"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


17 September 2017

Social boycott, A Social Evil - सामाजिक बहिष्कार, एक सामाजिक बुराई

कबीलाई संसार में सामाजिक बहिष्कार की सज़ा को सबसे बड़ी सज़ा माना जाता था. वैसे तो दुनिया के कुछ भागों में पत्थर मार-मार कर मार डालने या ऐसी ही अमानवीय सज़ाएं देने की प्रथा थी. लेकिन मानवाधिकारों को मान्यता मिलने के बाद से उन कबीलाई परंपराओं में काफ़ी सुधार आया है. हालाँकि सामाजिक बहिष्कार, हुक्का-पानी बंद करने जैसी प्रताड़ना देने का रिवाज़ खापों और शासकीय प्रणाली का हिस्सा कहलाने वाली पंचायतों में आज भी किसी न किसी रूप में खुले या चोरी-छिपे से जारी है. कई बार तो ये संस्थाएँ न्यायालयों का मज़ाक उड़ाती दिखती हैं. मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रियता आने की वजह से अब ऐसी सज़ाएँ देने वाली संस्थाएँ कुछ शर्माने लगी हैं.
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ऐसी अमानवीय रीतियों के ख़िलाफ़ धार्मिक और दक्षिणपंथी राजनीतिक संस्थाओं ने कभी आंदोलन किया हो याद नहीं पड़ता. इन्हें परंपरा को ढोने वाली संस्थाओं के रूप में अधिक जाना जाता है. इनकी रुचि समाज सुधार में कम और अपने व्यवसाय को चलाए रखने में अधिक होती है. सामंतवाद इसी परंपरा का वाहक है और जनक भी. यह सामाजिक बहिष्कार जैसे मारक हथियार का प्रयोग अपने हित में करने के लिए सभी हथकंडे अपनाता है. सामाजिक बहिष्कार के शिकार अधिकतर ग़रीब, दलित और महिलाएँ होती हैं. वे अपनी रोज़ी-रोटी के लिए किसी पर निर्भर होते हैं. यदि वे अपने सामान्य से अधिकार के लिए मांग उठाते हैं तो सामाजिक बहिष्कार का सांप उनकी आँखों के सामने कर दिया जाता है. उसे डराया जाता है कि उसके अपने ही उसे ख़ुद से दूर कर देंगे. ग़रीब के ख़िलाफ़ ग़रीब, दलित के ख़िलाफ़ दलित और महिला के ख़िलाफ़ महिला को खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है. ऐसे में आर्थिक और सामाजिक रूप से ‘अपनों’ पर निर्भर व्यक्ति अपने आप अपने अंतर में मरने लगता है. सामंतों और उनके गुंडों के प्रभाव में जीने वाले लोग काफी मजबूर होते हैं.
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याद रहे कि जातिवाद सामाजिक बहिष्कार की देन है. यही कारण है कि सामंतवादी परंपराओं के कुप्रभावों से टक्कर लेने और सामाजिक बहिष्कार जैसी परंपराओं के विरुद्ध लड़ने में वामपंथियों ने ही कुछ कार्य किया है.
आज के वैज्ञानिक युग और लोकतंत्र में सामाजिक बहिष्कार जैसी अमानवीय प्रथाओं का विरोध सभ्य और शिक्षित समाज करना पड़ेगा. ख़तरा छोटा नहीं है. पिछले तीन साल के राजनीतिक माहौल ने जातिवाद और सामाजिक बहिष्कार के भय को बढ़ाया है. जाति और जातिवाद के इस्तेमाल को लेकर तो सभी सियासी पार्टियों और मीडिया ने अपने कपड़े उतार फेंके.
ध्यान रहे कि सामाजिक बहिष्कार और शुद्धिकरण एक कुचक्र है. छुआछूत, ग़रीबी, और भ्रष्टाचार इसके मुख्य उत्पाद (major product) हैं. इनका सिलसिला तब तक नहीं टूटता जब तक चालू व्यवस्था को पूरी तरह तहस-नहस करके नई व्यवस्था न बनाई जाए. इसके लिए बड़े सामूहिक प्रयास की ज़रूरत होती है.
सामाजिक बहिष्कार पर काबू पाने के लिए महाराष्ट्र की सरकार ने क़ानून बनाया है और छत्तीसगढ़ की सरकार इस दिशा में कदम उठाने जा रही है. क़ानून बनाना बहुत आसान है. उसे लागू करने वाली एजेंसियों का क्या कीजिएगा जिनके भीतर जातिवाद (सामाजिक बहिष्कार) भरा हुआ है? ख़ैर, पहले तो क़ानून बनाने का स्वागत करना चाहिए.
एक समाचार का लिंक.

“सामाजिक बहिष्कार मृत्युदंड से भी बड़ी सज़ा है.” - डॉ. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर.

1 comment:

  1. भरत भूषण सर,आपने जो "सामाजिक बहिष्कार, एक सामाजिक बुराई" पर आर्टिकल लिखा बहुत ही अच्छा आर्टिकल है, मै आपका आर्टिकल पढ़ा और चाहूँगा की इस आर्टिकल को सभी पढ़े और कुछ सीखे|

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