कबीर एक फैलता हुआ फिनॉमिना रहा है इसमें संदेह नहीं.
पूर्वी उत्तरप्रदेश से यह पूरे भारत में फैला.
उत्तर पश्चिम भारत में इसे फैलाने का कार्य ख़ासकर नाथपंथियों ने किया.
लेकिन कबीर केवल भारत में ही नहीं रुका.
कबीर पर विदेशियों की पारखी नज़र पड़ी और वे कबीर का अनुवाद करके उसे अपने यहाँ ले गए.
मार्को डेला टोम्बा
(1726 - 1803) सबसे पहले इटैलियन भाषा में इसका अनुवाद किया.
फिर कबीर को इंग्लैंड और फ्रांस तक जाते देखा जा सकता है.
इस कार्य की शुरुआत कैप्टन डब्ल्यू.
प्राइस
(1780 - 1830) और जनरल हैरियट
(1780- 1839) के ज़रिए हुई.
हैरियट ने
1832 में कबीर का फ्रेंच में अनुवाद किया.
कबीर को वैज्ञानिक नज़रिए से पढ़ने-गुनने का काम एच.
एच.
विल्सन ने किया.
विल्सन
(1786- 1860) पूर्वी जीवन-दर्शन को समझते थे.
1828 तथा
1832 में उनका किया कार्य
‘हिंदू सैक्ट्स’
शीर्षक से एशियाटिक रिसर्चिज़ में छपा.
ऊपर उल्लिखित विद्वानों की सामग्री के आधार पर गार्सां द तासी ने फ़्रैंच भाषा में पहला हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा.
उनकी पुस्तक
"इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी"
(प्रथम भाग
1839, दूसरा भाग
1847) प्रकाशित हुई.
इस पुस्तक में कबीर को तुलसी दास के मुकाबले डेढ़ गुणा अधिक स्थान दिया गया.
जब भारत के हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले लोग कबीर को मुश्किल से ही स्थान दे रहे थे तब विदेश में कबीर का बेहतर मूल्यांकन हो रहा था.
कबीर को पाठ्यक्रमों में शायद ही कहीं जगह मिल रही होगी.
सिखों के पवित्र ग्रंथ
(1604) श्री गुरुग्रंथ साहिब में कबीर है लेकिन तुसलीदास नहीं है.
इस ग्रंथ का जब अन्य भाषाओं में अनुवाद
(अर्नेस्ट ट्रंप,
1877 और मैक्स आर्थर मेकलिफ,
1909) हुआ तो कबीर की ओजस्वी वाणी कई अन्य देशों में पहुँची. यह कार्य अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में बढ़ता दिखता है. जर्मन प्रोफेसर अर्नेस्ट ट्रंप जब कबीर की कुछ कविताओं का अनुवाद जर्मन भाषा में कर रहे थे लगभग उसी समय दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश (1875) में कबीर के बारे में जो लिख रहे थे वह कबीर की सच्चाई से बहुत दूर था. ज़ाहिर है कि भारत में एक मानसिकता ऐसी भी थी जो कबीर पर अनुसंधान की राह में रोड़े अटका रही थी. कबीर के बारे में जो कार्य आधुनिक शिक्षा कर रही थी उसे लेकर वो मानसिकता गालियाँ बक रही थी. मध्ययुगीन साहित्य के चिंतक कवियों में से सबसे अधिक कार्य कबीर पर ही हुआ है. गुई सोरमन ने तो अपनी 2001 में प्रकाशित पुस्तक ‘दि जीनियस ऑफ़ इंडिया’ में कबीर को राष्ट्रकवि कहा है. यह साहित्य और आलोचना साहित्य में एक बड़ी घटना है. ज़ाहिर है कबीर राष्ट्रनिर्माता हैं.
ऊपर दी गई सभी जानकारियाँ श्री सुभाष चंद्र कुशवाहा की पुस्तक
"कबीर हैं कि मरते नहीं"
(2020) में मिलती हैं जो अनामिका प्रकाशन,
प्रयागराज से छपी है.
किताब में उन्होंने कबीर से जुड़ी अनेक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया है
- मिसाल के तौर पर कबीर का जन्म और मृत्यु,
कबीर के माँ-बाप और धर्म,
उनके गुरु की गुत्थी आदि.
लेखक ने
19वीं सदी के विदेशी अखबारों में छपे लेख और समाचारों का सिलसिलेवार विवरण प्रस्तुत किया है.
ऐसा विवरण अभी तक किसी आलोचक ने नहीं प्रस्तुत किया है.
सुभाष चंद्र कुशवाहा ने लिखा है कि
1841 से कबीर के बारे में ब्रिटिश अखबारों में लेख और समाचार छपने लगे थे.
उन्होंने इस संदर्भ में ब्राडफोर्ड ऑर्ब्ज़वर
(9 सितंबर
1841) को उद्धृत किया है,
जिसमें ए.
लंगलोज का लंबा लेख है और लंगलोज ने इस लेख में कबीर को भारत का महान समाज सुधारक और
15वीं सदी का नायक कहा है.
फिर तो आलोचक ने
19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और
20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के अनेक ब्रिटिश अखबारों के अनेक पन्नों को प्रस्तुत किया है.
कोई दो दर्जन अखबारों का हवाला है,
जिनमें कबीर से संबंधित लेख हैं,
खबरें हैं.
एलेन्स इंडियन मेल
(2 नवंबर,
1848), अर्मघ गार्डियन
(1 जनवरी,
1853), मार्निग एडवर्टाइजर
(10 मार्च,
1865), दि स्काॅटमैन
(5 जुलाई,
1872), बरमिंघम डेली पोस्ट
(15 अगस्त,
1879), डंडी एडवर्टाइजर
(30 नवंबर,
1881), दि होमवर्ड मेल
(23 जनवरी,
1882), लंदन डेली न्यूज
(24 मार्च,
1883), यार्कशायर गज़ट
(17 जून,
1893) और दि पाॅल माॅल गजट
(18 अक्तूबर,
1894) से लेकर शेफिल्ड डेली टेलीग्राफ
(3 अप्रैल,
1915), ग्लोब (24
अप्रैल,
1915), दि लीड मरक्यूरी
(20 मार्च,
1930) तथा लीवरपूल इको
(14 अप्रैल,
1942) तक दो दर्जन पश्चिम के अखबारों का हवाला है.
पश्चिम के वे अखबार जिनमें कबीर मौजूद हैं.
कहीं कबीर की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद है,
कहीं उन पर लेख है,
कहीं कबीरपंथ की जानकारी है,
कहीं डब्ल्यू.
डब्ल्यू.
हंटर की पुस्तक की समीक्षा है,
कहीं रुडयार्ड किपलिंग लिखित कबीर का गीत प्रसंग है और कहीं रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा अंग्रेजी में अनूदित कबीर की कविताओं की खबरें हैं.
यह नए साल
2020 में कबीर का नए परिप्रेक्ष्य में स्वागत है.
(पुस्तक का परिचय कराने के लिए डॉ.
राजेंद्र प्रसाद सिंह का हृदय से आभार)