भारत में कई अच्छे वित्तमंत्री हुए हैं जिनमें से कई अच्छे अर्थशास्त्री नहीं थे. इसका उलटा भी समझ लीजिए. कई शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों की किस्मत में विपक्ष में बैठना ही लिखा था.
प्रतिवर्ष वित्त बजट
पेश होने के बाद विपक्ष का नेता कहता था कि ‘इस बजट से मँहगाई
बढ़ेगी’. उसका ऐसा कहना कीमतें बढ़ाने की 'राष्ट्रीय अपील'
का काम करता था. जनसंघ/भाजपा की छवि छोटे दुकानदारों की पार्टी की रही है.
इसलिए तब वाजपेयी की ‘राष्ट्रीय अपील’ के बाद
अगली सुबह से कीमतें बढ़नी शुरू हो जाती थीं. आगे चल कर वित्तमंत्रीगण चालाक हो गए
और स्वयं ही कहने लगे, “विकास चाहिए, तो कीमतें बढ़ेंगी”. स्थानीय नेता वोटर को कहने लगे, “वित्तमंत्री ने कह दिया न? जो कन्ना है कल्ले.” ‘राष्ट्रीय अपील’ का कार्य विपक्ष से छिन
गया. इसका अपहरण वित्तमंत्रियों ने कर लिया. कीमतें बढ़ाने की ‘राष्ट्रीय अपील’ राष्ट्रीय
बजट के साथ नत्थी की जाने लगी.
लगता नहीं कि हमारे प्रमुख अर्थशास्त्री विद्वानों ने सूक्ष्म
अर्थशास्त्र (micro
economics) का अध्ययन किया
है. वे स्थूल अर्थशास्त्र
(macro economics) के धनी हैं.
अर्थशास्त्र के
ज्ञान की अंतिम सीमाएँ लाँघ चुके एक विद्वान ने स्थूल अर्थशास्त्र और सूक्ष्म अर्थशास्त्र की परिभाषाएँ इस प्रकार दी हैं- “स्थूल अर्थशास्त्र से तात्पर्य यह जानना है कि लाखों करोड़
रुपए के बजट में से कितने हज़ार करोड़ रुपए किस खाते में कहाँ रखने हैं, और
यह जानना भी कि यहाँ रखा हुआ पैसा यहाँ से निकल कर किन-किन हाथों में जाएगा. कुल बजट के सौ
में से दस पैसे लक्ष्य तक पहुँच जाएँ तो आयोजना को सफल माना जाता है. इति स्थूलमर्थशास्त्रं ”.
“सूक्ष्म अर्थव्यस्था
से अभिप्रायः है- 32 रुपए के आम आदमी का बजट-सह-रोज़नामचा बनाना. स्थूल अर्थशास्त्री के कार्यक्षेत्र में यह नहीं आता कि वह आम आदमी और उसके परिवार के रोज़-रोज़ के जन्म-मरण का
हिसाब रखे."
भावार्थ यह कि आधा लिटर दूध शहर में 16 का है. शहर से बाहर बस्ती में 16.50 का हो जाता है (Transportation cost you know!). एक लिटर दूध लेने वाला शहरी ग़रीब (32 रुपए वाला) ग़रीबी रेखा के नीचे रहेगा और बस्ती का ग़रीब (33 रुपए वाला) अमीरी रेखा के ऊपर आ जाएगा. जबकि मान्यता यह है कि शहर में आया हुआ ग़रीब, ग़रीब नहीं रह जाता.
इस पर एक महिला नेता ने पैर पटक कर चिल्लाया था, "हम ने कह दिया है कि ये मनुवादी परिभासाएँ हैं".
भावार्थ यह कि आधा लिटर दूध शहर में 16 का है. शहर से बाहर बस्ती में 16.50 का हो जाता है (Transportation cost you know!). एक लिटर दूध लेने वाला शहरी ग़रीब (32 रुपए वाला) ग़रीबी रेखा के नीचे रहेगा और बस्ती का ग़रीब (33 रुपए वाला) अमीरी रेखा के ऊपर आ जाएगा. जबकि मान्यता यह है कि शहर में आया हुआ ग़रीब, ग़रीब नहीं रह जाता.
इस पर एक महिला नेता ने पैर पटक कर चिल्लाया था, "हम ने कह दिया है कि ये मनुवादी परिभासाएँ हैं".
योजना आयोग में कार्यरत एक अर्थशास्त्री ने बड़ी
ईमानदारी से टीवी चैनल पर स्वीकार करते हुए कहा, “मेरा कार्य देश की दीर्घावधि
आर्थिक आयोजना तैयार करना है. ग़रीब आदमी का 32 रुपए का बजट कैसे बनाना है, मैं नहीं जानता”. उसके इस साक्षात्कार से पहले सभी समाचार पत्र ‘बजट-32’ बना-बना कर मुखपृष्ठों पर आम-ओ-ख़ास के लिए छाप चुके
थे. ज़ाहिर है स्थूल अर्थशास्त्री भारत के मीडिया को पढ़ना-देखना नहीं चाहते. (हा...हा...हा...भारतीय
मीडिया! अनपढ़-गँवार कहीं का!!). अगले चुनाव में आम आदमी पूछेगा कि ‘बजट-32’ बनाने वाले को वित्तमंत्री क्यों नहीं बनाया जा सकता? (ऐसा नहीं हो सकता न प्यारे? मीडिया और तू इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते न!!).
मैंने
जो यहाँ लिखा है उसे मेरे प्यारे पाठक संक्षेप में इस प्रकार समझ सकते
हैं. एक बार कक्षा में मेरे सहपाठियों ने भारी तालियाँ बजाई थीं जब प्रोफेसर ने भारतीय रुपए
की विशेषता पर प्रश्न पूछा और उसके उत्तर में मैंने कहा था, “ग़रीब आदमी का एक रुपया, अमीर आदमी के एक रुपए के मुकाबले
बहुत कम कीमत का होता है”.
प्रोफेसर ने पहले नासिका को मध्यमा से उठाया फिर सारी कक्षा को संबोधित
करते हुए मुस्करा कर कहा था, "It is beautiful summary of what I have
known about rupee." इस विषय की आंतरिक परीक्षाओं में मुझे जादुई 33% अंक मिले. मैं भाग्यशाली रहा.