"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


25 June 2018

Sir Chhoturam and Meghs - सर छोटूराम और मेघ


यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार
सर छोटूराम के नेतृत्व में यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार के चलते ही मेघों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में जगह मिली थी. सन् 1931 की जनगणना के बाद सन् 1937 के चुनावों के लिए अनुसूचित जातियों का पहला सूचीकरण करने की कवायद शुरू हुई. एडवोकेट हंसराज भगत ने 1937 में ही स्टेट असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में इलैक्शन लड़ा था हालाँकि वे चुनाव हार गए थे. 1945 में भगत हंसराज को आदधर्मी समुदाय और यूनियनिस्ट पार्टी का समर्थन मिला और वे यूनियनिस्ट पार्टी की ओर से नामांकित हो कर विधान परिषद के सदस्य बने और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किया. 
पंजाब के हिंदू, मुसलमानों, दलितों और सिखों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित दस सदस्यीय 'पंजाब स्टेट फ्रैंचाइज़ कमेटी' में एडवोकेट हंसराज और जनाब के. बी. दीन मोहम्मद को सदस्य नियुक्त किया गया. हिंदुओं में सर छोटूराम और पंडित नायक चंद भी इसमें सदस्य थे. समिति के नौ सदस्यों (हिंदू और एक सिख प्रतिनिधि) ने रिपोर्ट दी कि यह कहना मुमकिन नहीं था कि उस समय के अविभाजित पजाब में कोई ऐसे दलित समुदाय थे जिनके धर्म को लेकर उनके सिविल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि गाँवों में ऐसे वर्ग थे जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति निश्चित रूप से बहुत खराब थी. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि हालाँकि मुस्लिमों में कोई दलित नही हैं फिर भी हिंदुओं और सिखों में दलित थे और कि उस समय के अविभाजित पंजाब में उनकी कुल जनसंख्या 1,30,709 थी.
कुल मिला कर उस समिति के बहुमत ने इंकार कर दिया था कि पंजाब में दलितों या अछूतों का कोई अस्तित्व था. लेकिन एडवोकेट हंसराज ने अपना एक अलग असहमति (dissenting) नोट दिया जिसमें कहा गया था कि समिति ने दलित समुदायों की जो सूची दी थी वो सूची इस वजह से अपूर्ण थी क्योंकि मेघों सहित कई समुदाय उस सूची से बाहर रखे गए थे. यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार ने उनके उस असहमति नोट को महत्व दिया गया और पंजाब के दलित समुदायों को अनुसूचित जातियों में शामिल कर लिया गया. डॉ. अंबेडकर से समर्थन प्राप्त हंसराज जी के प्रयासों से मेघों को अनुसूचित जातियों में रखा गया. यदि आर्य हिंदू सफल हो जाते तो आज़ादी के बाद मेघों को नौकरियों में आरक्षण का वो फायदा नहीं मिलता जिसकी वजह से वे कुछ तरक्की कर पाए हैं.
इस बीच फेसबुक पर एक कम्युनिटी Jats (इस लिंक को पूरा पढ़ना लाभकारी होगा. यह लिंक 25 जून 2018 को रिट्रीव किया गया था.) पर एक नोट मिला जिसमें श्री आर.एस. तोमर की पुस्तक “किसानबंधु, चौधरी सर छोटूराम” के हवाले से डॉ. अंबेडकर और सर छोटूराम के समकालीन प्रसिद्ध विद्वान श्री सोहनलाल शास्त्री (विद्यावाचस्पति, बी.ए., रिसर्च आफिसर, राजभाषा (विधायी) आयोग, विधि मंत्रालय भारत सरकार) को उद्धृत करते हुए बताया गया है कि - ज़िला मुल्तान में आर्य नगर नामक गाँव की सारी भूमि सन 1923-1924 मे मेघ उद्धार सभा स्यालकोट ने सरकार से सस्ते दामों में खरीद कर के मेघ जाति के हरिजनों को उसका मुजारा बना कर आबाद किया. कई बरसों का सरकारी लगान और मुरब्बों की किश्तें अदा न करने के कारण सरकार ने उस गाँव की सारी ज़मीन जब्त कर ली थी और फैसला कर दिया था कि इस भूमि की कीमत वसूल की जाये. सरकार ने मेघ उद्धार सभा (जिसके कर्ता-धर्ता हिन्दू साहूकार व वकील थे) के पदाधिकारियों को नोटिस थमा दिये कि वह बकाया रकम अदा करें. किन्तु मेघ उद्धार सभा ने ऐसा नहीं किया. यूनियनिस्ट सरकार के समय में चौधरी साहब ने हरिजन काश्तकारों को ज़मीन बांटने का फैसला कर दिया और मेघ उद्धार सभा का दखल समाप्त करके यह इस सारे गाँव के मुरब्बे मेघ जाति के हरिजनो में बाँट दिये. जो मेघ काश्तकार जिस-जिस मुरब्बे को काश्त करते चले जा रहे थे वही उसके मालिक बना दिये गए और लगान का बकाया आदि उनसे सस्ती किश्तों में वसूल किया. आपने (सर छोटूराम ने) अपने एक प्राइवेट पार्लियामेंट सेक्रेटरी को आदेश दिया कि जिस-जिस मुरब्बे पर मेघ (हरिजन) काश्तकार चला आ रहा है, वह मुरब्बा उस के नाम पर अंकित कर दिया जाये. (यह जानकारी रिकार्ड करने के लिए श्री सोहनलाल शास्त्री और श्री आर.एस. तोमर को धन्यवाद देना तो बनता है).
हालाँकि उस समय की कई घटनाओं का परत-दर-परत रिकार्ड नहीं मिलता फिर भी जो कुछ मिलता है उससे स्पष्ट है कि एडवोकेट हंसराज भगत ने आर्य नगर की ज़मीन को लेकर मेघों की जो लड़ाई शुरू की थी उसमें सर छोटूराम की सरकार ने आगे चल कर सकारात्मक कार्रवाई की और आर्यनगर की ज़मीनें मेघों के नाम कर दी गईं. इसी संदर्भ में डॉ. ध्यान सिंह ने बताया है कि केवल उन्हीं मेघों की ज़मीनें उनके नाम की गई थीं जिन्होंने भूमि की कीमत अदा की थी और इसके लिए उन्हें एक से अधिक अवसर दिए गए थे. दूसरे, ऐसा प्रतीत होता है कि सोहनलाल शास्त्री ने 'मुरब्बे' (ज़मीन का एक क्षेत्र) शब्द का प्रयोग अतिश्योक्ति अलंकार की तरह किया है.

(इस आलेख को यूनियनिस्ट मिशन के सदस्यों के बीच प्रचारित करने के लिए जाट नेता राकेश सांगवान जी का आभार. राकेश सांगवान जी प्रसिद्ध जुझारू जाट नेता कैप्टेन हवा सिंह सांगवान जी के सुपुत्र हैं.)