercise
for want of requisite data on the point.
R E F E
R E N C E S
89)
JGJRI, Vol. 1, pt. 2, p.149
90)
A.M. Sastry, ibid, pp.19-20
91)
ibid, p.32, N.7.
92)
G.R. Sharma, History to Pre-history, pp.34-35
J.S.
Negi ibid, pp.64-55
93)
E.I. XVIII, p.160, pl. No. III.
Shastri, Ajay Mitra, Kausambhi Hoard of Megha Coins, P.19
Maghas and Meghas
The Dynastic text of the Puranas as reconstructed by Pargiter avers in the usual prophetic vein that there would flourish in Kasala nine wise and powerful kings well-known as Megha.1 According to Pargiter, the dynasties mentioned here, of which Megha is one, flourished in the third century A.D.2 On account of the similarity of this dynastic designation with the word megha found suffixed to the names of some of the members of what is popularly known as the Magha dynasty the Meghas of the Puranas have by common consent been identified with the Meghas.3 Since the manuscripts of the Puranas give variant readings of the dynastic appellation,4 it is possible that the original reading was Magha and that the substitution of the medial e for a is due to the copyists. Now, according to the Puranas, the Meghas(or Maghas) ruled in Kosala. In view of its mention in association with some areas of the Deccan like Mekala and Nishadha and the Nala dynasty Kosala, in the present context, appears to refer to South Kosala which comprised the Chhattisgarh region of Madhya Pradesh and the Sambalpur District of Orissa. The find-spots of the records of the Maghas, on the other hand, lie between Bandhogarh in the south to Fatehpur in the north with Kausambi occupying an approximately central position. Bandhogarh, which, judging from the provenance of inscriptions,5 formed the southernmost point of the Magha kingdom, is situated at a distance of a few hundred kilometers from the northernmost portions of the Chhattisgarh region. This discrepancy must be explained away if the Maghas of inscriptions, coins and seals are to be taken as identical with the Meghas of Puranas. Three alternative explanations may be suggested. First, possibly the dominions of some of the Magha chiefs extended as far south as Dakshina Kosala6 or touched upon its borders though, it must be admitted, no record of the dynasty has been reported from anywhere within or close to this area. Secondly, northern borders of Dakshina Kosala may, at one time, have extended much further than the Chhattisgarh area so as to touch upon or cover the Bandhogarh region.7 And lastly, it is possible that the Puranas have erroneously referred to Kasala instead of Vatsa or some other geographical name as the dominion of the Meghas. Such errors are not very rare in the Puranas. And if none of these alternatives is found acceptable, the Meghas of the Puranas will have to be treated as different from the Maghas of our archaeological records and a search for the archaeological records of the Meghas will have to be instituted.
R E F E R E N C E S
1. Kosalayam tu rajano bhavishyanti mahabalah,
Megha iti samakhyata buddhimanto nav-aiva tu.
Medya and Medhatithi are given as variants in place of Megha and Megha iti respectively. F. E. Pargiter, The Purana Text of the Dynasties of the Kali Age, p.51
2. Ibid., pp. 50, 73
3. This view is, however, not accepted by some scholars. See Jagannath Agrawala in Comprehensive History of India, II, p.259, note 4.
4. Medya and Medhatithi are mentioned by Pargiter as variants in place of Megha and Megha iti respectively. See The Purana Text of Dynasties of the Kali Age, p.51, note 21.
5. According to K.D. Bajpai, some Magha coins also have been found at Bandhogarh.
6. Altekar thinks it possible that in the heyday of their glory, the Magha kings ruled over wide territories extending from Bilaspur in the south to Fatehpur in the north, vide JGJRI, I, P.159.
7. Limits of provinces are known to have changed with political vicissitudes. To cite an example, Dakshina Kosala once appears to have included a part of Vidarbha. The senkapat inscription of the time of the Panduvamsi king Maha-Sivagupta Balarjuna of South Kosala shows that the dominions of his predecessor Nannaraja reached as far as the banks of the river Varada, mod. Wardha, a tributary of the Godavari. See EI, XXXI, pp.35-36.
R C Majumdar -Ancient India p-127
Know your history as told by historian; Prof. Radheysharan-"विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास( वृहतर बघेलखंड)" -2001;पृष्ठ- 166 to169.
महाराष्ट्रातील महारांचा इतिहास--शंकरराव खरात; पृष्ठ 110-111
MEGHnet
08 November 2013
Megh Emperors - मेघ सम्राट
प्राचीन
मेघ राजाओं के बारे में
इतिहासकारों का क्या कहना है
इसके बारे में ताराराम जी ने
फोटो भेजे थे.
इसमें
एक पुस्तक-
'भारतवर्ष
का अंधकारयुगीन इतिहास'
(पृष्ठ
161)
की
फोटोप्रति भी इसमें
शामिल थी.
यह
पुस्तक प्रो.
काशी
प्रसाद जायसवाल ने लिखी है.
इसे
पढ़ कर अब गर्व से कहने को दिल
करता है कि-
"मैं
मेघ हूँ.
मैं
अपना इतिहास जानता हूँ.
मेरे
पुरखे सम्राट थे.
शक्तिशाली
और बुद्धिमान थे."
"वाकाटकों
के समय में कोसला के एक के बाद
एक इस प्रकार नौ शासक हुए थे,
पर
भागवत के अनुसार इनकी संख्या
सात ही है.
ये
लोग मेघ कहलाते थे.
संभव
है कि ये लोग उड़ीसा तथा कलिंग
के उन्हीं चेदियों के वंशज
हों जो खारवेल के वंशधर थे और
जो अपने साम्राज्यकाल में
महामेघ कहलाते थे.
अपनी
सात या नौ पीढ़ियों के कारण
ये लोग मूलतः विंध्यशक्ति के
समय तक जब कि आंध्र पर विजय
प्राप्त की गई थी,
या
उससे भी और पहले भारशिवों के
समय तक जा पहुँचते हैं.
विष्णुपुराण
के अनुसार कोसला प्रदेश के
सात विभाग थे (सप्त
कोसला).
पुराणों
में कहा गया है कि ये शासक बहुत
शक्तिशाली और बहुत बुद्धिमान
थे.
गुप्तों
के समय में मेघ लोग हमें फिर
कोशांबी के शासकों और गवर्नरों
के रूप में मिलते हैं जहाँ
उनके दो शिलालेख मिले हैं."
04 November 2013
Religion of Meghs - A deliberation - मेघों का धर्म- एक चिंतन
मेघ
समुदाय में मेघों के धर्म के विषय पर कुछ कहना टेढ़ी खीर है. यदि किसी को अपने धर्म के बारे में ठीक-ठीक नहीं मालूम तो आप उससे क्या अपेक्षा रखेंगे.
यह
विषय गहन गंभीर है क्योंकि- (1)
धर्म
व्यक्ति की नितांत व्यक्तिगत
चीज़ है,
इसे
वह सब के सामने नहीं भी रखना
चाहता.
(2) भय
के कारण वह सबके सामने वही
रखता है जो लोक में प्रचलित
है या कमोबेश स्वीकृत है.
विभिन्न लोगों की आपसी बातचीत से कुछ तथ्य सामने आए जिन्हें नीचे संजोया गया है.
1. मेघ
अपने धर्म का इतिहास तो दूर
वे अपना इतिहास तक नहीं जानते.
जो
थोड़े-बहुत
जानते हैं वे -
टुकड़ों
में जानते हैं.
उलझन में पड़े हैं.
बहुत
से पढ़े-लिखे
(literate)
हैं
लेकिन शिक्षित (educated)
कम
हैं.
वे
इस विषय में तर्क नहीं कर पाते
और भावनाओं की मदद लेते हैं.
ऐसा
भी नहीं है कि तर्क योग्य
बिंदुओं का अभाव है परंतु यह
सत्य है कि शिक्षा और आर्थिक
स्रोतों की कमी के कारण उनमें
से अधिकतर उन तर्क बिंदुओं
तक पहुँच नहीं पाते. दोष किसका है?
2. हालाँकि
व्यक्ति के धर्म और लोक धर्म
में कई बातें समान हो सकती
हैं.
उनके
बारीक ताने-बाने
को बुद्धिजीवी क्रमवार समझने
का प्रयास करते हैं.
कबीर,
महात्मा ज्योतिराव फुले और डॉ.
अंबेडकर
की परंपरा में कइयों ने यह
कार्य किया है लेकिन हम उनकी
वाणी पढ़-सुना
कर धन्य हो जाते हैं.
उनकी
कही बातों में छिपे इतिहास
और परंपरा को समझने का प्रयास
नहीं करते.
3. एक
विशेष उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ.
मार्च,
1903 में
आर्यसमाज ने 200
मेघों
का शुद्धीकरण (?) करके उन्हें
हिंदू दायरे में लाने का पहला
प्रयास किया.
बाद
में बहुत से मेघों का शुद्धीकरण
किया गया.
मेघों
की गणना हिंदुओं में करने से
स्यालकोट के उस क्षेत्र में
मुस्लिमों की संख्या 50
प्रतिशत
से कम हो गई इससे हिंदुओं के
नाम पर आर्यसमाज/हिंदुओं
को अंग्रेज़ों से काफी लाभ
मिले थे. लेकिन यह सवाल स्वाभाविक उठ खड़ा होता है कि आज की तारीख में कितने मेघ आर्यसमाजी
हैं और कि आर्यसमाज के एजेंडा
में मेघ कहाँ हैं. जो
मेघ पाकिस्तान में रह गए थे
उनमें से काफ़ी इस्लाम को अपना
चुके हैं.
जो
अभी भी हिंदू हैं वे अपना हाल
बताना चाहें भी तो सीमा पार
से उनकी आवाज़ कम ही आती है. वे
अल्पसंख्यक हैं और अन्य
अल्पसंख्यकों की भाँति अपने
अस्तित्व के लिए संघर्ष कर
रहे हैं.
पाकिस्तान
में रह गए मेघवालों और मेघवारों
का भी यही हाल है.
राजस्थान
में रह रहे मेघवाल अपने एक
पूर्वज बाबा रामदेव के मंदिरों
में जाते हैं.
गुजरात
के मेघवारों ने अपने पूर्वज
मातंग ऋषि के बारमतिपंथ को
धर्म के रूप में सहेज कर रखा
है और उनके अपने मंदिर हैं, पाकिस्तान में भी.
Baba Ramdev |
Dhani Matang Dev |
4. पंजाब के जो मेघ भारत विभाजन के बाद भारत में आ गए वे आर्यसमाज के एजेंडा से बाहर हो गए. राजनीतिक रूप से यहाँ हिंदुओं के रूप में उनकी कोई ज़रूरत नहीं रह गई थी. साथ ही वे कई अन्य धर्मों/पंथों में बँट गए जैसे राधास्वामी, निरंकारी, ब्राह्मणीकल सनातन धर्म, सिख धर्म, ईसाई धर्म, विभिन्न गुरुओं के डेरे-गद्दियाँ आदि. सच्चाई यह है कि जिसने भी उन्हें 'मानवता और समानता' का बोर्ड दिखाया वे उसकी ओर पाँच रुपया और हार लेकर दौड़ पड़े. इससे उनका सामाजिक स्तर तो क्या बदलना था, धार्मिक दृष्टि से उनकी अलग पहचान की संभावना भी पतली पड़ गई. राजनीतिक पार्टियाँ अपने वोटों की गिनती करते समय हिंदुओं, सिखों, मुसलमानों और ईसाइयों के वोट गिनने के बाद "बाकियों के वोटो" में मेघों को गिन भर लेती हैं. विशेष महत्व नहीं देतीं. कारण यह कि मेघों ने सामूहिक निर्णय कम ही लिए हैं.
5. मेघ
जानते-बूझते
हैं कि मंदिरों में उनके
पुरखों के जाने पर मनाही थी. वे आज भी धर्म के भय से उबर नहीं पाते. इस
स्थिति पर उन्हें ख़ुद पर
क्रोध तो आता है लेकिन वे
तर्कहीन पौराणिक कथाओं से
प्रभावित हैं. वे देवी-देवताओं
के मंदिरों की ओर आकर्षित हैं.
कला और धर्म के मेल से असीमित कृतियाँ बन सकती हैं. उससे कहीं धर्म तो गायब नहीं हो जाता? |
7. मेघों की नई पीढ़ी कबीर की ओर
झुकने लगी है और बुद्धिज़्म
को एक विकल्प के रूप में जानने
लगी है बिना जाने कि कबीर और
बुद्ध की शिक्षाओं में ग़ज़ब
की समानता है.
देखने
में आया है कि यह पीढ़ी अगर
मंदिरों में जाने लगी है तो साथ ही वहाँ के कर्म-कांडों
और वहाँ से फैलाए जा रहे
अंधविश्वासों के प्रति जागरूक
है.
वह मूर्तियों को दूध-दही
चढ़ाने,
दूध
पिलाने आदि के आडंबर के विरोध
में है.
8. युवा
मेघ पूछते हैं कि शूद्र 'खास
अपने' मंदिर क्यों नहीं बनाते?
शायद
वे नहीं जानते कि वे देवी-देवताओं की मूर्तियों वाले अपने खास
मंदिर बना लेंगे (कबीर
मंदिर को छोड़)
तो
अन्य जातियों के लोग विशेषकर ब्राह्मण उन पर
कब्ज़ा जमाने के लिए आ जाएँगे क्योंकि मंदरों में धन लगातार
टपकता है.
यह
एक भरा-पूरा
व्यवसाय है.
अपने
समुदाय द्वारा बनाए गए कबीर
मंदिरों में चढ़ा पैसा मेघ
अपने उत्थान के लिए प्रयोग
में ला सकते हैं.
वैसे
उन मेघों की संख्या काफी है
जो इष्ट के रूप में कबीर को सब
कुछ देने वाला मानते हैं और उससे शक्ति
ग्रहण करते हैं.
9. कुछ मेघ इस अनुभव से गुज़रे हैं कि कई मंदिरों और धार्मिक
स्थलों का प्रयोग जातीय भेदभाव
फैलाने के लिए होने दिया जाता
है.
अतः
वे भगवान को तो मानते हैं लेकिन
इसके लिए किसी मंदिर में जाने
की अनिवार्यता महसूस नहीं
करते न ही वे ऐसे मंदिरों में
दान देना चाहते हैं.
वे
समुदाय के लिए या कबीर मंदिर
के लिए दान देने में विश्वास
रखते हैं.
तथाकथित
हिंदू धर्म ग्रंथों (जो
ब्राह्मणों द्वारा लिखे हैं)
पर
उनका विश्वास समाप्त हो रहा
है क्योंकि ये ग्रंथ जातिवाद
बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो
रहे हैं.
10. अंत में यह कहना पर्याप्त होगा कि मेघों में संशयवादी विचारधारा के लोग भी हैं जो भगवान, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि की आवश्यकता महसूस नहीं करते बल्कि देश के संविधान पर भरोसा रखते हैं.
10. अंत में यह कहना पर्याप्त होगा कि मेघों में संशयवादी विचारधारा के लोग भी हैं जो भगवान, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि की आवश्यकता महसूस नहीं करते बल्कि देश के संविधान पर भरोसा रखते हैं.
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