आदिवासी क्षेत्र के विकास और
शिक्षण-पोषण की योजनाएँ भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा साधन हैं. योजनाएँ लाने (मलाई खाने) में एनजीओ और सरकारी
विभाग रुचि रखते
हैं लेकिन उन्हें ईमानदारी से लागू करने में उनकी कोई रुचि नहीं है. दुराग्रहपूर्ण
दृष्टिकोण रखने वाले भारतीय मीडिया ने सभी आदिवासियों को नक्सली छवि में रंग दिया है जिसका टॉप
नेतृत्व बेकसूर बना रहता है लेकिन साधारण कार्यकर्ता को पुलिस की बंदूकों
के सामने खड़ा किया जाता है. इस व्यवस्था में इनका क्या भला हो सकता है!
ज़मीनी सचाई यह है कि इन आदिवासियों (मूलनिवासियों) को देश के
मानव संसाधनों में न गिनने की प्रवृत्ति हमारे यहाँ है.
भारत का तथाकथित पढ़ा-लिखा (एक) वर्ग इनके बारे में
बहुत कुछ कहता है लेकिन उसमें वास्तविकता के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है. पिछले दिनों एक
साइट पर भारत की आदिवासी जातियों पर कुछ आलेख देखने को मिले जिनमें सुंदर
शब्दों में बहुत कुछ कहा गया था. लेकिन इनकी परंपराएँ (घोटुल) दिखाने के
नाम पर आदिवासी महिलाओं के ऐसे ब्लैक एंड व्हाइट चित्रों का प्रयोग
किया गया जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं थे. लेखक की नीयत साफ़ झलक रही थी.
भारत का ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति कपड़े पहनता है बशर्ते उसके पास हो.
ज़ाहिर है विद्वान लेखक को भारत की छवि नहीं चाहिए थी बल्कि आलेख के लिए 'मसाला' चाहिए था.
उस साइट के लेखक ने इन आदिवासियों के
पुराने, ब्लैक एंड व्हाइट,
चित्रों का प्रयोग किया है. स्पष्टतः ये चित्र लेखक
के नहीं थे. क्या भारत के ये मूलनिवासी लोग अपनी ग़रीबी की ऐसी फोटो
खींचने की अनुमति आज देते हैं? नहीं.
और क्यों दें? सामाजिक
कार्यकर्ता जानते हैं कि 'बाहर'
से यदि कोई आ जाए तो ये लोग पहले अपनी झोंपड़ियों में
जाते हैं और जो भी बेहतर कपड़ा हो उसे पहन कर सामने आते हैं. काश लेखक ने
इनकी समझदारी का सम्मान किया होता. इस बारे में मैंने उस साइट पर एक
टिप्पणी लिखी थी जिसे हटा दिया गया. आपसे शेयर कर रहा हूँ कि जो मैंने लिखा था वह
इसी पैरा में है. बाद में पता चला कि लेखक, जो स्वयं को आदिवासी मामलों का विशेषज्ञ
बताता है, वास्तव में वहाँ लकड़ी का
ठेकेदार है. यानि उन्हीं लोगों में से एक जिन्होंने आदिवासी क्षेत्रों को उजाड़ने के लिए कई हथकंडे
अपनाए जिनमें ऐसे आलेख छपवाना भी शामिल था जो यहाँ के निवासियों को
मानवता की सीमा से बाहर की चीज़ साबित कर सकें.
उस साइट पर टिप्पणी करने वालों में ऐसे
चेहरे भी दिखे जिन्होंने एक ब्लॉगर पर भद्दी टिप्पणियाँ की थीं. इसलिए उस साइट का
लिंक नहीं दे रहा हूँ. यही बेहतर है.
इन क्षेत्रों की समस्या आप इन तीन वीडियोज़ में देख सकते हैं.
Between devil and deep sea-1
Between devil and deep sea-2
Between devil and deep sea-3
आदिवासी के साथ मूलनिवासी शब्द…अच्छा चलिए, ठीक है…घोंटुल वाले चित्र 1982 के आस-पास की मुक्ता में देखने को मिली थी…लेकिन वहाँ तो जानकारी अधिक लगी थी…वैसे भी वहाँ नग्नता की झलक शायद नहीं थी…आदिवासी शब्द से पता चल ही जाता है कि वे सबसे पहले थे…ऐसे दुष्ट लोगों और घटिया सरकारों के बारे में कितना कहें…2400 नहीं 24000 नहीं …पता नहीं 24 पर कितने शून्य लगाकर उतनी बार आलोचना ही दिखती है…
ReplyDeleteओह घोटुल की जगह घोंटुल हो गया है…
ReplyDelete@ चंदन कुमार मिश्र
ReplyDeleteआदिवासी के साथ मूलनिवासी शब्द का प्रयोग इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि अब आरएसएस जैसी संस्थाएँ आदिवासियों की जगह वनवासी शब्द का प्रयोग करने लगी हैं जबकि इन मूलनिवासियों का एक हिस्सा शहरों में भी रहने लगा है. इनकी सामाजिक स्थिति दोनों जगह लगभग एक सी हैं.
इस लेख मे व्यक्त आपकी चिंता वाजिब है। मैंने 1964से 1967 तक सिलीगुड़ी मे रहने के दौरान निकट से आदिवासियों को देखा है ,उनके लिबास को अश्लील नहीं कहा जा सकता है। जो ऐसा प्रस्तुत करते हैं आपने खुद ही स्पष्ट कर दिया है कि वे व्यापारी हैं। मेरे भाई के क्लास मे कुछ आदिवासी लड़के भी थे वे स्कूल की फुटबाल टीम के गौरव थे। आर एस एस तो है ही साम्राज्यवादियों का पृष्ठ पोषक,अतः वे लोग सब कुछ तोड़-फोड़ कर ही पेश करते हैं।
ReplyDeleteदुखद कथा और दुष्चक्र
ReplyDeleteमैं आपकी बातों से सहमत हूँ जाने क्यूँ लोग हमेशा लेखों के जरिये या तसवीरों के जरिये वो दिखाने का प्रयास करते हैं जो बीत चुका है या फिर कम हो गया है। जैसे भारत में आए पर्यटकों को ही ले लीजिये वह भी ज्यादा तर अपने देश की गरीबी दिखने में ही लगे रहते हैं। मगर अब तक जो उन्नति हो चुकी है उसकी तरफ तो किसी भी photographer कि नज़र ही नहीं जाती और विदेशियों को क्या कहो,जब अपना जी सिक्का खोटा हो तो.....अब तो स्वयं अपने देश के photographer भी इनाम जीतने कि चाह में यही करते हैं।
ReplyDeleteसार्थक आवाज़ उठाती अच्छी पोस्ट ..
ReplyDeleteगोलमाल है सब गोलमाल है..बस अपनी रोटी सिंक जाय..
ReplyDeleteआदिवासी सदा से ही ठगाते रहे हैं। दुनिया उन्हें ठगती रही है।
ReplyDeleteDear Sir,
ReplyDeleteYahi sachhai hai. Aisa hi hota aaya hai. Daman sehnewala chup chap sehen karta jaata hai, use dar hai ke kahi usne virodh kiya to uski do wakt ki roti ka kya hoga. Jiska daman hota hai wo hamesha intzaar me rehta hai ke koi masiha use bachane aayega. Kehte hai dubte ko tinke ka sahara.
Ab aapne thekedar ki pol khol di hai to ab aap un bebas logo ke masiha ban gaye ho. Ab thoda hi sahi, fark to jaror padega.
Whistle blower ki jarurat hai, chor uchakke khud khud bhaag khade honge.
Dhanyavad Sir,