डॉ नवल वियोगी की मेघ-कथा
डॉ
नवल वियोगी ने मेघों की लगभग पूरी कथा अपनी पुस्तक ‘मद्रों और मेघों का प्राचीन और आधुनिक इतिहास’ में लिख डाली। डॉ वियोगी प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। यह बात समझी जा सकती है कि उनके द्वारा इकट्ठी की गई जानकारी पूरे मेघ समाज तक जल्द पहुंचने वाली नहीं है। यह लेख एक कोशिश है कि नवल जी ने जो खोजा-पाया है उसकी कहानी की कुछ रेखांकित बातें ‘मेघ-चेतना’ के पाठकों तक पहुंचें। यह उनके ‘भावार्थ’ का सार (स्कैच) है।
आगे पढ़ने से पहले यह बात समझ लेना ज़रूरी है कि जिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों का कोई विस्तृत प्राचीन इतिहास नहीं मिलता लेकिन उनका संकेत भर यहां-वहां प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में है, वह कहानियों जैसा है। आज के अर्थ में उसे इतिहास नहीं कहा जा सकता। डॉ नवल ने अपनी खोज के सिलसिले में लगभग 23 मूल पुस्तकों, 17 पत्रिकाओं, 4 इनसाइक्लोपीडिया और लगभग 135 पुस्तकों की सहायता ली है जिनकी सूची पुस्तक के अंत में दी गई है। इनमें प्राचीन ग्रंथ भी शामिल हैं। दूसरे, यह ज़रूरी नहीं कि जातियों का इतिहास केवल भारत में ही मिलेगा। कई बार अन्य देशों के इतिहास में वो मिलता है। इंसानों की कहानियां इंसानों के साथ दूर-दूर तक यात्रा करती हैं।
सोशल मीडिया पर अपने विचार रखते हुए हमारे समाज के लोग अपने इतिहास पर अमूल्य विचार रखते हैं. लेकिन यहाँ एक इतिहासकार की प्रकाशित पुस्तक के संदर्भ में बात की गई है। इस में लिखी सभी बातों से सभी की सहमति हो यह ज़रूरी नहीं। इसीलिए पुस्तक का निम्नलिखित सार लिखते हुए मुझे अपने नोट्स लिखने की ज़रूरत महसूस हुई जो Italics में लिखी गई हैं।
‘मेघ’ शब्द कहां से आया, इस विषय पर कई विद्वानों ने लिखा है। प्रमाण और अनुमान बताए गए हैं। इस पुस्तक में उस प्रश्न का उत्तर मिलता दिख रहा है। मेघ शब्द का संबंध मद्र, मग, मागी, मीडिया (दक्षिणी ईरान का क्षेत्र) से है, ऐसा इतिहासकार ने बताया है। बाकी आगे।
प्रागैतिहासिक काल (Pre-historic Period)
प्रागैतिहासिक काल वह काल है जिसकी जानकारी पुरातात्विक (Archeological) स्रोतों से प्राप्त होती है। इस समय के इतिहास की जानकारी लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई है । उस काल में मद्र नामक जनजाति ईरान के मीडिया प्रदेश में रहती थी। उनके पुजारी या पुरोहित ‘मग’ कहलाते थे। वे मग बेबीलोनिया में भी पुजारी थे। वहां से उनका भारत में आगमन हुआ था। नस्ली तौर पर वे द्रविड़ थे। उनके समाज में राजऋषि (King Priest) परंपरा थी। शासक राजा धार्मिक मुखिया भी होता था। इसलिए मग धीरे-धीरे पुजारी बन गए।
उनका समाज गणतांत्रिक था। जहां प्रत्येक नागरिक बराबर था। उनकी सामाजिक परंपराओं के अनुसार सभी नागरिक बहादुर सैनिक होते थे और कुशल शिल्पी भी। मद्रों का संबंध जोहाक नाग राजपरिवार के साथ था। मद्र भारत में जोहाक या तक्षक नाग परिवार की एक शाखा के रूप में हैं। अर्थात मद्रों और मगों दोनों का संबंध उस जोहाक या नाग परिवार के साथ था जो गांधार और तक्षशिला के शासक थे। 2500-2100 ई.पू. जब आर्य ईरान में आए तब वहां के शासक बन गए। उनमें पशु-वध से जुड़ी यज्ञ परंपरा थी। मग राजऋषि उनकी यज्ञ परंपरा से जुड़े और उनके पुजारी बने।
मगों का भारत में पहला आगमन तब हुआ जब आर्यों ने ईरान पर आक्रमण किया। जीवन रक्षा के लिए वे कई अन्य ईरानियों के साथ भारतीय भू-भाग में आ गए। वे अपना सांख्य दर्शन पर आधारित असीरियन धर्म साथ लाए। इसी में से बौध और जैन धर्म आए। ये दोनों बराबरी और भाईचारे पर आधारित थे। आर्यों ने 1650 ई.पू. भारत पर आक्रमण किया तब भी मग उनके साथ भारत आए। मगों ने ऋग्वेद की रचना और जाति आधारित व्यवस्था निर्माण में मदद की। मग द्रविड़ थे लेकिन आर्यों (अद्रविड़ ) के साथ रहने के कारण वे ख़ुद को आर्य समझने लगे थे। लेकिन आर्यों ने उन्हें आर्य नहीं माना।
अब क्योंकि नवल वियोगी ने लिखा है कि मीडिया क्षेत्र में आर्य बाहर से आए थे अतः वहां आए आर्यों को अद्रविड़ कहना बेहतर होगा। द्रविड़ों को अनार्य कहना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता।
मीडिया के मगों ने ‘पुरोहित तंत्र’ विकसित किया। उनके बिना ईरान में कोई यज्ञ नहीं होता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या विकसित की। वे सपनों के आधार पर भविष्य बताते थे। इन्हीं कलाओं की सहायता से वे राजाओं-महाराजाओं के निकट पहुँचे। वे अंधविश्वासी थे और झूठा दिखावा भी करते थे। इससे वे राजनीति में घुसपैठ कर गए और समाज में उन्हें महत्व मिला। तभी एक हादसा हो गया। जब अखमाइन राजवंश का राजकुमार डेरियस प्रथम के सिंहासनारूढ़ होने वाला था तब गोमत नामक मशहूर राजऋषि मग नेता उसमें बाधा बन गया। गोमत और उसके मागी साथियों की हत्या कर दी गई। उन्हें सबक सिखाने के लिए एक मेगाफ़ोनिया (Magaphonia) नाम का पर्व मनाया जाने लगा। जिसमें किसी एक मग को पकड़ कर 5 दिन के लिए ईरान की राजगद्दी पर बिठाया जाता। फिर उसे फांसी दे दी जाती। इस दिन मगियों को अपमानित किया जाता। वे अपने घरों में छिप जाते। बरसों के अपमान से दुखी होकर 521 ई.पू. के आसपास वे मग बलूचिस्तान, सिंध, गुजरात व विन्ध्याचल के रास्ते मगध में चले गए। यहां भी 5-6 सौ साल तक वे हिंदू समाज का हिस्सा नहीं बन सके। आखिर उन्हें दूसरी सदी में ब्राह्मण के तौर पर मान्यता मिल गई। लेकिन आर्यों ने उन्हें ख़ुद से नीचे रखा। वे मग, शांकल, कश्यप अथवा कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहलाए। आगे चल कर इन्हीं ब्राह्मणों ने हिंदू धर्म को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। हिंदू धर्म के कठोर नियम बनाए और पहले के ग्रंथों में भी उन्हें जोड़ा।
डॉ वियोगी ने बताया है कि प्राचीन काल में, पश्चिम एशिया से तीन प्रमुख अनार्य जनजातियां आईं- जोहाक अथवा तक्षक नाग, हाइक्सोस अथवा इक्ष्वाकु, यादव अथवा पंचजन्य। ये सभी मूल रूप से एक ही थे। तीनों ही सिंधु घाटी के बसाने वाले थे। अस्थाना शशि और हेरोडोटस के हवाले से बताया गया है कि मीडिया के मीड तथा भारत के मद्र भिन्न नहीं थे। वे मग या मागी मद्रों की ही एक शाखा थे।
उशीनर गणराज्य का एक भाग झंग मधियाना (मग से मधियाना) कहा जाता था। उशीनर के जन मद्रों से संबंधित थे। यानी मद्र या मग मीडिया की तरह यहां भी एक साथ रहते थे। मद्रों ने सिआलकोट (शांकल) पर दीर्घ काल तक राज किया। कौरवों-पांडवों के साथ उनके वैवाहिक संबंध थे। सिकंदर के आक्रमण (326 ई.पू.) के समय मद्र अथवा पौरुष (पोरस ) उस क्षेत्र के निवासी थे। यहीं से मद्रों के पौराणिक और इतिहासिक सूत्र मिलने लगते हैं।
मगों की एक मुख्य शाखा आगे बढ़ कर मध्य-पूर्व भारत की शासक हुई। वे चेदि पुकारे जाते थे। उनकी एक शाखा ने मगध पर शासन किया। जरासंध चेदि वंश का राजा था। कृष्ण और पांडवों के साथ युद्ध में वह मारा गया। चेदियों की एक शाखा ने दक्षिण कोसल व कलिंग पर अधिकार जमाया, नंदों और अशोक महान से युद्ध किया। उनकी एक शाखा थी खारवेल या महामेघवाहन। दक्षिण-पूर्व में उसने बहुत ही शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। ये लोग जैन धर्म के अनुयायी थे। उनकी एक शाखा ने 129 ई. से 217 ई. तक कोसंबी में शासन किया। वे बौद्ध धम्म के अनुयायी थे। उनमें 9 बड़े राजा और छोटे 10 राजा हुए। प्रमुख राजाओं के नाम थे- मघ, भीमसेन, मद्रमघ व प्रोष्ठाश्री, भट्टदेव, कौत्सीपुत्र, शिवमघ प्रथम, वेश्रवण, शिवमघ द्वितीय, तथा भीम वर्मन। उनके शिलालेख और मुद्राएं मिली हैं। मध्यकाल (Medieval period) में मेघों की एक शाखा ने मध्य भारत में शासन किया।
(नोट: ऊपर के विवरण से जाना जा सकता है कि ‘मग’ से ‘मेघ’ शब्द की यात्रा सदियों में तय हुई है। मग से मघ बनते हुए इसे 129 ई. से 217 ई. के दौरान कोसंबी में देखा गया है। घ, ध, भ जैसी कठोर (महाप्राण) ध्वनियां भारतीय हैं। ग के घ में परिवर्तित हो जाने की विस्तृत भाषावैज्ञानिक व्याख्या कहीं न कहीं मिल जाएगी। कहा जाता है कि बुद्धकाल ही भूतकाल है। यानि ब का भ और ध का त हो जाना भी किसी उच्चारण प्रवृत्ति की वजह से है। ‘कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी’ वाली बात है। मीड, मेदे, मेगी, मग, मद्र, मेद, मेध, मध्य, मेघ, मेंग, मींग, मेंह्ग, आदि का शब्द समूह एक ऐसी प्राचीन जनजाति की ओर इशारा करता है जिसकी सैंकड़ों शाखाएं, वर्ग और जातियां हैं। ये दक्षिण-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भू-भाग में रहती हैं।)
मध्य और आधुनिक काल
डॉ वियोगी ने बताया है कि ‘विष्णु
पुराण’ के अनुसार मग या मद्र, भारत में शाक द्वीप यानि ईरान से आए। (नवल जी की पुस्तक में ‘शका ’ छपा है। संभवतः यह ‘शाक’ शब्द है।) इस द्वीप के मगों में चार जातियां थीं- मग, मगध, मानस और मंदगा अथवा मद्र यानी भारत की तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र यानी मद्र शूद्र थे (ऐसा प्रतीत होता है कि यहां नवल जी ने ‘वर्ग ‘ की जगह ‘जातियां ’ शब्द इसलिए प्रयोग किया है क्योंकि वे ‘विष्णु पुराण ’ को उद्धृत कर रहे हैं जो ज्ञात ऐतिहासिक काल की रचना है)।
जैसा कि पहले बताया गया है मीडिया (Media region) के निवासी मीड (Mede) भारत में मद्र कहलाए। (कहीं रोमन लिपि के Mede को नागरी लिपि में ‘मेदे’ भी लिखा गया है)। मग या मघ एक ही जनजाति थी। हेरोडोटस (Herodotus) ने उन्हें मद्रों की एक शाखा बतलाया है, क्योंकि वे मूलरूप से अनार्य थे। भारत में मद्र शिल्पकार अथवा बुनकर के रूप में दिखते हैं, क्योंकि मगों का संबंध मद्रों से था, इसलिए वे बुनकर थे और पुजारी भी। इन्हीं परिस्थितियों में पश्चिम एशिया में मेघ जाति विकसित हुई। मेघ, समाज के एक विशेष वर्ग का पुजारी (पुरोहित) है। मुख्यतया वे मातृदेवी (देई) की पूजा से जुड़े हैं जो जनजातीय परंपरा है। उनके अनेक गोत्र नाम ब्राह्मणों से मिलते-जुलते हैं।
‘तीसरे दौर में भारत आए मेघों से संबंधित वर्ग को विदेशी और म्लेच्छ (वे जातियां जिनमें वर्णाश्रम धर्म न हो, जिनकी उच्चारण शैली आर्यों से भिन्न हो) होने के कारण बहुत समय तक मान्यता नहीं मिली। दूसरी सदी में जब पार्थियन व शकों का राज्य था उन्हें द्विज की मान्यता मिली। इस सम्मानजनक स्थिति पर मज़बूत पकड़ बनाए रखने के लिए उन्होंने ब्राह्मण व ब्राह्मणवाद की बड़ी सेवा की। जातिवाद को मज़बूत करने के लिए कड़े कानून बनाए और स्मृतियों में जोड़े।’
‘गोत्र’
के
बारे
में
बताते
हुए
नवल
जी
लिखते
हैं
कि
आर्यों
के
लिए
भारत
की
जलवायु
गर्म
थी।
इसलिए
उन्होंने यहां के वनों में आश्रम बना लिए। वे चरवाहे थे। अनेक ऋषि अपनी गायों की विशेष पहचान के लिए उनके कान काटकर एक खास निशानी लगाते थे। उसी निशान को गोत्र कहते थे। उस गोत्र के आधार पर आश्रम और ऋषि की पहचान होती थी। पहले चार गोत्र थे। उनमें अनार्य (मग) वर्ग के ऋषि भी शामिल थे। जब जाति विभाजन कठोर हुआ और लोगों को यकीन हो गया कि आर्य ऋषियों के गोत्र वाले ही वास्तव में ब्राह्मण हैं और अब्राह्मण का अपना कोई गोत्र नहीं हो सकता तब यज्ञ करते हुए गोत्र नाम बोलने की परंपरा शुरू हुई। क्षत्रिय और वैश्य अपने पुरोहित का ही गोत्र नाम इस्तेमाल करने लगे। समान गोत्र नामों की यह वजह रही। गोत्र परंपरा से पहले पुरोहित और क्षत्रिय ख़ुद को एक ही वर्ग का नहीं मानते थे। इससे जातिवाद विकसित हुआ।
डॉ
नवल
के
अनुसार
विश्वामित्र व कण्व कश्यप (Webdunia
(हिंदी)
नामक
साइट
पर
बताया
गया
है
कि
कुछ
पुराणों
के
अनुसार
कण्व
और
कश्यप
पर्यायवाची
हैं) अनार्य ऋषि थे। महाभारत के अनुसार कश्यप ही नागों (मग) के जनक थे। वशिष्ठ तथा विश्वामित्र का टकराव आर्य-अनार्य का ही टकराव प्रतीत होता है जो बहुत स्पष्ट भी नहीं है। बंगाल के चंदा नामक विद्वान के हवाले से वे लिखते हैं कि इस काल में ब्राह्मणों का लोभ बहुत बढ़ गया था। इसलिए झूठी परंपराएं और निरर्थक अनुष्ठान प्रारंभ किए गए। सारी सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था जैसे उनकी मुट्ठी में आ गई।
डॉ
नवल
लिखते
हैं,
“मद्र
अथवा
मेघ
बौद्ध
अथवा
जैन
धर्म
के
अनुयायी थे। जब गुप्त काल में उनका बलात हिन्दूकरण किया गया तो उन्हें उसी दुश्मनी के कारण चौथे वर्ण में धकेल दिया गया। इसका अन्य कारण भी था कि वे मूलरूप में बुनकर थे। (पहले उन्हें ही सैनिक और शिल्पकार कहा गया है)। बौद्ध-धम्म में मांसाहार की छूट थी यहां तक कि उन्हें मृत पशु का मांस खाने की छूट भी थी अतः मेघों को अछूत वर्ग में धकेल दिया गया। यानी एक भाई ने अपने ही भाई की यह दुर्गति की है।” “गुप्त भले ही उसी नाग समाज के राजा थे, मगर उनका भी आर्यकरण कर दिया गया और बौद्धों पर धार्मिक अनाचार करने में उन्होंने ब्राह्मणों का पूरा-पूरा साथ दिया।” (यहां नवल जी ने कुछ भी लिखा हो लेकिन एक बात नोट की जानी चाहिए कि ब्राह्मणीकल व्यवस्था ने कुछ समाजों या जातियों पर ‘मृत पशु’ खाने का कलंक लगाया गया था। पशु का मांस पशु को मार कर ही खाया जाता है यानि जब वो ‘मृत’ होता है। ज़िंदा पशु को कौन खाता है जी। जब कोई पशु अपने आप मर जाता है या उसके मरने का कारण पता नहीं होता, तो इंसान उसे तभी खाता है जब अकाल या घोर गरीबी जैसी असाधारण परिस्थितियां
हों।
अपने
प्राणों
की
रक्षा
के
लिए
कोई
भी
मानव
समाज
सब
कुछ
करता
है।
लब्बोलुआब
यह
है
कि
किसी
जाति
या
समाज
को
कलंकित
करने
के
लिए
कई
तरह
के
बहाने
गढ़े
जाते
रहे
हैं।
मेघ
समाज
को
भी
निशाना
बनाया
गया।
जाति
व्यवस्था
में
किसी
जाति
का
स्तर
इस
आधार
पर
तय
करना
हास्यास्पद
ही
है
कि
उसके
सदस्य
मांस
खाते
थे
या
खाते
हैं।)
मेघों
के
आधुनिक
काल
के
बारे
में
वे
लिखते
हैं
कि
जम्मू
क्षेत्र के प्राचीन निवासी मेघों की स्थिति बहुत खराब रही। वे बंधुआ मज़दूरों (Forced Labour) का जीवन जी रहे थे। काम के बदले उन्हें सूखी रोटी मिलती। कुछ के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन थी जिसे नैतिक-अनैतिक
तरीकों
से
राजपूतों ने हड़प लिया। जम्मू और सिआलकोट के क्षेत्र में वे खेतिहार मज़दूर थे। अछूत होने के कारण वे घरों तथा मंदिरों में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकते थे। कुओं से पानी नहीं ले सकते थे। वे अधिकतर बुनकर, खेत मज़दूर और कारख़ानों में मज़दूर थे। लेखक काहण सिंह बिलौरिया ने लिखा है, "मेघ निचली जातियों के पुजारी हैं।" (यहां
‘पुजारी
’ का
अर्थ
‘पुरोहित
’ से
लेना
चाहिए) भूमि सुधारों के कारण कुछ मेघों को ज़मीनें अलॉट हुई हैं। वे खेती करने लगे हैं।
प्रो.
हरिओम
शर्मा
अपनी
रचना
'हिस्ट्री आफ जम्मू एण्ड कश्मीर' में लिखते हैं- “उच्च शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण के कारण अनेक मेघ ऊंची श्रेणी के पदों आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस., डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक प्रबंधक सेवाओं के पदों तक पहुंच गए हैं।" (यह
बात
सही
है
और
दर्ज
हो
गई
है।
ऐसे
मेघों
ने
अपने
उत्कृष्ट
कार्य
से
जो
प्रगति
की
है
और
जो
उद्योग
और व्यापार के क्षेत्र में आगे बढ़ गए हैं उनकी उपलब्धियों,
विशेषकर
प्राइवेट
सेक्टर
में
कार्यकारी
पदों
तक
पहुँचे
मेघों
का
परिचयात्मक
रिकार्ड
मेघों
के
सामाजिक
संगठनों
द्वारा
प्रकाशित
पत्रिकाओं
में
दर्ज
किया
जाना
चाहिए)
कुछ
अभिलेखों से प्रमाण मिले हैं कि ‘अनेक मेघ ठाकुर जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के राज्यों में शासक रहे हैं। यहीं नवल जी ने पठानकोट के पठानिया राजवंश का उल्लेख करते हुए बताया है कि उसका संबंध मद्र या मेघ समाज के साथ था। उन्हें मूल रूप से औडुंबरा कहते थे अब डूम कहते हैं। मुग़ल काल में पठानिया जाने-माने शासक थे। राजपूत कहलाते थे। सिखों के शासन काल तक वे सत्ता में रहे। मद्र तथा मेघों की तरह यह एक बुनकर जाति थी।’
यह
आलेख
उक्त
पुस्तक
का
केवल
परिचय
देता
है।
बेहतर
होगा
डॉ
नवल
वियोगी
की
मूल
पुस्तक
‘मद्रों
और
मेघों
का
प्राचीन और आधुनिक इतिहास’ पढ़ी जाए और ख़रीद कर पढ़ी जाए। उनकी मेहनत का सम्मान होना चाहिए। अब कई बातों को लेकर विद्वानों में मतभेद हो सकता है लेकिन एक कार्य नवल जी ने कर दिया है।
बहुत से इतिहासकारों को अपने कार्य का आधार बनाने के अलावा डॉ वियोगी ने डॉ ध्यान सिंह के शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’, श्री रतन लाल गोत्रा के आलेख ‘Meghs of
India’ और श्री ताराराम जी की पुस्तक ‘मेघवंश:इतिहास और संस्कृति’ को उद्धृत किया है। पुस्तक में वर्णित उक्त आधुनिक काल का लगभग पूरा अध्याय डॉ ध्यान सिंह के नाम से प्रकाशित किया गया। इसमें श्री मुंशीराम भगत की पुस्तक ‘मेघ-माला’ का भी उल्लेख हुआ है।
पुस्तक का नाम: मद्रों और मेघों का प्राचीन व आधुनिक इतिहास
लेखक - डॉ नवल वियोगी
कुल पृष्ठ - 265, मूल्य रु.350/-
प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन, 32/3, पश्चिम पुरी,
नई दिल्ली-110063
खरीद के लिए संपर्क - मोबाइल - 9810249452, 9818390161
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