"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


An investigation into History


डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘इतिहास का मुआयना’ पढ़ना एक आश्चर्य में डालने वाला और मन-मस्तिष्क को खोल देने वाला सुखद अनुभव रहा. अपने मेघ समुदाय का इतिहास खोजते हुए रास्ते में पसरे अंधेरे में कई ठोकरें खाई हैं. कहीं रोशनी दिखती थी लेकिन गुम हो जाती थी. आखिर यही सच साबित हुआ कि इतिहास और भाषा का रास्ता सच जैसा सीधा नहीं है. साहित्य और इतिहास में से बहुत-सा सच गायब है. जब तक सच अपना इतिहास ख़ुद नहीं लिखता तब तक वह नज़र नहीं आ सकता.

अब ‘इतिहास का मुआयना’ की ओर आते हैं. इस पुस्तक ने पढ़ाए जा रहे इतिहास पर प्रमाण और तर्क सहित सवाल उठाए गए हैं. यह विशेषकर भाषा के नज़रिए से जाँचा गया इतिहास है. होना यह चाहिए कि बच्चों को वो इतिहास पढ़ाया जाए जो पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर लिखा गया हो. इतिहास लेखन की ऐसी परंपरा अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहां नहीं थी. अंग्रेजों का पुरातत्व प्रेम ही  सम्राट अशोक का इतिहास, सिंधु घाटी सभ्यता और बौद्ध सभ्यता का इतिहास खोज कर लाया. संभव है संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में इतिहास के संकेत उपलब्ध हों लेकिन समस्या यह रही कि संस्कृत भारत में कभी जनभाषा रही नहीं. इसलिए जो संस्कृत में लिखा गया वह ना तो जन तक पहुंचा और ना ही लोगों ने उस पर संदर्भात्मक संवाद किया. केवल वैदिक और पौराणिक कथाओं के समय-समय पर बदलते नेरेटिव के स्थानीय भाषाओं में किए गए मनमाने अनुवाद से वे परिचित रहे. शिलाओं और शिलालेखों पर उपलब्ध इतिहास की शक्ल किसी के हथौड़े-छैनी ने बदल दी या प्रकृति ने समय-समय पर उसके रूप को प्रभावित किया. लिखित साहित्य के संस्करण तो बदले ही जाते रहे.

नृविज्ञान (Anthropology) ने बताया है कि भारत में सबसे पहले ‘नेग्रिटो’ (Negrito) का पता चलता है और उसके बाद ‘आस्ट्रिकों’ (Austric) का. पीपल की पूजा और तीर-कमान का इस्तेमाल नेग्रिटो की देन है तो सिंदूर, 20 पर आधारित गिनती, कपास और कपड़ा बनाना ‘आस्ट्रिकों’ का दिया उपहार है. इनके बाद द्रविड़ आते हैं जिन्होंने हिंदी की ‘ट’ वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) की ध्वनियां दी हैं. तमिल भाषा की झलक झारखंड की भाषा ‘कुडुख’ में और बलोचिस्तान स्थित भाषा ‘ब्राहुई’ में मिल जाती है. जाति, धर्म और देश इनकी समानताओं में कहीं बाधा नहीं बनते.

डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह की यह पुस्तक बौध सभ्यता पर बहुत ध्यान देती है क्योंकि इतिहास लेखकों ने इसके साथ काफी नाइंसाफी की है. कई ऐसी बातें लिख दी गई हैं जिनके प्रमाण नहीं थे, प्रमाण थे तो तोड़-मरोड़ कर पेश किए गए. यहाँ तक कि ऐतिहासिक पात्रों, उनसे संबंधित गांव, नगरों के नाम बदल दिए, दिन-महीनों की तो छोड़िए शताब्दियों तक की कहानी बदल दी, कांस्य युगीन बौध-सभ्यता को ईसा पूर्व की छठी शताब्दी के लौह युग में ला कर रख दिया गया.

इतिहास के साथ हुई छेड़-छाड़ के कई उदाहरण डॉ. सिंह ने दिए हैं. इतिहासकार डी.डी. कोसंबी के हवाले से उन्होंने बताया है कि बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम और उनकी पत्नी का नाम कच्चाना था और मां का नाम लुंमिनि था. इनको दिए नाम क्रमशः सिद्धार्थ, यशोधरा और महामाया वास्तव में डुप्लीकेट हैं. एलेग्ज़ेंडर का ‘सिकंदर’ नाम भी डुप्लीकेट है. कोलों (वही मानव समूह जिसके साथ मेघ वंश को जुड़ा बताया गया है) की भाषाओं (संताली, मुंडारी, हो आदि) में गोतम का सीधा-सा अर्थ घी होता है जो भारत के मूल निवासी लोगों की नाम परंपरा का है, जैसे - पंजाबी में नाम है मक्खन सिंह. तेलुगु में नाम है ‘पेरुगु रामकृष्ण’ (एक बहुत प्रसिद्ध लेखक). पेरुगु का अर्थ है दही.

वैदिक सभ्यता की बात करते हुए डॉ. सिंह ने बहुत तीखा सवाल पूछा है कि- “जब सिंधु घाटी की सभ्यता वैदिक सभ्यता थी तब इंद्र जिन्हें ‘पुरंदर’ अर्थात ढहाने वाला कहा जाता है किस का किला ढहा रहे थे. अपना ही?”. “सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मौर्य काल तक नगर, भवन, सड़कें, गलियां मिलती हैं. क्या कारण है कि गुप्त काल का ऐसा कुछ भी नहीं मिलता मंदिरों के सिवाय?”, वे पूछते हैं.

हमारे देश में अष्टमियाँ और नवमियाँ मनाने की परंपरा रही है तो क्या वजह है कि जिस अशोकाष्टमी को जनमानस हजारों साल से मनाता रहा है उसे एक अशोक वृक्ष के साथ जोड़ दिया गया. तो क्या अशोक अष्टमी किसी अशोक वृक्ष की जन्मतिथि है? लेखक ने इस पर हैरानगी प्रकट की है. यदि यह वृक्ष की जन्मतिथि है तो वाकई यह हास्यास्पद है.

वेदों और वेदों की भाषा को लेकर विद्वान लेखक ने कई जानकारियां दी हैं. वे बताते हैं कि वेद किसी आदिम समाज की रचना नहीं है. इसकी भाषा का ध्वनितंत्र और शब्द जाल चरवाहों, गड़ेरियों की भाषा से कहीं अधिक जटिल है और एक व्याकरण में आबद्ध है. इसके अलावा पुस्तक के नाम पर 'वैदिक युग' जैसा नामकरण इतिहास की शब्दावली नहीं है. यह संस्कृत साहित्य के इतिहास की टर्मिनोलॉजी हो सकती है. लेखक ने बताया है कि गौतम बुद्ध ने वैदिक साहित्य का विरोध नहीं किया था बल्कि वैदिक साहित्य ही है जो बुद्ध के विरोध में रचा गया. ईसा से पहले का कोई अभिलेख नहीं मिला है जिसमें ‘वेद’ जैसे किसी शब्द का उल्लेख हो. अशोक के अभिलेखों में भी यह शब्द नहीं है. इसके अलावा इतिहास में और साहित्य में शब्दों के साथ खिलवाड़ हुआ है जिससे गलत अर्थ निकलता है. इस विषय को छूते हुए डॉ. सिंह ने पूछा है कि द्रविड़ों के देश में तो आर्य आए थे तो द्रविड़ क्यों ‘अनार्य’ या आर्येतर हुए? सलीके से तो आर्य ही अद्रविड़ या द्रविड़ेतर हुए.

लिपि विज्ञान (Graphology) के नज़रिए से पता चलता है कि शुंग काल (185 से 149 ई.पू.) से पहले हमारी वर्णमाला में ‘ऋ’ था ही नहीं, यानि ऋग्वेद की रचना उसके बाद की है. ‘ऋ’ संस्कृत की विशिष्ट ध्वनि है और लिखित है और संस्कृत शुंग काल से पहले की नहीं है. गुप्त काल के इतिहास पर डॉ. सिंह ने कई रुचिकर जानकारियां दी हैं. वे बताते हैं कि गुप्त वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त प्रथम दरअसल मौर्य वंशी राजवंश के चंद्रगुप्त की नकल है जबकि चंद्रगुप्त प्रथम का असली नाम चंडसेन था. चंडसेन के दूसरे पुत्र समुद्रगुप्त ने अपना नाम अशोक रखा. चंद्रगुप्त द्वितीय ने राजा विक्रमादित्य का नाम अपनाया. तीनों नाम एक तरह की नकल थे जिन्होंने कई भ्रम पैदा किए.

प्रसिद्ध इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार के हवाले से बताया गया है कि 15वीं शताब्दी के महाराणा कुंभा से पहले ‘राजपूत’ शब्द साहित्य और इतिहास में नहीं मिलता. राजपूतों के लिए ‘क्षत्रिय’ शब्द रूढ़ (conventional) हुआ है. डॉ. सिंह ने पूछा है कि प्राचीन काल में क्षत्रिय किसे कहा जाता था? पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि सूरदास जाति के अहीर थे लेकिन उन्हें ब्राह्मण बनाने की होड़ लगी थी और कहा गया कि वे अहीर थे और उन्होंने ब्राह्मण के घर जन्म लिया. रैदास और कबीर के जन्म की कथाओं में भी इनके जन्म को किसी न किसी तरीके से ब्राह्मण से जोड़ा गया इस कार्य के लिए हिंदी के साहित्यकारों की कलम पल्टियाँ मार-मार कर और गुलाटियाँ खा-खा कर लिखती रही. डॉ. सिंह ने लिखा है कि कबीर का बौद्धिक आंदोलन 'भक्ति आंदोलन' ना होकर हाशिए के लोगों का आंदोलन रहा है. प्रसिद्ध समाजशास्त्री विवेक कुमार ने ‘भक्ति काल’ को ‘मुक्ति काल’ कहा है. कबीर और तुलसी की विचारधारा, दर्शन और भक्ति-दर्शन आपस में मेल नहीं खाते. कबीर अपने ईश्वर को कुम्हार, जुलाहा, रंगरेज, दर्जी आदि में बनाते हैं. एक अन्य जगह उन्होंने उदाहरण दिए हैं, जैसे- "साहब हैं रंगरेज चूनर मोरि रंग डारि", "साँई को सियत मास दस लागै", "गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट" आदि.

कबीर वैष्णव, शैव, शाक्तों की धज्जी उड़ाते हैं लेकिन बौधों पर हमला नहीं करते. उधर कबीर के जन्म से 44 वर्ष पहले ही रामानंद की मृत्यु हो चुकी थी. यह बात डॉक्टर मोहन सिंह की पुस्तक ‘कबीर - हिज़ बायोग्राफी’ (पृष्ठ 11 से 14) के हवाले से लिखी गई है.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि रीतिकाल का 200 वर्ष का इतिहास ब्राह्मण कवियों का है जिसमें कोई उल्लेखनीय शूद्र रचनाकार नहीं है.

आधुनिक काल के इतिहास में हुए आज़ादी के आंदोलनों के साथ हुए भेदभाव के बारे में कई टिप्पणियां इस पुस्तक में हैं, जैसे- आदिवासियों की स्वतंत्रता की लड़ाई जिसे स्वतंत्रता की लड़ाई के इतिहास में सही स्थान नहीं मिला. अंग्रेजों से लड़ने वाले आदिवासी नेता गुंडा धुर के नाम पर अंग्रेजों का बनाया गुंडा एक्ट आज भी उसी नाम से चल रहा है. स्वतंत्रता सेनानियों का नाम लेने का यह कोई सलीका नहीं. बाबू जगदेव प्रसाद जी के नारे - “सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है. धन, धरती और राजपाट में करना अब बंटवारा है”- इस पुस्तक में पढ़ने को मिला. यह सर छोटूराम के उस नारे की याद दिलाता है - “जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी”.

कई सामाजिक सुधार आंदोलनों का नाम लेकर लेखक ने पूछा है कि ब्रह्म, आर्य, वेद, प्रार्थना आदि क्या हैं? उधर ज्योतिबा फुले का आंदोलन ‘सत्यशोधक समाज’ के माध्यम से सत्य का प्रचार कर रहा था.

यह कृति इस बात की घोषणा ऊँचे स्वर में करती है कि 1857 से भी 100 वर्ष पहले से स्वतंत्रता के लिए अनेक युद्ध हो चुके थे जो आदिवासी लड़ते रहे. ये लड़ाइयां 18-18 साल से लेकर 60 साल तक लंबी चलीं और उन पर फौजी कार्रवाइयाँ भी हुईं. इस लड़ाई में आभिजात्य वर्ग नज़र नहीं आता. ऐसी कई लड़ाइयां तो खुद आभिजात्य वर्ग के व्यवहार के खिलाफ़ थीं.

अठारह पुराणों के पुरानेपन पर चुटकी लेते हुए लेखक ने पूछा है कि 11वें पुराण यानि ‘भविष्य पुराण’ में ब्रिटिश काल का वर्णन है. वेद युग के वेद व्यास ने 18 पुराण कैसे लिखे? वेदव्यास किस काल के हैं?

‘इतिहास का मुआयना’ पुस्तक के लेखक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह साहित्यकार तो हैं ही पाली और प्राकृत भाषा के भी जानकार हैं और शिलालेखों का अनुशीलन कर चुके हैं. वे प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी हैं और कई पुस्तकें लिख चुके हैं. वे कई शब्दों की क्षितिज तक खोज करके उन्हें असली रूप में पकड़ लाते हैं. उदाहरण के लिए जूनागढ़ अभिलेख में प्रयुक्त ‘राष्ट्रिय’ शब्द का अर्थ इतिहासकारों ने राज्यपाल या किसी अधिकारी से लिया. लेखक ने बताया है कि कालिदास ने ‘राष्ट्रिय’ शब्द का प्रयोग ‘साला’ के अर्थ में किया है. इससे दो अर्थों का भान होता है कि अभिलेख में उल्लिखित ‘राष्ट्रिय’ का तात्पर्य सम्राट अशोक के साले से है और कि जिस संस्कृत का यह शब्द है वही प्रमाणित करती है कि वह अभिलेख दूसरी सदी का ना होकर छठी या सातवीं सदी के बाद का है.

संस्कृत की पुरातनता, भारत में अधिकतम गांवों के नाम संस्कृत में ना होने, भूतकाल शब्द की प्रयुक्ति, भूत, प्रेत, पिशाच शब्दों की प्रयुक्ति, गेहूं शब्द गंदुम से आया था या गोधूम से, हाथ की उंगलियों पर गिनती करने से बने शब्द पंजा, पंज (पाँच), दस (दस्ताना, दस्तकारी) वगैरा के बारे में दी गई जानकारियाँ ध्यान खींचती हैं. यह भी बताया गया है कि ‘माया’ शब्द भारतीय दर्शन का हिस्सा बन गया बिना इस विवरण के कि इसका आविष्कार मगों ने किया था.

अपना अनुभव यहाँ जोड़ रहा हूँ कि जब हमें भाषाविज्ञान पढ़ाया गया तो बताया गया कि संस्कृत से पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ है. हमें पढ़ाया गया, हम ने पढ़ लिया. तब हम छात्रों के पास पूछने लायक कोई सवाल नहीं था. लेकिन अपनी 2017 में छपी पुस्तक में डॉ. सिंह ने हमें नए औज़ारों से परिचित कराया है और अब हम भी पूछ सकते हैं कि क्या पाली में संस्कृत का कोई तत्सम शब्द है? ये तत्सम शब्द कहीं संस्कृत का महिमामंडन की किसी खामखाह की प्रक्रिया का हिस्सा तो नहीं? अब भाषा के आचार्यों को ही उत्तर देना पड़ेगा कि पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में संस्कृत के तत्सम शब्द सिरे से नदारद क्यों हैं जबकि आधुनिक आर्य भाषाओं में हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि पहले के आचार्य उल्टा बोल गए थे और अब उस उल्टेपन को निभाया जा रहा है. अब तो व्याकरण पढ़ने वाले छात्र भी पूछ बैठते हैं कि स्वरों में यह ‘ऋ’ कैसे खड़ा है. यह तो ‘र’ (व्यंजन) के साथ ‘इ’ (स्वर) जुड़ा हुआ है. यह कोई अलग ध्वनि कैसे है. वैसे भी भाषाविज्ञान बताता है कि भाषा का विकास कठिन ध्वनियों से आसान ध्वनियों की ओर होता है. आधुनिक आर्य भाषाओं ने संस्कृत की ध्वनियों को आखिर सरल बनाया ही है. संस्कृत की ध्वनियों के उच्चारण के लिए प्रशिक्षित जिह्वा की आवश्यकता रहेगी. कहा गया है कि संस्कृत भारत की लोकप्रिय भाषा है तब समाचार पत्र, टीवी सीरियल, फिल्में, लोकगीत आदि संस्कृत में क्यों नहीं हैं? इस पुस्तक की विशेषता इस बात में भी है कि डॉ. राजेंद्र ने भारतीय भाषाओं की कई गुत्थियों के सिरे पकड़ कर सवाल पूछे हैं.

पुस्तक की लेखन शैली स्पष्टतः किसी विद्यार्थी के नोट्स लेखन जैसी है जिन्हें क्रमबद्ध तरीके से संख्या दे कर लिखा गया है. सिंधुघाटी, मौर्य काल, वैदिक काल, शुंग-गुप्त काल, मध्य काल पर और भाषाओं के इतिहास पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आपको मिल जाएँगी. जैसे-जैसे पाठक पुस्तक पढ़ता जाता है उसके भीतर प्रश्न उभरने लगते हैं और कई तरीके से उत्तर भी मिलते जाते हैं. पुस्तक एक निरंतर मुआयना और गहरी पड़ताल है जो इतिहास की बहुत सी असंगतियों और विसंगतियों को लाल पेन से रेखांकित करती है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की विशेषता यह है कि वे इमानदारी से सवाल उठा रहे हैं और अपने तर्क भी दे रहे हैं जिससे पाठक को यह फायदा होता है कि उसके मन-मस्तिष्क की कई अनजानी खिड़कियां और दरवाजे खुलने लगते हैं.

'इतिहास का मुआयना' पढ़ने के बाद इतना दावा किया जा सकता है कि यदि यह पुस्तक नवल वियोगी जैसे इतिहासकार के हाथों से गुज़री होती तो उनकी क्रांतिकारी पुस्तक 'प्राचीन भारत के शासक नाग - उनकी उत्पत्ति और इतिहास' का रूप-स्वरूप कुछ और ही होता.

पुस्तक के प्रकाशक और विक्रेता का पता नीचे दिया गया है. पुस्तक संग्रहणीय है. इतिहास, भाषा, भाषा-विज्ञान और  साहित्य के जिज्ञासु छात्र ज़रूर पढ़ें और खरीद कर पढ़ें.

 




पुस्तक - इतिहास का मुआयना
लेखक - डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह
प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन, 32/3, पश्चिम पुरी,
नई दिल्ली-110063
मूल्य : Rs.120/-
(मोबाइल - 9818390161, 9810249452)



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