"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


22 October 2015

A Culture with # tags - # टैग वाली एक संस्कृति

अक्तूबर आते ही फेस बुक पर रावण और महिषासुर के चित्र आने लगते हैं. रावण के बारे में एक कविता काफी वायरल हुई है जिसमें माँ अपनी बेटी से पूछती है कि तुझे कैसा भाई चाहिए तो बेटी का उत्तर होता है - ''रावण जैसा''. आपने भी पढ़ी होगी. रावण के बहुत से गुण रामायण में कहे गए हैं. राम के मुँह से भी रचनाकार ने उसकी प्रसंशा कराई है. दूसरे, महिषासुर को यादव अपना पूर्वज बताते हैं. संथाल लोग तथा और भी कई समुदाय उसे अपना पूर्वज मानते हैं. इतने वर्षों से इनकी हत्या/मृत्यु का जो सांस्कृतिक जश्न मनाया जाता रहा है उसके प्रति एक प्रतिकार की भावना ज़ोर पकड़ रही है.

महिषासुर के वंशजों का कहना है कि वह अपने क्षेत्र का राजा था जिसे धोखे से मारा गया और उसका राज्य छीन लिया गया. असुर जाति या कबीला आज भी भारत में बंगाल और उसके आसपास के क्षेत्र में बसा है और एकदम मानवीय छवि वाला है. उनका मुख्य पेशा कभी भैंसपालन रहा होगा. ब्राह्मणों समेत कई कबीले रावण पर अपना अधिकार जताते हैं कि "वो हमारा बंदा था". अब दशहरा का सीज़न आता है तो उसकी मृत्यु के जश्न पर काफी सवाल उठने लगते हैं. इस समारोह की तुलना विजयी सैनिकों के नृत्य से की जाती है. लेकिन रावण के फ़ैन कहते हैं कि यदि यह विजयी सैनिकों का एक बार का नाच होता तो बात समझ में आती. यह तो संस्कृति के नाम पर किया जा रहा मनोरंजन है और उनके वंशजों का अपमान है.

मन में सवाल तो आता है कि भारतीयों ने कभी निश्चित मुहूर्त पर अयूब ख़ान, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो या माओ त्से तुंग या चाओ एन लाई का पुतला नहीं जलाया. वे तो ज्ञात आक्रमणकारी शत्रु थे. लेकिन रावण भारतीय जनमानस के लिए 'अपना बंदा' है. उसे अहंकार का प्रतीक बना कर फूँकना भी उचित नहीं लगता क्योंकि अहंकार मनुष्य के अस्तित्व का ज़रूरी अंग है. बहरहाल रावण दहन काफी लोगों को आहत करता है.

महिषासुर के साथ मूलनिवासी राजा होने का एक हैशटैग लग गया है. उसकी हत्या करने वाली दुर्गा कौन थी इस पर विवाद है. उसके साथ कई हैश टैग लग गए हैं. कई क्षेत्रों में लोगों ने 'महिषासुर शहादत दिवस' मनाना शुरू कर दिया है.

कुल मिला कर सांस्कृतिक टकराव दस्तक दे रहा है. आगे क्या होगा पता नहीं.

यह सच्चाई है कि हम सभी पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं. यह हमारे मन पर पड़े संस्कारों और प्रभावों के कारण होता है जिन्हें हम सच मानते हैं और जो जानकारी बढ़ने के साथ बदलते रहते हैं. इससे मिथों की निरंतरता प्रभावित होती है. कुछ टीवी कार्यक्रमों ने पुराने मिथकों में नए अर्थ जोड़े हैं जो कई बार ऐतिहासिक या फिर अनैतिहासिक होते हैं. इस क्रम में पौराणिक कथाओं के साथ नए हैशटैग जुड़ गए हैं. इसने इस विचार को स्पेस दिया है कि मानवीय टकराव की जगह सांस्कृतिक परंपराओं और रूढ़ियों को कुछ ढीला करने पर विचार किया जा सकता है.

अब संस्कृति में सभ्यता एडजस्ट होने को है.

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