"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


ज़रूरी मुद्दा

ख्यालों के जंगली घोड़ों को बाँधना नहीं चाहता. मुद्दा बार-बार किसी बहाने से सामने आ जाता है इस लिए यह नोट तैयार करके कुछ लोगों को विचारार्थ दिया है. बाकी समय बताएगा.

जब हमारे मेघ समाज के सबसे पहले शिक्षित हुए दो-एक लोगों मे से एक एडवोकेट हंसराज भगत और अन्य प्रबुद्ध जनों ने मेघ समुदाय को अनुसूचित जातियों में शामिल कराने के लिए महत्वपूर्ण प्रयत्न किए थे तब की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां आज की परिस्थितियों से इस मायने में अलग थीं कि उस समय ‘अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)’ की सूचियाँ बनाने की कोई बात नहीं हो रही थी. अपने समाज के लिए कुछ राजनीतिक और आर्थिक सुविधाएँ  जुटाने के लिए हंसराज भगत के प्रयासों के बाद सर छोटूराम की सरकार का लिया गया फैसला उचित ही था कि आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन और सामाजिक व्यवस्था द्वारा सीमाओं में बाँधे गए मेघों को अनुसूचित जातियों की सूची में रखा गया. भूलना नहीं चाहिए कि मेघों के अत्यंत खराब आर्थिक और सामाजिक हालात का मुख्य कारण जम्मू में फैली प्लेग की महामारी और अकाल की स्थितियाँ भी रहीं. अंग्रेज़ों के शासन के दौरान औद्योगीकरण ने मेघों को भी बड़े पैमाने पर बेरोज़गार कर दिया. मेघ कृषक, कृषि श्रमिक और बुनकर रहे हैं.

मेघ कब से बुनकरी का कार्य कर रहे हैं इसकी ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती. लेकिन इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि यह समाज कभी क्षत्रिय रहा है. ये प्रमाण पौराणिक कहानियों और इतिहास दोनों में मिल जाते हैं.

आज की स्थिति यह है कि मेघ कबीरपंथी भी हैं जो एक सामाजिक आंदोलन का प्रभाव है. हथकरघा (खड्डियों) का व्यवसाय बर्बाद हो जाने के बाद वे कई अन्य व्यवसायों में भी गए. मेघ कबीर की वाणी से जुड़े रहे हैं क्योंकि अपने व्यवसाय की झलक उन्हें कबीर की वाणी में मिलती थी. कई मेघ पंजाब के सेंसस रिकॉर्ड में कबीरपंथी के तौर पर दर्ज हैं.

यह सवाल मेघ (भगत, कबीरपंथी) समुदाय के लोगों के ज़ेहन में उठता रहा है कि क्या वे ओबीसी के लिए क्वालीफाई करते हैं विशेषकर कबीरपंथी नाम के तहत? कई शिक्षित मेघजनों यह मानते हैं कि यदि अनुसूचित जातियों की सूचियाँ बनाते समय ओबीसी के वर्गीकरण का विकल्प उपलब्ध रहा होता तो एडवोकेट हंसराज भगत पंजाब की मेघ जाति को उसी में शामिल करने की सिफ़ारिश करते. लेकिन उन्होंने मेघों के अत्यधिक आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण उस समय अनुसूचित जातियों में उन्हें रखे जाने का विकल्प चुना जिसमें कुछ आर्थिक सुविधाएँ संभावित थीं.

उसके बाद के समय में मेघों को सरकारी सुविधाओं और योजनाओं का लाभ मिला है और उनमें एक मध्यम वर्ग उभरा है. यह वर्ग अनुसूचित जाति का कहलाने से बहुत सकुचाता है लेकिन नौकरी या कोई अन्य लाभ पाने के लिए वो जाति प्रमाणपत्र का इस्तेमाल करता है. वो यह चाहता है कि किसी तरह ‘अनुसूचित जाति’ नाम की पहचान से पीछा छूटे. इस समान्यतः शिक्षित वर्ग में सामाजिक और राजनीतिक जागृति आई है. उनके परिवारों से अन्य जातियों में शादियाँ होती हैं. इस वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ी है. लेकिन जो इनके स्तर तक नहीं पहुँचे और जिनकी संख्या काफी अधिक है, उनका क्या? 

जो मेघ गाँवों में रह रहे हैं उनकी संख्या बड़ी है. उन्हें जाति का डंक अधिक झेलना पड़ता है. वे पर्याप्त रूप से जागरूक, शिक्षित और संगठित नहीं हैं. उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई मज़बूत बुद्धिजीवी वर्ग नहीं मिलता. लेकिन कई शहरों में मेघों के छोटे-छोटे सामाजिक संगठन हैं जिन्हें उनकी बात करनी चाहिए. सोचा जाना चाहिए कि क्या वो अति पिछड़े हुए मेघ समाज के लोग आरक्षण का लाभ उठाने की हालत में हैं? ज़मीनी सच्चाई यह है कि एक तरफ उनका शिक्षा का स्तर बहुत कम है और दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरियाँ लगभग ख़त्म हो चुकी हैं. जो बचा-खुचा आरक्षण है उसके प्रावधानों को अदालतों के फैसलों ने इतना कमज़ोर कर दिया है कि वे कारगर नहीं रहे. प्राइवेट सैक्टर में आरक्षण की बात अभी दूर की कौड़ी है.

तुलना करें तो पंजाब में अनुसूचित जातियों के लिए जो आरक्षण के प्रावधान हैं उनके तहत कुछ विशेष जातियों में एक विशेष अनुपात में वो आरक्षण बाँट दिया गया है. ओबीसी को प्रोमोशन में आरक्षण नहीं मिलता. दूसरी तरफ पिछले कई दशकों से कई हथकंडे अपना कर अनुसूचित जातियों के लिए प्रोमोशन के रास्ते बंद ही किए गए हैं. प्रोमोशन में आरक्षण से संबंधित उच्चतम न्यायालय के आदेशों को लागू न होने देने के पीछे प्रशासनिक कारण हो सकते हैं.

भारत के कई राज्यों के बुनकर और कृषि श्रमिक समुदाय ओबीसी में शामिल हैं. (उनकी सूचियाँ एकत्रित की जा सकती हैं). यह एक आधार है जिस पर मेघ समुदाय को ओबीसी में शामिल करने के लिए आवेदन किया जा सकता है. इससे पैदा होने वाले हालात में आरक्षण को लेकर कितना नफा-नुकसान होगा उसका सही आकलन तो नहीं किया सकता लेकिन सामाजिक स्टेटस में होने वाले परिवर्तन को आसानी से समझा जा सकता है. जाति व्यवस्था में जिस स्थिान को मेघ अपना समझते रहे हैं और जो उन्हें नहीं मिल पाया उसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है? मेघ जाति क्या है यह बात देश के भीतरी भागों (गाँवों) के लोग नहीं जानते लेकिन यदि उन्हें बताया जाए कि मेघ अनुसूचित जाति में आते हैं तो मेघों को उन जातियों के साथ जोड़ कर देखा जाता है जिनका हिस्सा वो हैं नहीं. गाँवों की यह स्थिति उनके मन में हीनता की भावना पैदा करती है. यदि मेघ जाति ओबीसी में शामिल हो जाती है तो कई दुराग्रहपूर्ण स्थितियों से निजात मिल सकेगी.

एक बात और भी. हम अपनी मौजूदा हालत में अक़सर संतुष्ट हो चुके होते हैं. उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आहट से हम आशंकित हो उठते हैं. लेकिन जहाँ हम हैं वहाँ तो हैं ही, बस, उससे थोड़ा बेहतर हो जाए तो वो ज़रूर बेहतर ही होगा उसके लिए कोशिश होनी चाहिए.

कबीर के संदर्भ

पढ़ी-लिखी जमात में कबीर एक समाज सुधारक के रूप में अधिक जाने गए जिनका मुख्य कार्य हिंदू धर्म में फैले जातिवाद का विरोध था. जातिवाद को चुनौती देने वाले कई संतजन जान पर खेल गए. 

लगभग सभी ओबीसी जातियां कबीर को अपना वैचारिक प्रतिनिधि मानती हैं. विद्वानों ने विश्लेषण करते हुए पाया है कि कबीर जिन जातियों के व्यवसाय से संबंधित बिंबों (imagery) या शब्दों का प्रयोग अपनी कविताई में करते हैं वे मुख्यतः ओबीसी के व्यवसायों से संबंधित हैं, जिनमें जुलाहे, कुम्हार, लोहार, तेली, दर्जी, रंगरेज़, माली आदि. इसी आधार पर कबीर का महिमा मंडल 'दलित साहित्य' की सीमाएँ तोड़ कर 'ओबीसी साहित्य' तक पहुँचा है. यानी कबीर को अब ओबीसी का प्रतिनिधि साहित्यकार कहा जाता है.

मेघ सदियों से कपड़ा बुनने का कार्य करते आ रहे हैं. वे कबीर की वाणी से इस आधार पर भी प्रभावित रहे हैं कि कबीर ने जो अध्यात्म की शिक्षा दी वो कपड़ा बनाने के व्यवसाय से संबंधित बिंबों (शब्दों) के साथ भी थी.



विशेष नोट
मेघ समाज के लोग चाहे किसी भी नाम से अपनी पहचान रखते हों (जैसे मेघ, भगत, कबीरपंथी, जुलाहा, आर्य, पंजाबी जाट आदि) लेकिन वे अनुसूचित जाति के तौर पर अपनी जातीय पहचान से हर तरह से असंतुष्ट हैं. वे ओबीसी के तौर पर अपनी पहचान को बेहतर पाएँगे ऐसा कई मेघजनों का मानना है. यह नोट कई लोगों से विचार-विमर्श के बाद बनाया गया है जो समझते हैं कि मेघ समाज को ओबीसी में शामिल करने के लिए कोशिश अवश्य की जानी चाहिए. यह नोट केवल मेघ समाज के भीतर विचार-विमर्श के लिए तैयार किया गया है. - भारत भूषण, चंडीगढ़)


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