"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


23 September 2017

Megh Matrimonial - मेघ मैट्रिमोनियल

जब से मेघ समाज में शिक्षा का लेवल बढ़ा है तब से शादियों के लिए रिश्ते ढूंढने में लोगों को कठिनाई महसूस होने लगी है.  यह कठिनाई तब से और बढ़ी है जब से सरकारी नौकरियां कम हो गई हैं.
इस समस्या को कम करने के लिए लोग अपने-अपने तरीके से जुगत करने की सोचते हैं. कई वर्ष पहले ‘मेघ चेतना’ पत्रिका ने मैट्रिमोनियल सेवा देने का कार्य शुरू किया था. इससे काफ़ी लोगों को लाभ हुआ. आगे चलकर कुछ उत्साही लोगों ने इंटरनेट पर ब्लॉग, फ़ेसबुक आदि के माध्यम से मैट्रिमोनियल सेवा दी. इससे भी लोगों को फ़ायदा हुआ. पिछले डेढ़ साल के दौरान WhatsApp पर मैट्रिमोनियल ग्रुपों को लेकर काफी खींचतान देखने में आई थी. कई लोग 'एडमिन-एडमिन' खेल में कूद पड़े. पूरे के पूरे ग्रुप हाइजैक हो गए या फिर किडनैप कर लिए गए. उनमें जो हुआ अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा उसमें मैं नहीं पड़ता. उसे सेवा करने का अति उत्साह मानता हूँ. एक अच्छा परिणाम यह सामने आया कि बाबू भगत गोपीचंद जी की दोह्ती (दुहिता) और दिल्ली में एडवोकेट सुनीता भगत ने एक भरी-पूरी वेबसाइट बनाई जो काफ़ी यूज़र फ्रेंडली है. एडवोकेट सुनीता भगत की वेबसाइट का लिंक ऊपर पेजेस में Megh Matrimonial नाम से लगा दिया है. यदि और भी ऐसी कोई यूज़र फ्रेंडली वेबसाइट मिली तो उसे भी लिंक किया जा सकता है.
रिश्ते न मिलने की कठिनाइयों के कई कारण हैं जिनमें से एक यह भी है कि सरकारी नीतियों के कारण रोज़गार पैदा होने की जो उम्मीदें हैं उनके पूरा होने में समय लग रहा है. आगे चल कर क्या होगा पता नहीं, लेकिन नौजवानों में बेचैनी और गुस्सा बढ़ा है. कई युवाओं की शादी इसलिए नहीं हो पा रही क्योंकि वे ऐसी प्राइवेट नौकरियों या कंट्रेक्ट बेसिस वाली नौकरियों में हैं जहाँ नाममात्र का मानदेय दिया जाता है. हमारे कुछ उद्यमियों ने व्यापार में कदम रखा है और सफल रहे हैं. भविष्य में प्राइवेट नौकरियों और अपने कारोबार की राह युवाओं को पकड़नी होगी.
पूरे भारतीय समाज में आर्थिक असुरक्षा का वातावरण बना है. रोज़गार की निरंतरता की कोई गारंटी नहीं. जीवनसाथी मिलने के बाद साथी और बच्चों का क्या होगा इसका ख़्याल पढ़े-लिखे समाज को आएगा ही. युवा तबका शादियों का विचार टालने लगा है. जब उनके हारमोंस सिर को चढ़ेंगे तो वे कहाँ-कहाँ तोड़-फोड़ मचाएँगे पता नहीं. यह माहौल भविष्य में हमारे सामाजिक मूल्यों को पूरी तरह बदल डालने की ताक़त रखता है. बेहतर है कि रिश्ते ढूँढते समय नए हालात को स्वीकार करते हुए आगे चलें. यह कठिनाई सब की है.

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