"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


16 August 2018

The Trails of Part Payment - टूटी रकम के निशान

श्री राजकुमार भगत
वे कभी भी हमें पाँच हज़ार रुपए इकट्ठा नहीं देते थे. उस समय उस पाँच हज़ार की बहुत कीमत होती थी. वे कभी हमें पाँच हज़ार रुपए इकट्ठे नहीं देते थे तो हम चलते कैसे? यह पहली बात. दूसरी बात यह है कि हमारी बिरादरी में हमें गाइड करने वाला या जागरूक करने वाला कोई भी नहीं था. यदि किसी आदमी के सामने कोई लक्ष्य हो तो उसे प्राप्त करे. हमारे सामने तो कोई लक्ष्य ही नहीं था. अंधेरा ही अँधेरा था. कोई बताने वाला नहीं था कि बेटा तुम यह करो, तुम इधर चलो. सबसे पहले 1-2 लोगों को इस कार्य (सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट बनाने) का तजुर्बा था मैंने भी 1970 में दसवीं पास की थी. तब हमारे पास ना तो पढ़ने के लिए पैसा था और ना ही कोई कामकाज शुरू करने के लिए. दिन में कुछ काम करके जैसे-तैसे ईवनिंग कालेज में और प्राइवेट पढ़ता रहा और बीए किया. दूसरी दिक्कत थी कि हमारे यहाँ टांग खींचने वाले लोग भी थे. फिर हम सर्जिकल में ही आए. जहां तक मुझे याद है उस समय हमारी मेघ बिरादरी में तकरीबन 35 से 40 कारखाने थे. वहां पर सर्जिकल का सामान बनता था. उन लोगों में से कुछ का काफी नाम था उनमें से एक नाम श्री रामचंद साणा (A machine used for sharpenig and polishing ) वाला था. मेरे पिता श्री चूनीलाल साणा वाला, मेलाराम साणा वाला कर्मचंद साणा वाला, रतनलाल साणा वाला, बाबा साणा वाला जैसे बहुत बढ़िया लोग थे जिन्होंने साणा का कार्य किया. ये सभी अनपढ़ थे. मेरे पिताजी भी अनपढ़ थे. जितनी उनको समझ थी उसके अनुसार उन्होंने हमें पढ़ाया-लिखाया और हम यहाँ तक पहुँच सके. आगे चलकर हमारे कामकाज की लाइन इस तरह ख़त्म हुई कि हमारा अपना कोई कामकाज नहीं था लेकिन जिन लोगों का हम जॉब वर्क करते थे वे कभी भी हमें इकट्ठी पेमेंट नहीं करते थे जो कभी 5000 रुपए भी होती थी. वे उस रकम को तोड़ कर देते थे ताकि कहीं हम बड़ी रक़म मिलने पर बेहतर कामकाज शुरू न कर लें जिससे हमारी माली हालत ऊपर न उठ जाए. आज हालत यह है कि जिस जगह पर बस्तियों में सर्जिकल का काम किया जाता था वहां जो मजदूर काम करते थे उनका काम खत्म हो चुका है. जो 2-4 बड़ी फैक्ट्रियां थीं वो भी खत्म हो चुकी हैं. क्योंकि मालिक कभी भी हमें पूरी पेमेंट इसलिए नहीं करते थे कि कहीं हमारे पास इकट्ठी रक़म ना आ जाएं और हम कहीं अपना काम धंधा शुरू ना कर लें. पहली बात तो यह. दूसरी बात है कि जैसे ही हफ़्ता ख़त्म होने पर लेबर उनसे अपनी महीने की पगार ₹400 रुपए मांगते थे तो वो 300 देते थे. दूसरे जब उन्हें पगार देते थे तो वो कहते थे कि आ जाओ, वहां से जा कर के शराब पकड़ लाओ और वह 10-15 रुपए की शराब वहां से खरीद लेते थे. मालिक लोग भी पीते थे और मजदूरों को भी पिलाते थे. अगले दिन मजदूरों को पता ही नहीं होता था कि उन्होंने कमाया क्या और खाया क्या. कहने का मतलब यह है कि मालिकों ने उन मजदूरों की आँखें कभी खुलने ही नहीं दीं. यह हाल था. सर्जिकल और स्पोर्ट्स के काम में दूसरी बिरादरियों के यहाँ काम करने वाले हमारे 90 फीसदी लोगों को ऐसे-ऐसे नशों की लत लगा दी गई थी कि वे पैसा अपने घर दे ही नहीं सकते थे जिससे उनका परिवार पलता. घर मर्द और औरत दोनों से चलता है. औरत को आप पैसे नहीं देंगे तो घर कैसे चलेगा. अब भगतों के पास स्पोर्ट्स का काम ही नहीं है. सर्जिकल के काम को आप एक परसेंट गिन सकते हैं. बाकी उनकी हालत आप समझ सकते हैं. यह भी एक कारण था कि जालंधर में सर्जिकल की इतनी मार्कीट थी जो पाकिस्तान के स्यालकोट जैसी थी लेकिन अब हमारे उन कारखानों का नामोनिशान ख़त्म हो गया है. अब दो-चार पार्टियाँ हैं जो पाकिस्तान से इम्पोर्ट कर रही हैं. वही माल बेच रही हैं. यों समझ लीजिए के डेढ़ घर भगतों का है मतलब एक कुछ अधिक मँगवाता है और दूसरा कुछ कम. बाकी नॉन-भगत हैं, वो भी 5-7 ही हैं. वो भी कुछ खास नहीं हैं. पहले यहां कोई 90 पार्टियाँ थीं जो सप्लायर थीं. सप्लायर भी दसेक रह गए हैं. लाइन ही ख़त्म हो गई. स्पोर्टस के सामान का भी कुछ ऐसा ही हाल रहा. वहाँ भी भगत ही मज़दूर थे जो महाजनों के यहाँ काम करते थे. उन्होंने भी इनको कभी सीधे होने ही नहीं दिया. हमारी बाँह पकड़ने वाला कोई नहीं था. मुझे उस काम से बाहर हुए 25-26 साल हो चुके हैं. 1986 के आसपास मैंने वो लाइन छोड़ दी थी. क्योंकि उससे रोटी भी नहीं चलती थी. हर हफ्ते 5-6 (हज़ार) का माल दिल्ली में बेचने निकलते थे. उससे पूरी नहीं पड़ती थी. फिर मैंने वो लाइन छोड़ दी. लगभग 15 साल कमीशन एजेंट का काम किसी पार्टी के पास किया. वो पार्टी भगत नहीं थे. लेकिन उनके साथ अच्छे संबंध थे. पड़ोसी थे. प्रेम प्यार था. उन्हीं से उधार लेकर स्कूटर लाइन में चला गया. जहाँ मैंने 27-28 साल काम किया. तब तक मेरी उम्र भी 50 की हो गई थी. फिर सोचा कि कब तक गाड़ियों में धक्के खाएँगे. फिर कुछ प्रेरणा सी हुई और हालात ऐसे बनते चले गए कि अब मैं 1994 से लोकल जालंधर में ही कार्य कर रहा हूँ. लेकिन स्कूटरों के उस काम के तजुर्बे से ही सीख कर मैंने स्कूटर पार्ट्स का काम छोड़ दिया और पेंटिंग के काम की ओर चला गया. आजकल यही काम कर रहा हूँ और दाल-रोटी सोहणी चल रही है. यदि आप पूछें कि वो (पुरानी)लेबर अब क्या करती है? सर्जिकल और स्पोर्ट्स का काम खत्म हुए अब 35 साल के लगभग हो चुके हैं. एक जेनरेशन का गैप पड़ गया है. अब तक उनमें से कई मर चुके हैं. एकाध आदमी मैंने देखा है रेहड़ी लगाता है. जालंधर भार्गो कैंप में जो इन कामों में लगे चार-पाँच बड़े लोग थे उनमें से भी एक आध ही बचा है. बाकी खत्म हो गए. हमारे जो सियासतदाँ थे उन्होंने भी लोगों को रास्ता दिखाने के लिए कोई कोशिशें नहीं कीं. न उन्होंने कोई सेमिनार वगैरा कराए. जागरूकता लाने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया. नौजवानों में जागरूकता तो आज भी नहीं है. एक दौर आया था जब भार्गों कैंप के 10वीं पास हमारे बच्चे बैंकों में भर्ती हुए. काफी एलआईसी जैसी कंपनियों में भर्ती हुए. तब आवाज़ें लगा-लगा कर उन्हें बुलाया गया था. वो एक आँधी आई थी. अब वो अब खत्म हो चुकी है. तब भर्ती हुए लोगों में से अधिकतर रिटायर हो चुके हैं. अब हरेक आदमी तो अपने बच्चों को अमेरिका नहीं भेज सकता. जहाँ तक लोगों को गाइडेंस देने के लिए सेमिनार कराने का सवाल है भार्गों कैंप में एक लड़का आया था, राजकुमार. उसे पता नहीं प्रोफेसर कहते हैं. उसने अपनी आर्गेनाइज़ेशन भगत महासभा के ज़रिए दो-चार सेमिनार कराए और काम करने की कोशिश की थी. लेकिन ऐसे कामों के लिए बहुत पैसा चाहिए होता है. अगली जेनरेशन के लिए अलग तरह के मौके होंगे. उन्हें उत्साहित करने की ज़रूरत है. लेकिन बड़े पैमाने पर उसकी तैयारी करने के लिए दस साल का समय लग सकता है. जो लीडरी करना चाहता हो वो अपनी बिरादरी को आगे नहीं ले जा सकता. जो समाज के लिए कुछ करना चाहता है उसे पहले समाज सेवक होना होगा. ऐसे समाज सेवकों की बड़ी तादाद में ज़रूरत है जो हमारे लिए काम कर सकें. हमारे बच्चे अभी इस हालत में भी नहीं हैं कि वे जानकारियों के उन सोर्सिस तक पहुँच सकें जहाँ से उन्हें सही गाइडेंस मिल सकती है. यदि हम उन्हें 25 फीसदी बता दें तो बाकी 75 फीसदी वे ढूँढ लेेगे. लेकिन अभी तक हमने उन्हें 5 फीसदी भी नहीं बताया. जो परिवार पढ़ लिख गए हैं उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ियों का कुछ उद्धार कर लिया है. घर का अच्छा माहौल भी इसमें बहुत पार्ट प्ले करता है. लेबर क्लास के पास तो बच्चों के लिए टाइम ही नहीं बचता. वे अच्छा पढ़ाई का माहौल भी नहीं दे पाते. एक और बात को ठीक से समझ लेना ज़रूरी है कि हम किसी से कम नहीं हैं. मेरे व्यवसाय के कारण मेरी डीलिंग करोड़ोंपति लोगों से होती है. मध्यप्रदेश में, महाराष्ट्र में. वे सभी हमेशा भगत जी कह कर बुलाते हैं. वे भगत के साथ हमेशा जी लगा कर बोलते हैं. हमें अपने समाज का सम्मान करना सीखना चाहिए. उसकी प्रशंसा करना सीखना चाहिए. हमारे समाज के लोगों ने घर से बाहर निकल कर बहुत काम किया है और बड़े ओहदों पर जा कर बहुत नाम कमाया है. वे इंजीनियर और एमडी हुए हैं.
राजकुमार भगत, विर्क एनक्लेव, जालंधर

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