"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


10 November 2011

Micro-macro economics - defiant definitions - सूक्ष्म-स्थूल अर्थशास्त्र - धृष्ट परिभाषाएँ


भारत में कई अच्छे वित्तमंत्री हुए हैं जिनमें से कई अच्छे अर्थशास्त्री नहीं थे. इसका उलटा भी समझ लीजिए. कई शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों की किस्मत में विपक्ष में बैठना ही लिखा था.

प्रतिवर्ष वित्त बजट पेश होने के बाद विपक्ष का नेता कहता था कि इस बजट से मँहगाई बढ़ेगी. उसका ऐसा कहना कीमतें बढ़ाने की 'राष्ट्रीय अपील' का काम करता था. जनसंघ/भाजपा की छवि छोटे दुकानदारों की पार्टी की रही है. इसलिए तब वाजपेयी की राष्ट्रीय अपील के बाद अगली सुबह से कीमतें बढ़नी शुरू हो जाती थीं. आगे चल कर वित्तमंत्रीगण चालाक हो गए और स्वयं ही कहने लगे, विकास चाहिए, तो कीमतें बढ़ेंगी. स्थानीय नेता वोटर को कहने लगे, वित्तमंत्री ने कह दिया न? जो कन्ना है कल्ले. राष्ट्रीय अपील का कार्य विपक्ष से छिन गया. इसका अपहरण वित्तमंत्रियों ने कर लिया. कीमतें बढ़ाने की राष्ट्रीय अपील राष्ट्रीय बजट के साथ नत्थी की जाने लगी.

लगता नहीं कि हमारे प्रमुख अर्थशास्त्री विद्वानों ने सूक्ष्म अर्थशास्त्र (micro economics) का अध्ययन किया है. वे स्थूल अर्थशास्त्र (macro economics) के धनी हैं. 

अर्थशास्त्र के ज्ञान की अंतिम सीमाएँ लाँघ चुके एक विद्वान ने स्थूल अर्थशास्त्र और सूक्ष्म अर्थशास्त्र की परिभाषाएँ इस प्रकार दी हैं- स्थूल अर्थशास्त्र से तात्पर्य यह जानना है कि लाखों करोड़ रुपए के बजट में से कितने हज़ार करोड़ रुपए किस खाते में कहाँ रखने हैं, और यह जानना भी कि यहाँ रखा हुआ पैसा यहाँ से निकल कर किन-किन हाथों में जाएगा. कुल बजट के सौ में से दस पैसे लक्ष्य तक पहुँच जाएँ तो आयोजना को सफल माना जाता है. इति स्थूलमर्थशास्त्रं .

सूक्ष्म अर्थव्यस्था से अभिप्रायः है- 32 रुपए के आम आदमी का बजट-सह-रोज़नामचा बनाना. स्थूल अर्थशास्त्री के कार्यक्षेत्र में यह नहीं आता कि वह आम आदमी और उसके परिवार के रोज़-रोज़ के जन्म-मरण का हिसाब रखे."

भावार्थ यह कि आधा लिटर दूध शहर में 16 का है. शहर से बाहर बस्ती में 16.50 का हो जाता है (Transportation cost you know!). एक लिटर दूध लेने वाला शहरी ग़रीब (32 रुपए वाला) ग़रीबी रेखा के नीचे रहेगा और बस्ती का ग़रीब (33 रुपए वाला) अमीरी रेखा के ऊपर आ जाएगा.  जबकि मान्यता यह है कि शहर में आया हुआ ग़रीब, ग़रीब नहीं रह जाता.

इस पर एक महिला नेता ने पैर पटक कर चिल्लाया था, "हम ने कह दिया है कि ये मनुवादी परिभासाएँ हैं".

योजना आयोग में कार्यरत एक अर्थशास्त्री ने बड़ी ईमानदारी से टीवी चैनल पर स्वीकार करते हुए कहा, मेरा कार्य देश की दीर्घावधि आर्थिक आयोजना तैयार करना है. ग़रीब आदमी का 32 रुपए का बजट कैसे बनाना है, मैं नहीं जानता. उसके इस साक्षात्कार से पहले सभी समाचार पत्र बजट-32 बना-बना कर मुखपृष्ठों पर आम-ओ-ख़ास के लिए छाप चुके थे. ज़ाहिर है स्थूल अर्थशास्त्री भारत के मीडिया को पढ़ना-देखना नहीं चाहते. (हा...हा...हा...भारतीय मीडिया! अनपढ़-गँवार कहीं का!!). अगले चुनाव में आम आदमी पूछेगा कि बजट-32 बनाने वाले को वित्तमंत्री क्यों नहीं बनाया जा सकता? (ऐसा नहीं हो सकता न प्यारे? मीडिया और तू इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते न!!).

मैंने जो यहाँ लिखा है उसे मेरे प्यारे पाठक संक्षेप में इस प्रकार समझ सकते हैं. एक बार कक्षा में मेरे सहपाठियों ने भारी तालियाँ बजाई थीं जब प्रोफेसर ने भारतीय रुपए की विशेषता पर प्रश्न पूछा और उसके उत्तर में मैंने कहा था, ग़रीब आदमी का एक रुपया, अमीर आदमी के एक रुपए के मुकाबले बहुत कम कीमत का होता है. प्रोफेसर ने पहले नासिका को मध्यमा से उठाया फिर सारी कक्षा को संबोधित करते हुए मुस्करा कर कहा था, "It is beautiful summary of what I have known about rupee." इस विषय की आंतरिक परीक्षाओं में मुझे जादुई 33% अंक मिले. मैं भाग्यशाली रहा.

04 November 2011

Aboriginal tribes of India भारत के आदिवासी (मूलनिवासी)

आदिवासी क्षेत्र के विकास और शिक्षण-पोषण की योजनाएँ भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा साधन हैं. योजनाएँ  लाने (मलाई खाने) में एनजीओ और सरकारी विभाग रुचि रखते हैं लेकिन उन्हें ईमानदारी से लागू करने में उनकी कोई रुचि नहीं है. दुराग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाले भारतीय मीडिया ने सभी आदिवासियों को नक्सली छवि में रंग दिया है जिसका टॉप नेतृत्व बेकसूर बना रहता है लेकिन साधारण कार्यकर्ता को पुलिस की बंदूकों के सामने खड़ा किया जाता है. इस व्यवस्था में इनका क्या भला हो सकता है! ज़मीनी सचाई यह है कि इन आदिवासियों (मूलनिवासियों) को देश के मानव संसाधनों में न गिनने की प्रवृत्ति हमारे यहाँ है.

भारत का तथाकथित पढ़ा-लिखा (एक) वर्ग इनके बारे में बहुत कुछ कहता है लेकिन उसमें वास्तविकता के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है. पिछले दिनों एक साइट पर भारत की आदिवासी जातियों पर कुछ आलेख देखने को मिले जिनमें सुंदर शब्दों में बहुत कुछ कहा गया था. लेकिन इनकी परंपराएँ (घोटुल) दिखाने के नाम पर आदिवासी महिलाओं के ऐसे ब्लैक एंड व्हाइट चित्रों का प्रयोग किया गया जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं थे. लेखक की नीयत साफ़ झलक रही थी. भारत का ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति कपड़े पहनता है बशर्ते उसके पास हो. ज़ाहिर है विद्वान लेखक को भारत की छवि नहीं चाहिए थी बल्कि आलेख के लिए 'मसाला' चाहिए था.

उस साइट के लेखक ने इन आदिवासियों के पुराने, ब्लैक एंड व्हाइट, चित्रों का प्रयोग किया है. स्पष्टतः ये चित्र लेखक के नहीं थे. क्या भारत के ये मूलनिवासी लोग अपनी ग़रीबी की ऐसी फोटो खींचने की अनुमति आज देते हैं? नहीं. और क्यों दें? सामाजिक कार्यकर्ता जानते हैं कि 'बाहर' से यदि कोई आ जाए तो ये लोग पहले अपनी झोंपड़ियों में जाते हैं और जो भी बेहतर कपड़ा हो उसे पहन कर सामने आते हैं. काश लेखक ने इनकी समझदारी का सम्मान किया होता. इस बारे में मैंने उस साइट पर एक टिप्पणी लिखी थी जिसे हटा दिया गया. आपसे शेयर कर रहा हूँ कि जो मैंने लिखा था वह इसी पैरा में है. बाद में पता चला कि लेखक, जो स्वयं को आदिवासी मामलों का विशेषज्ञ बताता है, वास्तव में वहाँ लकड़ी का ठेकेदार है. यानि उन्हीं लोगों में से एक जिन्होंने आदिवासी क्षेत्रों को उजाड़ने के लिए कई हथकंडे अपनाए जिनमें ऐसे आलेख छपवाना भी शामिल था जो यहाँ के निवासियों को मानवता की सीमा से बाहर की चीज़ साबित कर सकें.  

उस साइट पर टिप्पणी करने वालों में ऐसे चेहरे भी दिखे जिन्होंने एक ब्लॉगर पर भद्दी टिप्पणियाँ की थीं. इसलिए उस साइट का लिंक नहीं दे रहा हूँ. यही बेहतर है.

इन क्षेत्रों की समस्या आप इन तीन वीडियोज़ में देख सकते हैं.
Between devil and deep sea-1
Between devil and deep sea-2
Between devil and deep sea-3