कबीर के बारे में जितना भी लिखा गया उस पर या तो 'भक्ति साहित्य' का टैग लगा था या फिर उसके साथ एक फ़कीर टाइप समाज सुधारक की छवि नत्थी की गई थी. तथाकथित आचार्यों ने कबीर पर कमोबेश अपना ही आचार्यत्व थोपने की कोशिश की. जबकि ज़रूरत ऐसे विश्लेषण की थी जो बता सके कि कबीर की वाणी में ऐसा क्या-क्या है जो साहित्यिक बेइमानी और गुंडई का शिकार हुआ है और कि कबीर के नाम पर उपलब्ध कौन-कौन सा साहित्य है जो कबीर का लिखा हो नहीं सकता और संदेह के घेरे में है.
जग ज़ाहिर है कि कबीर के समय के लगभग सभी संत निम्न जातियों से थे. कबीर को संत कहा गया तो कहीं उसे विद्रोही (बाग़ी) भी बता दिया गया. ऐसा अधिकतर सवर्ण लेखकों ने किया जिनका साहित्य में पुराना दख़ल था. दूसरी ओर पढ़ी-लिखी जमात में कबीर एक समाज सुधारक के रूप में अधिक जाने गए और जिनका मुख्य कार्य व्यर्थ और अमानवीय धार्मिक कर्मकांडों के अलावा हिंदू धर्म में फैले जातिवाद का विरोध था. कबीर का वही नज़रिया सामाजिक रूप से जागरूक वर्गों में फैला. लेकिन स्कूलों और कालेजों के पाठ्यक्रमों में कबीर को जिस तरह का बताया गया और जैसा पढ़ाया गया उसने समाज में कबीर की छवि 'भक्त' की बना दी गई. सिलेबस में की गई वो बेइमानी अब रेखांकित हो चुकी है. कबीर को भक्त कहा जाना उनके असली कार्य को पर्दे के पीछे धकेलने की कोशिश थी जो बीसवीं शताब्दी में आकर नाकाम होने लगी. जबकि सिलेबस बनाने वालों ने अपनी बेइमानी जारी रखी. लोग समझने लगे कि जिसे साहित्य में 'भक्तिकाल' कहा जाता है वह वास्तव में 'मुक्तिकाल' था जिसमें जातिवाद के विरोध में संघर्षरत कई संतजन जान पर खेल गए. अब तो एक चैनल 'आवाज़ इंडिया' और कई जगह तर्कवादी कबीर की तुलना बुद्ध से होने के बाद से कुछ लोग उन्हें 'अदृश्य बुद्धिस्ट' कहने लगे हैं. ऐसा कहने वाले वही लोग हैं जिनका जातिवादी घृणा फैलाने वाला 'अदृश्य' एजेंडा है.
हालाँकि धार्मिक आइकॉन के रूप में सभी अनुसूचित जातियों के अपने-अपने महापुरुष हैं लेकिन लगभग सभी अनुसूचित जातियां कबीर को अपना वैचारिक प्रतिनिधि मानती हैं. विद्वानों ने विश्लेषण करते हुए पाया है कि कबीर जिन जातियों और उनके व्यवसाय से संबंधित बिंबों (imagery) का प्रयोग अपनी कविताई में करते हैं वे मुख्यतः ओबीसी के व्यवसायों से संबंधित हैं, जिनमें कुम्हार, लोहार, तेली, दर्जी, रंगरेज़, माली, जुलाहे, आदि हैं. इस संकेत के आधार पर कबीर का महिमा मंडल 'दलित साहित्य' की जातिगत सीमाएँ तोड़ कर 'ओबीसी साहित्य' तक पहुँचा है.
अब मेघों (कबीरपंथी, मेघ और मेघ भगत) की बात करते चलते हैं जिन्होंने चौदवीं सदी के कबीर को बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर अपनाया है तो इसका यही कारण समझ में आता है कि मेघ समुदाय व्यवसाय से बुनकर रहा. कबीर और उनकी वाणी के प्रति इनका आकर्षण स्वाभाविक था. मेघ समुदाय ने सदियों से कबीर की वाणी में अपनी मेघपीड़ा और मेघसुख महसूस किए हैं. पंजाब में इनकी पहचान 'कबीरपंथी' और 'मेघ' नामों से होती है. शादियां और अन्य संस्कार आर्यसमाजी, समातनी, सिख और कुछ कबीरपंथी परंपराओं के अनुसार होते हैं. लेकिन कबीर का विस्तार इस समुदाय में खूब हुआ है और हो रहा है.
इन दिनों कबीर की पहचान ओबीसी के प्रतिनिधि साहित्यकार के रूप में होने लगी है और ओबीसी साहित्य में वे जगह पा चुके हैं. कबीर को ओबीसी साहित्य में जगह दिलाने की कोशिश बहुत सशक्त है. इधर पिछले दिनों संसद में नए ओबीसी आयोग के गठन की बात चली थी जिसका दायित्व होगा कि वह ओबीसी में शामिल करने योग्य कुछ नई जातियों के प्रस्तावों पर निर्णय करेगा जिसमें केंद्र सरकार की सीधी भूमिका होगी…...और इस पर मेरी कल्पना के घोड़े जंगली हो उठते हैं. दिल पूछने लगता है कि मेघ क्या ओबीसी के लिए क्वालीफाई नहीं करते? 🤔मैं नहीं जानता.
“मध्यकालीन संत कवि कबीर की हिन्दी साहित्य ने काफी दिनों तक उपेक्षा की थी. साहित्य से ज्यादा समाज में स्वीकृत और जीवित रहे कबीर को बाद में साहित्यिक आलोचकों ने उनकी जाति के सन्दर्भ में भ्रामक दावे के साथ साहित्य में जगह दी, यह दावा था उनके ब्राह्मण विधवा का बेटा होने का. बाद के दिनों में दलित आलोचकों ने उन्हें दलित बताया.” : कमलेश वर्मा