"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


20 March 2018

Megh: Folk Traditions and Vedic Mythology - मेघ: लोक-परंपराएं और वैदिक पुराकथा

“मेघ या मेग भारत का एक प्राचीन राजनीतिक और सांस्कृतिक जातीय समूह है,” ऐसा ताराराम जी ने हाल ही में लिखे अपने एक आलेख में कहा है. यही बात पहले के विद्वान भी कह चुके हैं. मेघों के प्राचीन इतिहास पर कई लोगों ने लिखा है लेकिन मेघ समाज के अपने सदस्यों ने इस विषय पर बहुत ही कम लिखा है और जिन्होंने लिखा मैं उनकी बात आजकल अधिक कर रहा हूं. यह पूरी नीयत से और जानबूझ कर है.

अपने नए आलेख में ताराराम जी ने ‘मेघ’ शब्द की उत्पत्ति और उसकी वैदिक प्रयुक्ति के बारे में लिखा है. विवादास्पद शब्द ‘असुर’ की उन्होंने पर्याप्त व्याख्या कर दी है. लोक-कथाओं में आने वाले वैदिक-पौराणिक पात्र मेघ, वृत्र और मेघ ऋषि और विशेषकर ‘वृत्र’ शब्द की व्याख्या पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. अपने कथ्य की पुष्टि के लिए उन्होंने विभिन्न स्रोतों से संदर्भ जुटाए और उद्धृत किए हैं. उन्होंने कहा है कि यह अभी प्रारूप है और वे इस पर अभी कार्य कर रहे हैं. उनके उसी आलेख का लिंक नीचे दे रहा हूँ. यह आलेख हमारे कई सवालों के उत्तर और उनके प्रमाण मुहैया कराता है. 

ताराराम जी का नया आलेख

18 March 2018

Eternal flow of Life Style - जीवन शैली का सार्वकालिक प्रवाह

कबीर के बारे में काफ़ी कुछ लिखा गया है जो अधिकतर ब्राह्मण साहित्यकारों ने ही लिखा है. कबीर को हिंदी साहित्य में जगह मिली इसका बहुत सा श्रेय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को जाता है. जिन विद्वानों ने हिंदी साहित्य का इतिहास अपने-अपने नज़रिए से लिखा वे विद्वान भी अधिकतर ब्राह्मण हैं. वे कबीर को भक्ति काल, ज्ञानाश्रयी-निर्गुण भक्ति, रहस्यवाद के शीर्षकों के अंतर्गत रखते रहे हैं. वह सिलसिला अभी जारी है लेकिन अब उसके अलावा बहुत कुछ नई रिसर्च के ज़रिए सामने आने लगा है.
हिंदी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल (जिसमें 14वीं-16वीं शताब्दी का समय आता है) पर अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग का एक विशिष्ट दावा है जो कबीर, रविदास जैसे संतों, महापुरुषों के उस ‘भक्ति काल’ से संबंधित है जिसे अब आधुनिक मायनों में ‘मुक्ति काल’ का नाम दिया गया है.
अधिकांश भारतीयों ने कबीर की वाणी को सुना, पढ़ा या जाना है. उनकी वाणी में जिस ‘भक्ति तत्व’ की बात हिंदी साहित्य में की जाती है वो उनकी उस वाणी से बिल्कुल मेल नहीं खाती जिसमें वे जातपात और अंधविश्वासों पर प्रहार करते हैं. उनकी तर्क आधारित दार्शनिक बातें काव्य रूप में हैं. उनमें वो ‘भक्ति तत्व’ नहीं है जो अन्यथा भक्ति-भजन कार्यक्रमों के रूप में दिखता या सुनाई देता है. उनकी उस सामाजिक चेतना की प्रखरता को भक्तिरस की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. 
इन दिनों सोशल मीडिया पर यह चर्चा हुई है कि उन्होंने कई धार्मिक विचारधाराओं के बारे में कड़ी बातें कही हैं लेकिन बौद्धमत (जिसे बौध धर्म भी कह दिया गया है) के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा.
मैंने कुछ महीने पहले फेसबुक पर किसी की वॉल पर एक टिप्पणी देखी थी जिसमें कहा गया था कि ‘कबीर छिपा हुआ (hidden) बौध’ है. एक डिबेट कार्यक्रम कभी ‘लॉर्ड बुद्धा टीवी’ ने दिखाया था जिसमें बुद्ध और कबीर की तुलना की गई थी. वो विमर्श कबीर की तर्कशील और वैज्ञानिक सोच की ओर इशारा करता है. उनकी शख़्सीयत का हवाला आज के रैशनलिस्ट आंदोलन (Rationalist Movement) में दिया जाने लगा है.
यदि कबीर और उनके समकालीन संत केवल भक्त होते तो आनंद-मंगल में रामनाम का जाप करते हुए मायारूपी जगत छोड़ ज्योतिजोत समा गए होते जैसे कई अन्य लोग समा गए और खो चुके हैं. उन्हें कोई याद नहीं करता. लेकिन कबीर आदि संतों को लोग आज भी शिद्दत से याद करते हैं. उनके बारे में प्रचलित कहानियों से स्पष्ट है कि कबीर पर चौतरफ़ा दबाव था कि वे अपनी विचारधारा छोड़ें, जातपात के ख़िलाफ़ बोलना बंद करें क्योंकि वो मनुस्मृति जैसे धार्मिक-राजनीतिक संविधान के तहत कई सदियों से प्रचलित थी और उस समय के शासन-प्रशासन के अनुकूल थी. क्या इसे उन पर भक्ति की विचारधारा छोड़ने का दबाव कहा जा सकता है? किसी के राम-राम जपने या समाधियाँ लगाने से किसी को क्या परेशानी हो सकती थी? भक्त की छवि तो दास (ग़ुलाम) की छवि जैसी होती है. दास से कैसी परेशानी? परेशानी तब होती थी जब ग़ुलाम अन्य ग़लामों को ग़ुलामी से निकलने का तरीका बताने लगता है. उनकी तर्कशीलता एक अतिरिक्त इंडिकेटर है जिससे समझा जा सकता है कि कुछ लोगों को उनसे व्यावसायिक परेशानी ज़रूर हुई होगी. वे धार्मिक आडंबरों, अंधविश्वासों पर आधारित व्यवसायों और जातिवाद के खिलाफ़ बोलते थे. वो जातिवाद के खिलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत थी. प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार ने हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को ‘मुक्तिकाल’ का नाम दिया है. सुश्री  मोहिनी पांडे (दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी) की यह टिप्पणी भी इसी बात का उल्लेख है - "जहां धार्मिक काल में मोक्ष की अभिलाषा मुख्य चिंता थी तथा भगवत भक्ति को मुख्य आधार माना गया था वहीं आधुनिक काल में आधुनिक मानव सामाजिक जकड़न से समाज की कुंठित मानसिकता से मुक्ति, विवेक के आधार पर, तर्क के आधार पर अधिक न्यायोचित  मानता है.” (link retreived on 13-03-2018). उसी तर्कवाद या विवेकवादी चिंतन के साथ कबीर मुक्ति आंदोलन की शुरुआत कर चुके थे. उस आंदोलन को हिंदी साहित्य के इतिहास में सही परिप्रेक्ष्य में शामिल नहीं किया गया. लेकिन आधुनिक काल में उस पर विभिन्न विद्वानों का विमर्श उपलब्ध है जिसमें उन्होंने पिछले विद्वानों के नज़रिए पर सवाल उठाए हैं. उन सवालों की निरंतरता बहुत अहम है.
धर्म और जन्म आधारित जातिवादी व्यवस्था हमारे देश में सवर्णों का सबसे बड़ा एजेंडा है और वो व्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था का नियामक (regulator) है. उसके विरुद्ध बोलना उस समय कबीर का बहुत बड़ा संघर्ष था जो जान की बाज़ी लगाने जैसा रहा होगा. कमजोर सामाजिक वर्ग से उभरा वो पुरुष उन दिनों किन हालात में रहा आज उसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. उन्होंने जिस वीरता से अपनी बात रखी उसे देखते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने एक इंटरव्यू कहा था कि कबीर ने जितना बोला है उसे इस संदर्भ में देखने की ज़रूरत है कि कबीर सवर्ण नहीं था. दूसरी ओर यह एक जाना-माना तथ्य है कि तत्कालीन कई संतों-महात्माओं की ज़िंदगी और ख़ासकर उनकी मौतें रहस्यों से ढँकी हुई हैं.   
कबीर के जीवन काल में बौधमत अपनी प्राचीन मौर्यकालीन समृद्ध हालत में नहीं था. ऐसा इतिहास से स्पष्ट है. लेकिन बौधमत की धारा गुम नहीं हुई थी. सिद्ध और नाथपंथ के रूप में वो प्रवाहित थी. उसका मुख्य स्रोत पूर्वी उत्तर प्रदेश में था. यह क्षेत्र कभी बौद्धों का गतिशील कर्मक्षेत्र था. यह समझना मुश्किल नहीं कि यदि कबीर ने बुद्ध और बौधमत को अपने पुरखों, सिद्धों और नाथपंथियों से जाना भी था तो उसका नाम लेकर कार्य करना ज़रूरी नहीं रहा होगा. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि कबीर गोरखनाथ या अन्य सिद्धों की बात न करते. उन्होंने जो भी कार्य किया उसकी पृष्ठभूमि में उस बौधमत का फ़लसफ़ा मिल जाता है जो नाथ और सिद्ध पंथों के नाम से प्रचलित था. उनके द्वारा अवतारवाद और सगुण पूजा का निषेध इसके मोटे उदाहरण हैं. गोरखनाथ के साथ उनकी गोष्ठियाँ (बातचीत) प्रसिद्ध है. लोक-भाषा में प्रकट हुए उनके ज्ञानदर्शन को निम्न जातियों ने दिल में जगह दी. नाथपंथियों ने उनकी गूढ़ वाणी को अपनी शैली में संभाल कर रखा. लेकिन वे केवल गूढ़ ज्ञान की बात नहीं करते. वे उससे आगे बढ़कर सामाजिक समता (एक नूर) और न्याय की बात जनभाषा में करते हैं. उनके काव्य में प्रयुक्त बिंब प्रमुखता से ओबीसी के व्यवसायों से संबंधित हैं. उनके काव्य की पहुँच स्वतः ही समाज के अधिसंख्य लोगों तक हो गई जिन्होंने उनकी वाणी की मौखिक परंपरा को बनाए रखा. 'मेघवंश - इतिहास और संस्कृति' के लेखक ताराराम जी का यह सुविचारित मत है कि जहाँ भी कबीर ने ‘सुनो भाई साधो’ कहा है वहाँ उन्होंने सिद्धों को संबोधित किया है. वे कहते हैं कि ‘सिद्ध’ शब्द से ‘साध’ शब्द की गढ़त हुई है.
बौधमत और कबीर के प्रभाव को आगे के इतिहास में भी देखा जा सकता है. सभी संत किसी न किसी रूप में उनसे प्रभावित थे. इस पर मतभेद भी हो सकता है लेकिन इसमें शक नहीं कि कबीर सहित लगभग सभी संतों ने जिस तर्कशीलता से काम लिया है और समतावादी समाज की कल्पना की है वो बुद्ध और कबीर के नज़रिए से मेल खाती है. यह प्रवृत्ति मध्यकालीन साहित्य से आगे भी चलती है हालाँकि वो अलग-अलग शब्दावलियों, भाषाओं और बोलियों में अभिव्यक्त हुई है. उसका धार्मिक रूप-रंग और शैली चाहे समय, स्थान के साथ बदल गई हो लेकिन उसने सनातन धार्मिक-नैतिक वैचारिकी का रास्ता यथावत कायम रखा. वो ज्योतिबा फुले, साहूजी महाराज, पेरियार और डॉ आंबेडकर तक पहुँचती और कार्य करती दिखती है.
उन्नीसवीं शताब्दी तक अंग्रेज़ भारत में शासक के रूप में स्थापित हो चुके थे. इंग्लैंड में जो मानवाधिकारों पर कार्य हुआ था और मानव-जीवन को गरिमा प्रदान करने के लिए नियम और सिद्धांत बनाए गए थे उसका प्रभाव अंग्रेज़ी शासन के दौरान भारत के पढ़े-लिखे तर्कशील समाज पर पड़ा. मानवाधिकरों की बात समतावादी दृष्टिकोण का ही हिस्सा है. बौधमत, कबीरमत, संतमत और मानवाधिकारों की स्थापना के सम्मिलित प्रभाव की परिणति हम आज भारत के संविधान में देख सकते हैं.
गोत्रा जी ने एक अन्य बात की ओर ध्यान दिलाया कि बौद्धमत तर्कशीलता की बात करता है लेकिन वह कोई ‘धर्म’ नहीं है. कबीर ने बौधमत के अनुरूप तर्कशीलता अपनाई और तर्क के औज़ारों से जातपात सहित अन्य बुराइयों पर प्रहार किया. लेकिन उन्होंने कहीं ‘बौद्ध धर्म’ का नाम नहीं लिया जबकि अन्य कुछ धार्मिक विचारधाराओं का नाम कबीर ने लिया है.
डॉ. आंबेडकर के सामने यह तथ्य मौजूद था कि जातपात ‘हिंदू’ शब्द के साथ जुड़ी हक़ीक़त है. हिंदू धर्म और हिंदुत्व की कुछ नई अवधारणाएँ उनके जीवन काल में ही अस्तित्व में आ चुकी थीं. उन्हें लगा कि जातपात से पीछा छुड़ाने के लिए ‘हिंदू’ शब्द (जो आज भी धर्म के रूप में परिभाषित नहीं है) से पीछा छुड़ाना ज़रूरी था. 'हिंदू' शब्द के अर्थ का एक खुला दायरा पहले से था जिसे हिदुत्ववादी विचारधारा ने अपना आयाम दिया और ‘हिंदू धर्म’ की अवधारणा को रूढ़ बनाया और उसे परंपरा बताने का प्रयास किया. उस वैचारिक परिधि से बाहर जाने लिए नई अवधारणा वाले नए धर्म की जरूरत थी. डॉ. आंबेडकर ने बौद्धमत में थोड़ा परिवर्तन करके उसे नया रूप दिया और ‘नवबौध’ शब्द सुनाई दिया. धर्म परिवर्तन की शैली में नवबौधवाद का उदय हुआ यानि पहले से मौजूद एक विशिष्ट जीवन शैली वाला जीवन-दर्शन अब धर्म में रूपांतरित हो गया. जातपात की बंद गली से निकल कर एक न्याय आधारित समतावादी समाज को साफ़ सुथरे मैदान तक ले जाने का रास्ता डॉ. अंबेडकर ने सुझाया. उन्हें इसमें कितनी सफलता मिली उसका मूल्यांकन आने वाला समय करेगा. उस परिवर्तन की सफलता की कहानियाँ मिलती हैं.
इस बीच कबीरपंथ एक सामाजिक आंदोलन के तौर पर स्थापित हो चुका है. हो सकता है आगे चलकर यह एक ऐसा आंदोलन बन जाए जो राजनीतिक महत्व का हो. कबीर का क्रांतिकारी कार्य आज के संदर्भ में समाजशास्त्रियों के प्रबुद्ध वर्ग के हाथों में अधिक सुरक्षित है जो समाज में समतावादी दृष्टिकोण की हिमायत करते हैं.
बीसवीं शताब्दी तक आते-आते दुनिया में मानव-धर्म, मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता की तुलनात्मक रूप से नई अवधारणाएं जन्म ले चुकी हैं. इनसे संबंधित विचारो के कई सूत्र बुद्धिजीवियों ने ढूंढे हैं जो कबीर से जा जुड़ते हैं. इस जुड़ाव में बड़ी बाधा कबीर का रहस्यवाद है जो भारत की आध्यात्मिक परंपरा में वर्णित आंतरिक (यौगिक) साधनों और साधकों के अनुभवों के महिमा मंडल के चलते मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता की समझ में बाधा उत्पन्न करता है.
कबीर की वाणी में बहुत से अंतर्विरोधों की बात होती रहती है मैं मानता हूँ कि उसका मुख्य कारण कबीर की वाणी और दूसरों के द्वारा उसमें जबरदस्ती ठूँसी गई वाणी है. यही वजह है कि कबीर जब कर्म और कर्मफल की बात करते हैं तो वह एक अलग अर्थ देता है जबकि उनके समय की मनुवादी विचारधारा में संदर्भित पुनर्जन्म और उस पर आधारित कर्मफल का सिद्धांत उससे मेल नहीं खाता. इसे इस बात के साथ जोड़ कर देखने की ज़रूरत है कि भारतीय दर्शन में इच्छा करने को कर्म कहा गया है.  इसे लेकर कबीरपंथी एकमत नहीं हैं कि कबीर का कर्मसिद्धांत किस ओर झुका हुआ है. लेकिन जब कबीर को बौधमत की समकालीन परंपरा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तो मालूम देता है कि कबीर पुनर्जन्म आधारित कर्म सिद्धांत की बात तो नहीं ही करते हैं. जन्म-मरण से बाहर जाने की बात करने वाला कबीर जैसा विवेकी व्यक्ति पुनर्जन्म की बात कैसे कर सकता है. इसे तर्क पर तौलना ज़रूरी है. लेकिन जब कबीर कह देते हैं कि ‘पंडितवाद वदंते झूठा’ तो उससे ही स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विचारधारा ब्राह्मणवादी विचारधारा से अलग थी. इस दिशा में सोचने वाला यह आलेख अकेला नहीं है. इस लिंक पर आपको काफी कुछ मिल जाएगा.
यह भी सच है आज की दुनिया ने कबीर और डॉ. अंबेडकर को धर्मनिर्पेक्ष मानवतावादी के रूप में जाना और माना है. इस दृष्टि से दोनों एक ही धरातल पर खड़े हैं. फ़र्क इतना है कि अंबेडकर की मूल रचनाएँ आज उपलब्ध हैं और रहेंगी. उनमें आधुनिक संदर्भ मिलते हैं. उन्हें विश्व भर के विद्वानों, बुद्धिजीवियों, विश्वविद्यालयों ने मान्यता दी है. इसलिए डॉ. अंबेडकर को पढ़ना कबीर को समझने में बहुत मददगार है. कारण है अंबेडकर की वाणी और विषयवस्तु की शुद्धता. 
बौद्धमत अपनी तर्कवादी विचारधारा के लिए दुनिया भर में जाना जाता है उसकी वो तर्कवाद (रेशनलिज़्म) की धारा अब गति पकड़ चुकी है. उसका विस्तार तेजी से हो रहा है. तर्क और विज्ञान का आधार लेकर उसने दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को प्रभावित किया है. धरती पर एक बेहतर मानव-जीवन की कल्पना सुंदरतर हुई है.

श्री आर.एल. गोत्रा की टिप्पणी जिसका उपयोग किया गया है.
“Kabir was a secular humanist. Secular humanists use reason, compassion, and use logic to identify & arrive at universal truths with the object of solving ETHICAL problems, which by the religionists are otherwise left at the discretion of their RELIGIOUS institution.Thus SECULAR HUMANISTS rely mostly on naturally & universally justified ethics than on dictates of a PARTICULAR religion.
Your views on Kabir are in consonance with intellectuals of Kabir Panthis. However, these intellectuals are well divided on the issue of Kabir’s stance on ‘Karma’ theory. Some of the Kabir Panthis do believe in the “twin concept” of Karma & Re-birth, as propagated by Brahmanism, and inventors of faked verses of Kabir have successfully appeased their minds by feeding them with Brahmanic verses. Brahmanism can not survive without the said ‘twin’ concept, that was logically necessary for realising their object of ruling the minds of Non-Brahmanic races people.
However, you can not dismiss the fact that Kabir attacked the very foundation of Brahmanism when he asserted, “Panditwad Vedante Jhutha, Pande Kaun Kumati Tohi Laagi”. Though a little bit covertly, he indicated that his spiritual views belonged to a different section of society! That is why he pointed out, “Dash Avataar Niranjan Kahiye, so Apna na Koye”!
The above state of affairs has been helpful to Brahmanism to keep divided the “mentally enslaved” Kabir Panthis.
To pull them out of mental enslavement, Dr. BR Ambedkar, combined the philosophy of Kabir with thinking of Sahu & Phule, and gave birth to a new path that later appeared as neo-Buddhism & also synchronised with rationalism of Buddha. Kabir did not declare any new religion for his socially & economically deprived communities; but BR Ambedkar recognised the deep impact of religion on people’s mind, and therefore, used the word ‘Religion’ for Buddhism, instead of ‘Rationalism’.
So far as Nath Sampardaye is concerned, that proved to be a feeble attempt by Brahmanism to distract the people’s attention from ills of Brahmanism.
With adoption of various strategies, Brahmanism kept busy the working classes to keep visiting Deras of Saints, in stead of conversion to Islam. It also helped them to safeguard the so called “SANCTITY” of their ‘Hindu’ sacred places/temples that could otherwise be polluted by visits of Shudra/ATI-Shudra.Kabir was a secular humanist. Secular humanists use reason, compassion, and use logic to identify & arrive at universal truths with the object of solving ETHICAL problems, which by the religionists are otherwise left at the discretion of their RELIGIOUS institution.Thus SECULAR HUMANISTS rely mostly on naturally & universally justified ethics than on dictates of religion.
Saint Kabir & Dr. Ambedkar are both symbols of Secular Humanism. The world recognises them as such. 
It is suggested to record this recognition in your writing.
Once the Bahujans of India start understanding this fact, they may also ultimately be realising the true ideological basis of Buddhism.
With regards.
Rattan Gottra.”

11 March 2018

Window to the past - अतीत का झरोखा

09 मार्च को श्री आर. एल. गोत्रा जी से फोन पर लंबी बातचीत हुई. वे आज कल सिडनी में है और उनका काफी समय पढ़ने-लिखने में व्यतीत होता है. 4 मार्च 2018 को मेघ जागृति फाउँडेशन, जालंधर द्वारा बड़ा आर्यसमाज मंदिर, गढ़ा में किए गए सेमिनार का हाल-चाल बताते हुए उनसे कई बातें हुईं विशेषकर वैदिक साहित्य की वैदिक कहानियों में मेघ समाज के इतिहासपूर्व वृत्तांत के बारे में चर्चा हुई.
वैदिक संस्कृत की भाषा-प्रकृति ऐसी है कि एक-एक शब्द की कई-कई अर्थ छटाएँ दिखती हैं और समय-समय पर हुए उनके प्रकाशनों में पाठ भेद भी हैं. उक्त सेमिनार में यह बात मैंने कही थी कि गोत्रा जी के लिखे हुए लंबे आलेखों से इस बात का खुलासा नहीं होता कि मेघों का वंशकर्ता कौन है. वृत्र या मेघासुर के वंश का संकेत मिलता है लेकिन उससे पहले का हाल वहाँ बयान नहीं होता. यहीं उसकी एक अनिवार्य सीमा है. जो भी हो उसे एक ऐतिहासिक संकेत माना जा सकता है. 
उनसे चर्चा के दौरान यह बात भी उठी कि जब हम भाषा और साहित्य के माध्यम से किसी समुदाय का इतिहास ढूंढते हैं तो उसमें मिलते-जुलते शब्दों पर विशेष ध्यान जाना स्वभाविक होता है कि वे शब्द कैसे बने हैं और उनसे मिलते जुलते शब्दों में अर्थ की कितनी विविधता है और कि क्या उन शब्दों का मूल वास्तव में एक ही है वग़ैरा. शब्दों के सफ़र में उनका इस्तेमाल करने वालों के सफ़र का इतिहास छिपा होता है.  इस प्रक्रिया में गलतियों की बहुत सी गुंजाइश होती है. यहाँ भाषाविज्ञानियों (Philologists) और वैयाकरण (Grammarian) की भूमिका बहुत अहम हो जाती है. यह कार्य कई विद्वान कर रहे हैं. इस संबंध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का नाम विशेष रूप से लेना चाहूँगा. 
लोक स्मृति में कहीं ना कहीं यह दर्ज है कि मेघ समुदाय का किसी रूप में सिकंदर से संबंध रहा है वह संबंध कैसा था पता नहीं. दोस्ती का था दुश्मनी का था या दोस्ती-दुश्मनी का था यह ज्ञात नहीं होता. लोक गायक श्री रांझाराम की बात हो या उन लोगों की जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बताते रहे हैं कि सिकंदर मेघों को ढूंढता हुआ भारत की ओर आया था, एक संकेत तो करता है. कुछ का कहना है कि सिकंदर यूनान के कुछ विद्वानों को अपने साथ ले कर आया था जो संभवतः बुद्धिज्म का अध्ययन करने और उसके स्रोत का पता लगाने यहां आए थे. यह तो ज्ञात सत्य है कि बुद्धिज्म का प्रसार यूनान तक हुआ था. 
लॉर्ड कन्निंघम जैसे कुछ विद्वानों का मत है कि मेघ जनजाति का आगमन कभी मध्य एशिया से अविभाजित असम के अलावा ईरान-अफ़गानिस्तान की ओर से होकर सप्तसिंधु क्षेत्र में हुआ था. उस हालत में मेघ जनजाति की बड़ी आबादी सिकंदर के रास्ते में आई होगी. जब हम ऐसा सोचते हैं तो अपने समुदाय के किसी व्यतीत गौरव को ढूंढने की कोशिश कर रहे होते हैं, जिस गौरव को प्राकृतिक ऐतिहासिक प्रवाह (natural flow of history) से बाहर कर दिया गया है. 
इसी संदर्भ में कहीं अस्सीरिया की बात उठती है और वहां के राजा अशुर-डेन(Ashur-dan) का नाम भी आ जाता है जिसे लेकर मन में विचार उठता है कि अस्सीरिया और असुर शब्द का कोई आपसी संबंध रहा है क्या. अस्सरिया एक गोत्र भी है. मेरी जानकारी के अनुसार इसमें प्रश्न अधिक है और उत्तर कम. मन में विचार तो आता है कि इतनी सारी कड़ियां हैं लेकिन इतिहास का स्वभाविक प्रवाह इसमें क्यों उपलब्ध नहीं होता. उस प्रवाह को कहां रोका गया, कहां उसकी दिशा बदल गई, कहां जा कर वो धरती के नीचे बहने लगा. धरातल पर वो दिखता नहीं. क्या हमारा इतिहास यूनान, अस्सीरिया और उसके आसपास के अन्य देशों के इतिहास में कहीं मिल पाएगा? यह ऐसा विषय है जिसे इतिहासकारों की अगली पीढ़ी पर छोड़ना होगा. बहुत से लोगों का मत है कि बहुत पुराने इतिहास को ढूंढ कर लाने से और बताने से आज क्या मिलेगा. उनकी बात सही है. लेकिन जब से गरीब समुदायों में शिक्षा का प्रसार हुआ है तब से उनके मनों में ऐसे सवाल उठने लगे हैं. तो इन सवालों का क्या किया जाए - यहीं छोड़ दिया जाए या यहीं मार दिया जाए या इनको उठा कर चलते रहा जाए जब तक DNA और प्राचीन जनसांख्यिकी (demography) की रिपोर्टें इन सवालों का फैसला नहीं कर देतीं.
हमारे समुदायों और उनकी जनसंख्या का क्रमिक प्रयाण मध्य एशिया या मेडिटेरेनियन क्षेत्र, जो भी हो, वहाँ से लेकर हमारी वर्तमान आबादियों तक कैसे हुआ है? हमारी आबादियों के बसने, उजड़ने, उखड़ने और फिर बसने की अंतर्कथा के कितने पड़ाव हैं? इनका कोई उत्तर है? उत्तर की कोई ज़रूरत है क्या? इसका फैसला वे विद्वान करेंगे जिनमें जवाब पाने की ज़बरदस्त तलब होगी. वही मेघों के अतीत का झरोखा खोलेंगे.


06 March 2018

Seminar-2 - सेमिनार-2

सेमिनार-2
हमारी उम्मीदें
24 फरवरी 2018 को जालंधर से डॉ शिवदयाल माली जी का फोन आया. उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि वे एक सेमिनार का आयोजन करना चाहते हैं जिसमें वे मेघ भगत समुदाय के कुछ शिक्षित या विशेष रूप से शिक्षित लोगों का एक 'प्रिलिमिनरी-सा' सेमिनार मेघ जागृति फाऊँडेशन के तत्वाधान में करना चाहते हैं जहां वे इस बात पर विचार-विमर्श और चर्चा कराने की मंशा रखते हैं कि मेघ भगत समुदाय के इतिहास आदि के बारे में अलग-अलग तरह से जो विचार कुछ लोग रख रहे हैं उनमें एक समन्वय स्थापित हो. चर्चाओं से यह जानकारी प्राप्त करना अभिप्रेत है कि अपने समुदाय के बारे में शिक्षित वर्ग (बुद्धिजीवी वर्ग) का क्या विज़न (नज़रिया) है ताकि वे सभी आपस में मिल-बैठ कर अपनी जानकारियां साझा करके समग्र विज़न को बेहतर बना सकें.
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने यह मुद्दा उठाया था कि अलग-अलग लोग मेघ समुदाय का इतिहास लिख रहे हैं जो उनकी नज़र से सही इतिहास नहीं है या वो ऐसा इतिहास है जो उन्हें ख़ुद को ‘सूट’ नहीं करता. सोशल मीडिया पर यह एक जानी-पहचानी झिकझिक थी और फ़ालतू का मामला था. उन लोगों को चाहिए कि वे अपना सही और सच्चा इतिहास ख़ुद अपने नज़रिए से लिखें न कि दूसरों को लिखने से रोकें. इतिहास में क्या सही है क्या ग़लत इसका फैसला प्रमाण और आगे की खोज करेगी. 
कोई व्यक्ति जब लेखन कार्य करता है उसके पास अपनी पठन सामग्री होती है, निजी जानकारी होती है, एक दृष्टिकोण और अनुभव होता है जिसके आधार पर वो अपना मत स्थिर करता है और फिर लिखता है. उसे कई प्रकार के प्रमाणों की ज़रूरत होती है जिसकी जिम्मेदारी वह खुद पर लेता है. सामूहिक रूप से बैठकर इतिहास लिखा गया हो ऐसा आईडिया न कहीं पढ़ा, न सुना. वो संभव भी नहीं है. अलबत्ता यह तो किया जा सकता है कि अलग-अलग लोगों ने जो कुछ लिखा हो उसमें समन्वय स्थापित किया जाए और फिर जानकार विद्वानों का समूह बैठकर चर्चा और विचार-विमर्श करके तथ्यों को क्रमबद्ध तरीके से संकलित करे. यह भी संभव है कि एक ही इतिहास के एकाधिक वर्शन तैयार हो जाएँ. कोशिश यह होनी चाहिए कि मूल लेखक की संतुष्टि का विशेष ध्यान रखा जाए ताकि उसके मूल विचार की रक्षा हो सके.
यहां एक बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि भारत के गरीब और पिछड़े समुदायों के लोगों ने शिक्षित होने के बाद अब अपना इतिहास खुद लिखने का काम ख़ुद करने का फैसला लिया है क्योंकि उन्हें परंपरागत इतिहास में अपना कुछ भी नहीं मिल पाता. यहां मैं विशेष रूप से जाटलैंड विकी का उल्लेख करना चाहता हूं जो जाटों के इतिहास को जाटों के नज़रिए से प्रस्तुत करती है. जाट समुदाय इस विकी पर गर्व कर सकता है. परंपरागत ब्राह्मणीकल इतिहास जाट राजा सूरजमल को एक डाकू के रूप में चित्रित करता आ रहा था लेकिन आज नए, जागरूक और खोजी जाट इतिहासकारों ने राजा सूरजमल को एक स्वाभिमानी देशभक्त और आम जन के लिए हितकारी राजा के रूप में स्थापित कर लिया है. इतिहास लेखन की शक्ति के बिना यह संभव नहीं था.
रह गई बात कि क्या इस समय अलग-अलग बैठ कर मेघजन अपने इतिहास पर जो कार्य कर रहे हैं क्या उनमें कोई आपसी मतभेद है. मुझे बिलकुल नहीं लगा कि कोई मतभेद है. वे एक-दूसरे से सहमति और असहमति शेयर करते आ रहे हैं. उन्हें एक दूसरे से कोई समस्या नहीं है. वास्तविक ज़रूरत इस बात की है कि अधिक लोग इस कार्य में लगें. इतिहास छोटी-बड़ी घटनाओं का दस्तावेज़ होता है. ऐसे दस्तावेज़ कोई भी जानकार व्यक्ति तैयार कर सकता है. ये दस्तावेज जितने अधिक होंगे उतना ही अच्छा. उनमें आपसी विसंगतियां (कंट्राडिक्शंस) हो सकती हैं. सिर्फ़ यह देखना है कि क्या उसे लिखने वाला उनसे संतुष्ट है. पंजाब के संदर्भ में जालंधर और अमृतसर जैसी जगहों पर मेघ समुदाय के संघर्ष और सफलताओं की कहानियां बिखरी पड़ी है उन्हें सहेजने वाला एक बुद्धिजीवी तबका जरूरी है.
पहले भी जालंधर में इस प्रकार के सेमिनार का एक प्रयास किया गया था जो राजनीति की भेंट चढ़ गया. जहां 10 लोग इकट्ठे हो जाते हैं वहां राजनीति की छाया मंडराने लगती है. फिर भी मुझे लगता है कि अगर किसी प्रयास में सकारात्मकता की संभावना नजर आ रही हो तो उस छाया के खतरे उठा लेने चाहिएँ. छींटाकशी, खेंचतान और झिकझिक एक सामाजिक प्रक्रिया है. और फिर अभिव्यक्ति के ख़तरे तो उठाने ही पड़ते हैं. 
मेघ जागृति मंच के प्रस्तावित सेमिनार में यह सहभागिता मेरी निजी होगी. मुझे वहाँ ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ का प्रतिनिधि न माना जाए यही ग़ुज़ारिश है.
जागृति मंच के चेयरमैन डॉ. शिवदयाल माली जी ने आश्वासन दिया है कि यह कार्यक्रम पूरी तरह से गैर-राजनीतिक है. इस बात को लेकर मैं उत्साहित हूं. 

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आयोजन का दिन 
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जागृति फाउंडेशन (रजिस्टर्ड) पंजाब, जालंधर द्वारा आयोजित मेघ भगत समुदाय के बारे में सेमिनार 4 मार्च 2018 को संपन्न हुआ. इस सेमिनार के बारे में मैं आशावान था और यह सेमिनार मेरी अधिकतर आशाओं के अनुरूप रहा. कुछ वक्ताओं के वक्तव्यों में कहीं-कहीं राजनीति के स्वर उभरे लेकिन वो धीमे सुर (Low tone) थे और उनकी कुछ प्रासंगिकता थी.
इस सेमिनार का जारी किया गया एजेंडा निम्नानुसार था- 
“AGENDA: -
1. DISCUSSION/ DELIBERATION / PAPER READING ON VARIOUS ASPECTS OF MEGH / BHAGAT COMMUNITY CULMINATING IN TO BOOK PROBABLY TO BE RELEASED BY YEAR END, UNDER THE PATRONAGE OF MEGH JAGRITI FOUNDATION.
2. FIXING PRIORITY AREAS OF ACTIVITIES FOR MEGH JAGRITI FOUNDATION REGD. PUNJAB, JALANDHAR.”
एजेंडा से स्पष्ट है कि मेघ जागृति फाऊँडेशन मेघ-भगत समुदाय से संबंधित विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श आयोजित करके पूरे विमर्श को समाहित करते हुए एक पुस्तक का प्रकाशन अपने तत्वाधान में करना चाहता है. इसके अतिरिक्त मेघ जागृति फाउंडेशन अपनी गतिविधियों की प्राथमिकताएं निर्धारित करना चाहता है.
इस सेमिनार में वक्ताओं ने जो विचार व्यक्त किए उनका सार देने का प्रयास नीचे किया है. यह सार है. इसमें रही किसी प्रकार की कमी के लिए क्षमा. विद्वान व्यक्ति के विचारों का एक बड़ा दायरा होता है जो सेमिनार की समय सीमा में बंधा होता है. वहाँ सब कुछ कहा नहीं जा सकता और न उसे कुछ नोट्स में समेटा जा सकता है. अब सीधा मुद्दे पर आते हैं.
जैसा कि दिए गए विषय से स्पष्ट है यह एक प्रकार का खुला सत्र था जिसमें हर वक्ता अपनी पसंद के विषय पर बोल सकता था. जिन लोगों को सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया था वे अपने विषय के जानकार थे. इस दृष्टि से हरेक वक्ता की बात का अपना महत्व था जो सेमिनार के दौरान झलका.
मेघ भगत समुदाय के सामाजिक संगठनों का अपना-अपना एक प्रभामंडल रहा है जो विभिन्न इलाकों में अपनी गतिविधियाँ चलाते रहे हैं. श्री मोहनलाल डोगरा ने उन संगठनों पर एक बृहद् दृष्टि डालते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की कि मेघ समुदाय इतना सब होने के बावजूद धार्मिक आधार पर बहुत बँटता हुआ नजर आ रहा है. जाति व्यवस्था की वजह से हो रहे सामाजिक भेदभाव के दबाव में कुछ लोग धर्म परिवर्तन कर रहे हैं. 
क्योंकि इस सेमिनार की एक समय सीमा तय थी इसलिए इस महत्वपूर्ण विषय पर विस्तार से बातचीत नहीं हुई. आशा है आगे चलकर इस विषय पर मेघ समाज में बहस होगी और किन्ही सेमिनारों में यह विषय कवर किया जाएगा.
समाज का विभाजन केवल धार्मिक आधार पर नहीं होता वो राजनीतिक आधार पर भी होता है. इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए श्री एम.आर. भगत (सेवानिवृत्त आयकर आयुक्त) ने शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने जीवन के कुछ अनुभव साझा किए कि कैसे गरीबी के कारण मेधावी छात्रों की शिक्षा प्रभावित होती है. उन्होंने कहा कि समुदाय की प्राथमिकता होनी चाहिए कि गरीबी के खिलाफ संघर्ष तेज़ हो. उसके लिए जरूरी है कि समाज में शिक्षा के प्रसार के लिए समतुल्य प्रयास हों. इसी बात को रेखांकित करते हुए श्री इंद्रजीत मेघ ने कहा कि समुदाय के बहुत से गरीब बच्चे हैं जिन्हें शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता की बहुत ज़रूरत है. उन्होंने बताया कि ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ ने इस दिशा में कार्य किया है और बहुत से छात्रों को आर्थिक सहायता दी है. इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया अब सघन प्रयास जरूरी हैं. वांछित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए समुदाय के विभिन्न संगठनों में सहयोग जरूरी होगा. (प्रसंगवश यह बताना जरूरी है कि श्री इंद्रजीत मेघ ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ के लगभग दस वर्ष तक अध्यक्ष रह चुके हैं और इस क्षेत्र में काम कर चुके हैं).
जैसा कि ऊपर बताया गया है मेघ समुदाय के कई संगठन हैं जो अपनी-अपनी कठिनाइयों के साथ जूझ रहे हैं. श्री आर.एल. भगत,........... ने इन्हीं कठिनाइयों पर विचार रखे और बताया कि बहुत से संगठन आर्थिक कठिनाइयों की वजह से अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते. इसी नजरिए से यह बात उठी कि समुदाय के पास अपनी एक बड़ी निधि (फंड) होनी चाहिए जिसका उपयोग समाज के विकास के लिए किया जा सके. यह बहुत महत्वपूर्ण सुझाव था जिसके कई आयाम हैं. ऐसी निधियों का प्रयोग शिक्षा के लिए भी किया जा सकता है और राजनीति के लिए भी और सामाजिक संगठनों के विकास के लिए भी. जितना ढूंढ़ते जाएंगे उतने ही लक्ष्य आप देख पाएंगे जिन्हें प्राप्त करना आज भी एक सपने जैसा लगता है. लेकिन इसकी संभावनाएं असीमित हैं.
श्री बचन सिंह, भूतपूर्व डिप्टी मेयर ने अपनी बात रखते हुए मेघ समुदाय की कुछ अन्य अपेक्षाओं की ओर ध्यान दिलाया. शिक्षा के अतिरिक्त उन्होंने करियर गाइडेंस, वैवाहिकी (रिश्ते मिलने) की समस्याओं पर विशेष जोर दिया जिनके कारण मेघ समुदाय पर एक दूसरे प्रकार का दबाव बन रहा है. ड्रग्स के कारण कुछ युवाओं का जीवन बर्बाद होना निश्चित रूप से समाज के लिए एक गंभीर चिंता की बात है. ड्रग्स बड़ी समस्या है जिसका राजनीतिक संबंध पंजाब में साफ़ देखा गया है. इस पर विस्तृत बहस की जरूरत है.
मेघ भगत समुदाय का इतिहास इस सेमिनार का महत्वपूर्ण एरिया था. इस संबंध में पहला प्राधिकृत शोधग्रंथ डॉक्टर ध्यान सिंह ने दिया जिसके लिए उन्हें गुरुनानक देव यूनीवर्सिटी, अमृतसर ने पीएचडी की डिग्री प्रदान की है. उनके शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीर पंथ का उद्भव और विकास’ पर ज़बानी तौर पर कई लोगों ने यहाँ-वहाँ बहुत कुछ कहा है. कुछ मैंने भी सुना है. इस सेमिनार का एक प्रयोजन यह भी था कि ऐसी आपत्तियों पर चर्चा हो, ऐसा मुझे डॉ. शिवदयाल जी ने फोन पर बातचीत में बताया था. यह सुखद आश्चर्य था कि उक्त शोधग्रंथ के बारे में विद्वानों ने कोई गंभीर आपत्ति इस सेमिनार में नहीं उठाई. अलबत्ता कुछ वक्ताओं ने शोधग्रंथ में कही ऐसी कुछ बातों पर सहमति जताई जो अन्यथा विवादित बताई जाती थीं. अपने शोधग्रंथ के विभिन्न पक्षों की कुछ कमियों के बारे में डॉक्टर ध्यान सिंह ने स्वयं ध्यान दिलाया और कहा कि यह शोधग्रंथ पहला तो है लेकिन अंतिम नहीं है. उन्होंने स्पष्ट किया कि भगत समुदाय और उसके इतिहास के बारे में उनको पुस्तकालयों में विशिष्ट और विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी थी. इसलिए निर्णय लिया गया कि शोध के लिए फील्ड वर्क को आधार बनाया जाए और लोगों से साक्षात्कार करके सामग्री एकत्रित की जाए जो कि शोध के लिए एक स्वीकृत पद्धति (methodology) है. यह सामग्री केवल मेघ भगत समुदाय के लोगों से बात करके एकत्रित की गई थी. डॉक्टर सिंह ने बताया कि उनको शोध के दौरान इस बात पर विशेष अध्ययन करना पड़ा कि जब जन-जातियाँ मुख्यधारा में शामिल होती हैं तो वो स्वतः शूद्र कैसे बन जाती हैं.
पंजाबी साहित्य में पहचान बना चुके कवि और लेखक श्री रामलाल भगत ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि मेघ समुदाय आज भी बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों में बसता है जहां जागीरदारी प्रथा, सामंती प्रथा आज भी प्रचलित है. वहाँ मेघों की अधिकतर जनसंख्या कृषि और कृषि से जुड़े अन्य कामों में लगी है. वहाँ मेघों को अपने रोजगार के लिए पूरी तरह उस जागीरदारी प्रथा के तहत काम करना पड़ता है जो सदियों से चली आ रही है. शोषण, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना ऐसी बातें हैं जो उनकी ज़िंदगी का हिस्सा हैं. वो जागीरदारी प्रथा के सामाजिक-आर्थिक सिस्टम के दबाव में जीने के लिए मजबूर हैं. श्री रामलाल ने सामाजिक कार्य को लेकर भाषा का मुद्दा उठाया जब उन्होंने श्री जी. एल. भगत (जो सेवानिवृत्त इनकम टैक्स कमिश्नर हैं) उनके द्वारा लिखी हुई कुछ पुस्तकों का उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि वो पुस्तकें बहुत उपयोगी हो सकती हैं लेकिन अंग्रेजी में लिखी होने की वजह से उनका सही उपयोग मेघ भगत समुदाय नहीं कर पाता. (Foot note   1  )
एक अन्य समाज सेवी प्रो. कस्तूरी लाल सोत्रा ने इस कार्यक्रम में भाग लिया. वे 80 पार कर चुके हैं और अभी भी समाजसेवा में लगे हैं. वे राजनीति शास्त्र के विद्वान हैं और कालेज में प्राध्यापक रहे हैं. उन्होंने मेघ समुदाय के और अन्य बच्चों के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र चलाए हैं जिसमें हज़ारों बच्चे प्रशिक्षिण ले चुके हैं. श्री सोत्रा ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि मेघ भगत समुदाय वास्तव में कई जनजातियों का समूह है. बकरवाल और कुछ अन्य जनजातियों का उल्लेख उन्होंने किया. वे बताते हैं कि जम्मू क्षेत्र में मेघों की ख़राब सामाजिक स्थिति का प्रमुख कारण 19वीं शताब्दी में दो बार फैली प्लेग की महामारी में भी दिखता है जिसने उन्हें कई स्तरों पर तोड़ कर रख दिया. उन्होंने अन्य वक्ताओं का समर्थन करते हुए कहा कि मेघ समुदाय के उत्थान के लिए ज़रूरी है कि शिक्षा के क्षेत्र पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाए.
एक ब्लॉगर के नाते मुझे भी बोलने का मौका मिला. मैंने उपस्थितों को विनम्र जानकारी दी कि अभी तक की जानकारी के अनुसार मेघ जाति के वंशकर्ता का पता ढूंढने पर भी नहीं मिला है. वो इतिहास की सीमाओं में कहीं है ही नहीं. इतिहासपूर्व मेघों की जानकारी का अध्ययन वास्तव में श्री आर.एल. गोत्रा (सेवानिवृत्त इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर, सीबीआई) ने अपने लंबे आलेख Pre-historic Meghs और Meghs of India में किया है. वो जानकारी वेदों में उल्लिखित है और वैदिक कथाओं के रूप में उपलब्ध है. आलेख लगभग 60 पृष्ठों का है. लेकिन इस कार्य को भी अंतिम नहीं माना जा सकता. इस पर शोध की बहुत गुंजाइश है. (Foot note  2  ) श्री ताराराम द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेघवंश: इतिहास और संस्कृति’ में मेघ सरनेम वाले राजाओं का उल्लेख है लेकिन उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि उनका संबंध जम्मू कश्मीर और पंजाब की मेघ जाति से है या नहीं. मेघवंश और मेघ जाति के अंतर को स्पष्ट करते हुए बताया गया कि मेघवंश एक रेस है जबकि हिंदूओं की जाति प्रथा के अनुसार मेघवंश के तहत कई जातियां हैं.  उन जातियों में हमारा मेघ भगत समाज एक अलग जाति है. कई अन्य मेघवंशी जातियाँ हैं जो राजस्थान सहित कई अन्य राज्यों में विभिन्न नामों के तहत अलग-अलग स्थानों पर बसी हुई हैं. आधुनिक काल के अंतर्गत डॉक्टर ध्यान सिंह का शोध ग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ मेघ समुदाय के पिछले लगभग डेढ़ सौ वर्ष का इतिहास समेटे हुए है.  उसे हम अपने इतिहास की प्राधिकृत जानकारी मान सकते हैं. डॉक्टर ध्यान सिंह उस पर अभी भी कार्य कर रहे हैं और उम्मीद है कि आगे चलकर हमें अपने 150-से 200 वर्ष के इतिहास की एक बेहतर जानकारी मिलेगी. इस सेमिनार में चर्चा के दौरान उभरी जानकारियों और प्रश्नों के आधार पर उस सुझाव की ओर विशेष ध्यान दिलाया कि हमारे समुदाय के धनाढ्य लोगों को एक निधि (फंड) की स्थापना करनी चाहिए जो समाज के उत्थान के लिए जरूरी सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में सहायक हो. इस दिशा में की गई कोई भी पहलकदमी हमारे भावी इतिहास की दिशा तय करने की क्षमता रखती है. 
कार्यक्रम के अंत में डॉ शिवदयाल माली चेयरमैन, मेघ जागृति फाउंडेशन ने सभी सहभागियों, उपस्थितों और आयोजन कार्य में संलग्न महानुभावों का धन्यवाद किया. उन्होंने कहा कि इस सेमिनार के साथ उन्होंने वास्तव में एक कार्यक्रम की शुरुआत की है. आने वाले समय में कई और सेमिनार आयोजित किए जाएंगे. अधिक से अधिक विद्वानों को जोड़ा जाएगा. सेमिनार में पधारे सहभागियों का उन्होंने धन्यवाद किया और अपने वक्तव्य में उनके द्वारा दी गई जानकारी की प्रशंसा करते हुए उसे अमूल्य बताया और कहा कि समाज इस जानकारी से लाभान्वित होगा और समाज के उत्थान के लिए एक कार्यनीति बनाने में मदद मिलेगी.
विशेष टिप्पणी - मैंने अब तक ब्लॉगर पर 400 से अधिक ब्लॉग लिखे हैं जिनके लिंक्स का विस्तार हज़ारों पृष्ठों तक है. इतना होने के बावजूद मैं मानता हूं कि ब्लॉग की अपेक्षा प्रकाशित पुस्तक कहीं अधिक मूल्यवान होती है. इस दृष्टि से मेघ जागृति फाउंडेशन का प्रस्ताव कि वे इस सेमिनार से प्राप्त जानकारी के आधार पर एक पुस्तक प्रकाशित करेंगे मुझे बहुत खुशी देता है. बहुत से पढे-लिखे मेघों का यह सपना है कि उनके समुदाय का लिखित इतिहास एक पुस्तक या पुस्तिका के रूप में उपलब्ध हो जाए ताकि महत्वपूर्ण और सकारात्मक जानकारी हरेक मेघ परिवार को मिले. मेघ जागृति फाउँडेशन की पहलकदमी ने अब उम्मीद जगाई है. मेघ जागृति फाऊँडेशन का आभार और विशेषकर डॉ. शिवदयाल माली का धन्यवाद जिनके प्रयासों से ऐसा पहला और महत्वपूर्ण आयोजन देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. सभी सहभागियों का दिल से शुक्रिया. भविष्य के लिए हमारी आशाएँ जगी हैं.
सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ.



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Foot notes:

 1 (प्रसंगवश यह बताना महत्वपूर्ण है कि यही बात मैंने भी कहीं कही है कि अंग्रेजी में लिखी श्री जी.एल. भगत की वे पुस्तकें मेरी छोटी अक़्ल के मुकाबले बहुत बड़े साइज़ की हैं. हालांकि उसके महत्व कोे मैंने कुछ समझा है और उन्हें अपने ब्लॉगों में शामिल किया है. श्री जी. एल. भगत ने स्पष्टतः एक संवैधानिक समाज (Constitutional Society) की बात की है जिसकी अवधारणा हमारी वर्तमान पहुँच से बाहर है. लेकिन संवैधानिक समाज कई शिक्षित देशों (पाश्चात्य देशों) में एक ज़मीनी सच्चाई है. वहां ऐसी सिविल सोसाइटियाँ बनी हुई हैं जो देश को ऐसा समाज देने के लिए सक्रिय रहती हैं जिससे वहाँ के संविधान की भावना के अनुरूप नागरिकों की मानसिकता और चरित्र विकसित हो. उदाहरण के लिए भारत में एक सिविल सोसाइटी बनी थी जिसने लोकपाल बिल बनाने के लिए कार्य किया था और सरकार की मदद की थी. लेकिन राजनीति ने वह मुद्दा आज तक ठंडे बस्ते में रखा हुआ है. कहने का तात्पर्य यह कि अवधारणा के तौर पर यह बहुत बड़ी बात है जिसे ज़मीन पर उतारने में कई दशक लग सकते हैं. इसकी अहमियत को समझने में अभी भारतीय समाज को समय लगेगा. (चाहता हूँ कि मेरी यह बात गलत हो. चाहता हूं कि श्री जी.एल. भगत को अपने समाज में एक कारगर मंच, कारगर संगठन मिले जो उनकी बात को सही परिप्रेक्ष में समाज तक पहुंचा सके. यह भी ज़रूरी है कि श्री जी.एल भगत अपनी पुस्तकों का अनुवाद अपनी वांछित लोकभाषा/ओं में कराएँ. यह बहुत महत्वपूर्ण है.)
 2 क्योंकि संस्कृत साहित्य और उसकी व्याख्याएँ समय-समय पर बदलती रही हैं. अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का पाठ-भेद आम बात है.