कबीर के बारे में काफ़ी कुछ लिखा गया है जो अधिकतर ब्राह्मण साहित्यकारों ने ही लिखा है. कबीर को हिंदी साहित्य में जगह मिली इसका बहुत सा श्रेय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को जाता है. जिन विद्वानों ने हिंदी साहित्य का इतिहास अपने-अपने नज़रिए से लिखा वे विद्वान भी अधिकतर ब्राह्मण हैं. वे कबीर को भक्ति काल, ज्ञानाश्रयी-निर्गुण भक्ति, रहस्यवाद के शीर्षकों के अंतर्गत रखते रहे हैं. वह सिलसिला अभी जारी है लेकिन अब उसके अलावा बहुत कुछ नई रिसर्च के ज़रिए सामने आने लगा है.
हिंदी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल (जिसमें 14वीं-16वीं शताब्दी का समय आता है) पर अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग का एक विशिष्ट दावा है जो कबीर, रविदास जैसे संतों, महापुरुषों के उस ‘भक्ति काल’ से संबंधित है जिसे अब आधुनिक मायनों में ‘मुक्ति काल’ का नाम दिया गया है.
अधिकांश भारतीयों ने कबीर की वाणी को सुना, पढ़ा या जाना है. उनकी वाणी में जिस ‘भक्ति तत्व’ की बात हिंदी साहित्य में की जाती है वो उनकी उस वाणी से बिल्कुल मेल नहीं खाती जिसमें वे जातपात और अंधविश्वासों पर प्रहार करते हैं. उनकी तर्क आधारित दार्शनिक बातें काव्य रूप में हैं. उनमें वो ‘भक्ति तत्व’ नहीं है जो अन्यथा भक्ति-भजन कार्यक्रमों के रूप में दिखता या सुनाई देता है. उनकी उस सामाजिक चेतना की प्रखरता को भक्तिरस की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.
इन दिनों सोशल मीडिया पर यह चर्चा हुई है कि उन्होंने कई धार्मिक विचारधाराओं के बारे में कड़ी बातें कही हैं लेकिन बौद्धमत (जिसे बौध धर्म भी कह दिया गया है) के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा.
मैंने कुछ महीने पहले फेसबुक पर किसी की वॉल पर एक टिप्पणी देखी थी जिसमें कहा गया था कि ‘कबीर छिपा हुआ (hidden) बौध’ है. एक डिबेट कार्यक्रम कभी ‘लॉर्ड बुद्धा टीवी’ ने दिखाया था जिसमें बुद्ध और कबीर की तुलना की गई थी. वो विमर्श कबीर की तर्कशील और वैज्ञानिक सोच की ओर इशारा करता है. उनकी शख़्सीयत का हवाला आज के रैशनलिस्ट आंदोलन (Rationalist Movement) में दिया जाने लगा है.
यदि कबीर और उनके समकालीन संत केवल भक्त होते तो आनंद-मंगल में रामनाम का जाप करते हुए मायारूपी जगत छोड़ ज्योतिजोत समा गए होते जैसे कई अन्य लोग समा गए और खो चुके हैं. उन्हें कोई याद नहीं करता. लेकिन कबीर आदि संतों को लोग आज भी शिद्दत से याद करते हैं. उनके बारे में प्रचलित कहानियों से स्पष्ट है कि कबीर पर चौतरफ़ा दबाव था कि वे अपनी विचारधारा छोड़ें, जातपात के ख़िलाफ़ बोलना बंद करें क्योंकि वो मनुस्मृति जैसे धार्मिक-राजनीतिक संविधान के तहत कई सदियों से प्रचलित थी और उस समय के शासन-प्रशासन के अनुकूल थी. क्या इसे उन पर भक्ति की विचारधारा छोड़ने का दबाव कहा जा सकता है? किसी के राम-राम जपने या समाधियाँ लगाने से किसी को क्या परेशानी हो सकती थी? भक्त की छवि तो दास (ग़ुलाम) की छवि जैसी होती है. दास से कैसी परेशानी? परेशानी तब होती थी जब ग़ुलाम अन्य ग़लामों को ग़ुलामी से निकलने का तरीका बताने लगता है. उनकी तर्कशीलता एक अतिरिक्त इंडिकेटर है जिससे समझा जा सकता है कि कुछ लोगों को उनसे व्यावसायिक परेशानी ज़रूर हुई होगी. वे धार्मिक आडंबरों, अंधविश्वासों पर आधारित व्यवसायों और जातिवाद के खिलाफ़ बोलते थे. वो जातिवाद के खिलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत थी. प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को ‘मुक्तिकाल’ का नाम दिया है. सुश्री मोहिनी पांडे (दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी) की यह टिप्पणी भी इसी बात का उल्लेख है - "जहां धार्मिक काल में मोक्ष की अभिलाषा मुख्य चिंता थी तथा भगवत भक्ति को मुख्य आधार माना गया था वहीं आधुनिक काल में आधुनिक मानव सामाजिक जकड़न से समाज की कुंठित मानसिकता से मुक्ति,
विवेक के आधार पर, तर्क के आधार पर अधिक न्यायोचित मानता है.” (link retreived on 13-03-2018). उसी तर्कवाद या विवेकवादी चिंतन के साथ कबीर मुक्ति आंदोलन की शुरुआत कर चुके थे. उस आंदोलन को हिंदी साहित्य के इतिहास में सही परिप्रेक्ष्य में शामिल नहीं किया गया. लेकिन आधुनिक काल में उस पर विभिन्न विद्वानों का विमर्श उपलब्ध है जिसमें उन्होंने पिछले विद्वानों के नज़रिए पर सवाल उठाए हैं. उन सवालों की निरंतरता बहुत अहम है.
धर्म और जन्म आधारित जातिवादी व्यवस्था हमारे देश में सवर्णों का सबसे बड़ा एजेंडा है और वो व्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था का नियामक (regulator) है. उसके विरुद्ध बोलना उस समय कबीर का बहुत बड़ा संघर्ष था जो जान की बाज़ी लगाने जैसा रहा होगा. कमजोर सामाजिक वर्ग से उभरा वो पुरुष उन दिनों किन हालात में रहा आज उसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. उन्होंने जिस वीरता से अपनी बात रखी उसे देखते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने एक इंटरव्यू कहा था कि कबीर ने जितना बोला है उसे इस संदर्भ में देखने की ज़रूरत है कि कबीर सवर्ण नहीं था. दूसरी ओर यह एक जाना-माना तथ्य है कि तत्कालीन कई संतों-महात्माओं की ज़िंदगी और ख़ासकर उनकी मौतें रहस्यों से ढँकी हुई हैं.
कबीर के जीवन काल में बौधमत अपनी प्राचीन मौर्यकालीन समृद्ध हालत में नहीं था. ऐसा इतिहास से स्पष्ट है. लेकिन बौधमत की धारा गुम नहीं हुई थी. सिद्ध और नाथपंथ के रूप में वो प्रवाहित थी. उसका मुख्य स्रोत पूर्वी उत्तर प्रदेश में था. यह क्षेत्र कभी बौद्धों का गतिशील कर्मक्षेत्र था. यह समझना मुश्किल नहीं कि यदि कबीर ने बुद्ध और बौधमत को अपने पुरखों, सिद्धों और नाथपंथियों से जाना भी था तो उसका नाम लेकर कार्य करना ज़रूरी नहीं रहा होगा. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि कबीर गोरखनाथ या अन्य सिद्धों की बात न करते. उन्होंने जो भी कार्य किया उसकी पृष्ठभूमि में उस बौधमत का फ़लसफ़ा मिल जाता है जो नाथ और सिद्ध पंथों के नाम से प्रचलित था. उनके द्वारा अवतारवाद और सगुण पूजा का निषेध इसके मोटे उदाहरण हैं. गोरखनाथ के साथ उनकी गोष्ठियाँ (बातचीत) प्रसिद्ध है. लोक-भाषा में प्रकट हुए उनके ज्ञानदर्शन को निम्न जातियों ने दिल में जगह दी. नाथपंथियों ने उनकी गूढ़ वाणी को अपनी शैली में संभाल कर रखा. लेकिन वे केवल गूढ़ ज्ञान की बात नहीं करते. वे उससे आगे बढ़कर सामाजिक समता (एक नूर) और न्याय की बात जनभाषा में करते हैं. उनके काव्य में प्रयुक्त बिंब प्रमुखता से ओबीसी के व्यवसायों से संबंधित हैं. उनके काव्य की पहुँच स्वतः ही समाज के अधिसंख्य लोगों तक हो गई जिन्होंने उनकी वाणी की मौखिक परंपरा को बनाए रखा. 'मेघवंश - इतिहास और संस्कृति' के लेखक ताराराम जी का यह सुविचारित मत है कि जहाँ भी कबीर ने ‘सुनो भाई साधो’ कहा है वहाँ उन्होंने सिद्धों को संबोधित किया है. वे कहते हैं कि ‘सिद्ध’ शब्द से ‘साध’ शब्द की गढ़त हुई है.
बौधमत और कबीर के प्रभाव को आगे के इतिहास में भी देखा जा सकता है. सभी संत किसी न किसी रूप में उनसे प्रभावित थे. इस पर मतभेद भी हो सकता है लेकिन इसमें शक नहीं कि कबीर सहित लगभग सभी संतों ने जिस तर्कशीलता से काम लिया है और समतावादी समाज की कल्पना की है वो बुद्ध और कबीर के नज़रिए से मेल खाती है. यह प्रवृत्ति मध्यकालीन साहित्य से आगे भी चलती है हालाँकि वो अलग-अलग शब्दावलियों, भाषाओं और बोलियों में अभिव्यक्त हुई है. उसका धार्मिक रूप-रंग और शैली चाहे समय, स्थान के साथ बदल गई हो लेकिन उसने सनातन धार्मिक-नैतिक वैचारिकी का रास्ता यथावत कायम रखा. वो ज्योतिबा फुले, साहूजी महाराज, पेरियार और डॉ आंबेडकर तक पहुँचती और कार्य करती दिखती है.
उन्नीसवीं शताब्दी तक अंग्रेज़ भारत में शासक के रूप में स्थापित हो चुके थे. इंग्लैंड में जो मानवाधिकारों पर कार्य हुआ था और मानव-जीवन को गरिमा प्रदान करने के लिए नियम और सिद्धांत बनाए गए थे उसका प्रभाव अंग्रेज़ी शासन के दौरान भारत के पढ़े-लिखे तर्कशील समाज पर पड़ा. मानवाधिकरों की बात समतावादी दृष्टिकोण का ही हिस्सा है. बौधमत, कबीरमत, संतमत और मानवाधिकारों की स्थापना के सम्मिलित प्रभाव की परिणति हम आज भारत के संविधान में देख सकते हैं.
गोत्रा जी ने एक अन्य बात की ओर ध्यान दिलाया कि बौद्धमत तर्कशीलता की बात करता है लेकिन वह कोई ‘धर्म’ नहीं है. कबीर ने बौधमत के अनुरूप तर्कशीलता अपनाई और तर्क के औज़ारों से जातपात सहित अन्य बुराइयों पर प्रहार किया. लेकिन उन्होंने कहीं ‘बौद्ध धर्म’ का नाम नहीं लिया जबकि अन्य कुछ धार्मिक विचारधाराओं का नाम कबीर ने लिया है.
डॉ. आंबेडकर के सामने यह तथ्य मौजूद था कि जातपात ‘हिंदू’ शब्द के साथ जुड़ी हक़ीक़त है. हिंदू धर्म और हिंदुत्व की कुछ नई अवधारणाएँ उनके जीवन काल में ही अस्तित्व में आ चुकी थीं. उन्हें लगा कि जातपात से पीछा छुड़ाने के लिए ‘हिंदू’ शब्द (जो आज भी धर्म के रूप में परिभाषित नहीं है) से पीछा छुड़ाना ज़रूरी था. 'हिंदू' शब्द के अर्थ का एक खुला दायरा पहले से था जिसे हिदुत्ववादी विचारधारा ने अपना आयाम दिया और ‘हिंदू धर्म’ की अवधारणा को रूढ़ बनाया और उसे परंपरा बताने का प्रयास किया. उस वैचारिक परिधि से बाहर जाने लिए नई अवधारणा वाले नए धर्म की जरूरत थी. डॉ. आंबेडकर ने बौद्धमत में थोड़ा परिवर्तन करके उसे नया रूप दिया और ‘नवबौध’ शब्द सुनाई दिया. धर्म परिवर्तन की शैली में नवबौधवाद का उदय हुआ यानि पहले से मौजूद एक विशिष्ट जीवन शैली वाला जीवन-दर्शन अब धर्म में रूपांतरित हो गया. जातपात की बंद गली से निकल कर एक न्याय आधारित समतावादी समाज को साफ़ सुथरे मैदान तक ले जाने का रास्ता डॉ. अंबेडकर ने सुझाया. उन्हें इसमें कितनी सफलता मिली उसका मूल्यांकन आने वाला समय करेगा. उस परिवर्तन की सफलता की कहानियाँ मिलती हैं.
इस बीच कबीरपंथ एक सामाजिक आंदोलन के तौर पर स्थापित हो चुका है. हो सकता है आगे चलकर यह एक ऐसा आंदोलन बन जाए जो राजनीतिक महत्व का हो. कबीर का क्रांतिकारी कार्य आज के संदर्भ में समाजशास्त्रियों के प्रबुद्ध वर्ग के हाथों में अधिक सुरक्षित है जो समाज में समतावादी दृष्टिकोण की हिमायत करते हैं.
बीसवीं शताब्दी तक आते-आते दुनिया में मानव-धर्म, मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता की तुलनात्मक रूप से नई अवधारणाएं जन्म ले चुकी हैं. इनसे संबंधित विचारो के कई सूत्र बुद्धिजीवियों ने ढूंढे हैं जो कबीर से जा जुड़ते हैं. इस जुड़ाव में बड़ी बाधा कबीर का रहस्यवाद है जो भारत की आध्यात्मिक परंपरा में वर्णित आंतरिक (यौगिक) साधनों और साधकों के अनुभवों के महिमा मंडल के चलते मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता की समझ में बाधा उत्पन्न करता है.
कबीर की वाणी में बहुत से अंतर्विरोधों की बात होती रहती है मैं मानता हूँ कि उसका मुख्य कारण कबीर की वाणी और दूसरों के द्वारा उसमें जबरदस्ती ठूँसी गई वाणी है. यही वजह है कि कबीर जब कर्म और कर्मफल की बात करते हैं तो वह एक अलग अर्थ देता है जबकि उनके समय की मनुवादी विचारधारा में संदर्भित पुनर्जन्म और उस पर आधारित कर्मफल का सिद्धांत उससे मेल नहीं खाता. इसे इस बात के साथ जोड़ कर देखने की ज़रूरत है कि भारतीय दर्शन में इच्छा करने को कर्म कहा गया है. इसे लेकर कबीरपंथी एकमत नहीं हैं कि कबीर का कर्मसिद्धांत किस ओर झुका हुआ है. लेकिन जब कबीर को बौधमत की समकालीन परंपरा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तो मालूम देता है कि कबीर पुनर्जन्म आधारित कर्म सिद्धांत की बात तो नहीं ही करते हैं. जन्म-मरण से बाहर जाने की बात करने वाला कबीर जैसा विवेकी व्यक्ति पुनर्जन्म की बात कैसे कर सकता है. इसे तर्क पर तौलना ज़रूरी है. लेकिन जब कबीर कह देते हैं कि ‘पंडितवाद वदंते झूठा’ तो उससे ही स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विचारधारा ब्राह्मणवादी विचारधारा से अलग थी. इस दिशा में सोचने वाला यह आलेख अकेला नहीं है.
इस लिंक पर आपको काफी कुछ मिल जाएगा.
यह भी सच है आज की दुनिया ने कबीर और डॉ. अंबेडकर को धर्मनिर्पेक्ष मानवतावादी के रूप में जाना और माना है. इस दृष्टि से दोनों एक ही धरातल पर खड़े हैं. फ़र्क इतना है कि अंबेडकर की मूल रचनाएँ आज उपलब्ध हैं और रहेंगी. उनमें आधुनिक संदर्भ मिलते हैं. उन्हें विश्व भर के विद्वानों, बुद्धिजीवियों, विश्वविद्यालयों ने मान्यता दी है. इसलिए डॉ. अंबेडकर को पढ़ना कबीर को समझने में बहुत मददगार है. कारण है अंबेडकर की वाणी और विषयवस्तु की शुद्धता.
बौद्धमत अपनी तर्कवादी विचारधारा के लिए दुनिया भर में जाना जाता है उसकी वो तर्कवाद (रेशनलिज़्म) की धारा अब गति पकड़ चुकी है. उसका विस्तार तेजी से हो रहा है. तर्क और विज्ञान का आधार लेकर उसने दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को प्रभावित किया है. धरती पर एक बेहतर मानव-जीवन की कल्पना सुंदरतर हुई है.
श्री आर.एल. गोत्रा की टिप्पणी जिसका उपयोग किया गया है.
“Kabir was a secular humanist. Secular humanists use reason, compassion, and use logic to identify & arrive at universal truths with the object of solving ETHICAL problems, which by the religionists are otherwise left at the discretion of their RELIGIOUS institution.Thus SECULAR HUMANISTS rely mostly on naturally & universally justified ethics than on dictates of a PARTICULAR religion.
Your views on Kabir are in consonance with intellectuals of Kabir Panthis. However, these intellectuals are well divided on the issue of Kabir’s stance on ‘Karma’ theory. Some of the Kabir Panthis do believe in the “twin concept” of Karma & Re-birth, as propagated by Brahmanism, and inventors of faked verses of Kabir have successfully appeased their minds by feeding them with Brahmanic verses. Brahmanism can not survive without the said ‘twin’ concept, that was logically necessary for realising their object of ruling the minds of Non-Brahmanic races people.
However, you can not dismiss the fact that Kabir attacked the very foundation of Brahmanism when he asserted, “Panditwad Vedante Jhutha, Pande Kaun Kumati Tohi Laagi”. Though a little bit covertly, he indicated that his spiritual views belonged to a different section of society! That is why he pointed out, “Dash Avataar Niranjan Kahiye, so Apna na Koye”!
The above state of affairs has been helpful to Brahmanism to keep divided the “mentally enslaved” Kabir Panthis.
To pull them out of mental enslavement, Dr. BR Ambedkar, combined the philosophy of Kabir with thinking of Sahu & Phule, and gave birth to a new path that later appeared as neo-Buddhism & also synchronised with rationalism of Buddha. Kabir did not declare any new religion for his socially & economically deprived communities; but BR Ambedkar recognised the deep impact of religion on people’s mind, and therefore, used the word ‘Religion’ for Buddhism, instead of ‘Rationalism’.
So far as Nath Sampardaye is concerned, that proved to be a feeble attempt by Brahmanism to distract the people’s attention from ills of Brahmanism.
With adoption of various strategies, Brahmanism kept busy the working classes to keep visiting Deras of Saints, in stead of conversion to Islam. It also helped them to safeguard the so called “SANCTITY” of their ‘Hindu’ sacred places/temples that could otherwise be polluted by visits of Shudra/ATI-Shudra.Kabir was a secular humanist. Secular humanists use reason, compassion, and use logic to identify & arrive at universal truths with the object of solving ETHICAL problems, which by the religionists are otherwise left at the discretion of their RELIGIOUS institution.Thus SECULAR HUMANISTS rely mostly on naturally & universally justified ethics than on dictates of religion.
Saint Kabir & Dr. Ambedkar are both symbols of Secular Humanism. The world recognises them as such.
It is suggested to record this recognition in your writing.
Once the Bahujans of India start understanding this fact, they may also ultimately be realising the true ideological basis of Buddhism.
With regards.
Rattan Gottra.”