"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


Seminar-1 - सेमिनार-1

(30 अगस्त, 2015 को भगतमहासभा, जालंधर ने मेघवंशियों के इतिहास पर एक सेमिनार में वक्ता के तौर पर चार लोगों को आमंत्रित किया था. श्री आर.एल. गोत्रा (जो वर्तमान में विदेश में हैं) श्री आर. पी सिंह, श्री ध्यान सिंह और मुझे. वहाँ पहुँच कर पता चला कि कार्यक्रम राजनीतिक रूप ले चुका था और वहाँ भाजपा के नेता की मंच पर उपस्थित थे. फिर भी, मैंने मंच के पीछे लगे साइन बोर्ड पर लिखे विषय की मर्यादा का पालन करना उचित समझा. 25-30 मिनट के बाद सियासी लोगों की टोका-टोकी शुरू हुई उन्हें लगा कि भाषण देने के लिए उन्हें ही बुलाया गया था और उनके भाषण का समय मैं ले रहा हूँ और मुझे अपना पेपर जल्द समेटने के लिए कहा गया. मैंने समेट भी दिया. शेष दोनों आमंत्रित विद्वानों ने स्थिति को समझते हुए निर्धारित विषय पर ज़्यादा कुछ नहीं कहा. यह आयोजकों का कुप्रबंधन था. जो थोड़े से सज्जन सेमिनार के लिए आए थे उन्होंने बाद में अलग से अपने सवाल पूछे जिनका जवाब मैंने अपनी जानकारी के अनुसार उन्हें दिया. अब अपने उस पेपर को यहाँ सहेज कर रख रहा हूँ ताकि यह भ्रम बना रहे कि सेमिनार हुआ था. इसे थोड़ा अपडेट भी किया है.)

पहली बात यह है कि मैं इतिहासकार नहीं हूँ. आपकी तरह अपना इतिहास जानने में मेरी भी रुचि थी. मैंने जो पढ़ा उसके नोट्स बनाता रहा. मेरे नोट्स दरअस्ल इतिहासकारों की देन हैं. आपका इनसे सहमत होना ज़रूरी नहीं है. ये नोट्स यहाँ आपकी सेवा में हैं.

आप में से कितने लोगों ने इतिहास पढ़ा है? कितनों ने महसूस किया कि सिलेबस में पढ़ाए गए इतिहास में उनका अपना-सा कुछ भी नहीं था? कितनों ने ख़ुद से पूछा कि सिलेबस में मेघ जाति या मेघ समाज का इतिहास क्यों नहीं है?

अब इन्हीं सवालों को थोड़ा बदल कर पूछते हैं. आप इतिहास क्यों पढ़ते हैं? यदि आप इतिहास पढ़ते हैं तो क्या उसमें अपने आप को ढूँढने की कोशिश नहीं करते? यदि उसमें आपको अपना इतिहास नहीं मिलता तो आपको कैसा लगता है?

मैंने ये नोट्स क्यों बनाए? मुझे अपने पुरखों का इतिहास जानने की बहुत इच्छा थी. पता चला मैं मेघ हूँ. मैं भगत हूँ. मैं सकोलिया हूँ. मैं भारद्वाज हूँ. मैं अनुसूचित जाति से हूँ. यह कैसे और क्यों हुआ इसका पता नहीं चलता था.

आधी से अधिक उम्र निकल जाने के बाद पता चला कि राजस्थान के स्वामी गोकुलदास ने 'मेघवंश-इतिहास' और चंडीगढ़ के श्री मुंशीराम भगत (मेरे पिता) ने 'मेघ-माला' नाम से मेघों पर पुस्तकें लिखी थीं. पिछले कुछ वर्ष में राजस्थान के माननीय ताराराम जी ने 'मेघवंश - इतिहास और संस्कृति' लिखी जिसके दो खंड आ चुके हैं. सुना है तीन-चार खंड और आ रहे हैं. ताराराम जी के कार्य की प्रशंसा भारत के प्रतिष्ठित इतिहासकार नवल वियोगी ने ख़ूब की है. गुजरात के मेघवार श्री नवीन भोइया के 'बारमतीपंथ' पर किए कार्य से मैं परिचित था. डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ - 'पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास' मेघों के पिछले दो सौ वर्ष के इतिहास को छूता है जिसे मैं ध्यानसिंह जी के घर से उठा लाया था. मेघ-माला के बाद मेरे हाथ में श्री आर.पी. सिंह की लिखी पुस्तक 'मेघवंश : एक सिंहावलोकन' आई जो उन्होंने मुझे भेजने की कृपा की थी. इस पुस्तक में मेघवंश का बड़ा स्वरूप पहली बार देखने को मिला. ताराराम जी की पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य बाद में मिला.

अब इतिहास के कुछ तथ्यों की ओर चलते हैं.
दुनिया का कोई ऐसा मानवसमूह नहीं जिसके पूर्वज किसी न किसी कालखंड में किसी न किसी भूखंड के स्वामी या शासक न रहे हों. इन्हीं भूखंडों की प्राकृतिक संपदा और जीवन की खुशहाली के लिए युदध लड़े गए. हारे गए और जीते गए. युद्ध जीतने वाले ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपना गौरवपूर्ण इतिहास लिखवाया और पराजितों के इतिहास और रिकार्ड को नष्ट किया. जो इतिहास लिखा, पढ़ाया या गाया गया वही आने वाली पीढ़ियों के मन पर बैठता गया.

मेघवंशी समुदायों के लोग आपस में एक दूसरे से पूछते रहे हैं कि भाई, हमारा इतिहास क्या है? उत्तर मिलता है कि भाई, पता नहीं कि हमारे पुरखे कौन थे और कहाँ से आए थे. कपड़ा बुनते होंगे? सारी दुनिया में कपड़ा बुनने वाले लोग रहे हैं. लेकिन सदियों की मार झेल चुके मेघवंशियों को इस सवाल पर ठहरते देखा है कि हम कहाँ जाएँगे? ऐसा फलसफे भरा सवाल जिसका उत्तर वे धर्म, अध्यात्म जैसी भ्रम पैदा करने वाली अवधारणाओं (कन्सेप्ट्स) में ढूँढते हैं. मेघ-माला पुस्तक में इसके बारे में जो लिखा गया है वह काफी है.

वंचित जातियों का दिल अनजाने में ही सही परंतु अपनी ग़ुलामी के इतिहास को महसूस करता है कि उसे खुशहाली के जीवन से बेदख़ल करके मौलिक अधिकारों से दूर किया गया है. लोग मान बैठते हैं कि स्कूल के सिलेबस में जो पढ़ाया जाता है वही इतिहास है. सम्राटों, राजा-रानी, युद्धों और बड़े नक्शों वाला इतिहास. शायद आप भी ऐसा सोचते होंगे? लेकिन ऐसा है नहीं. ऐसा नहीं है कि मेघों या मेघवंशियों का इतिहास नहीं है या उसे पूरी तरह से ख़त्म किया जा चुका है. मेघवंश और मेघ यदि आज अस्तित्व में हैं तो उनका कुछ इतिहास भी है. आख़िर कई जाने-माने इतिहासकारों ने उनके इतिहास को ढूँढ-ढूँढ कर कुछ न कुछ इकट्ठा कर लिया है.

कुछ ऐतिहासिक सवाल भी हैं -
मेघों का इतिहास है तो उन्होंने युद्ध भी लड़ा होगा. आपको कुछ याद आता है? क्या वाक़ई मेघों ने कोई युद्ध लड़ा है? हाँ, इसके पर्याप्त सबूत हैं कि मेघ या मेघ-भगत क्षत्रिय योद्धा रहे हैं हालाँकि उनके अधिकतर इतिहास का लोप कर दिया गया है. उस इतिहास के बचे हुए पन्नों को डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं में जगह मिली है. उसे पढ़ा जाना चाहिए. ज्योतिबा फुले के साहित्य में आर्य आक्रमण से पहले भारत में बस चुके मेघवंशी और अन्य कबीलों के इतिहास का बीजक आ चुका है. नवल वियोगी जैसे इतिहासकारों ने नए तथ्यों के साथ इतिहास को फिर से लिखा है और बताया है कि इस देश के प्राचीन शासक नागवंशी थे. आपने मेघ ऋषि के बारे में सुना होगा उसे वेदों में अहि यानि नाग कहा गया है.

इतिहास की बात शुरू हो चुकी है -
यहाँ इस बात को स्पष्ट करके आगे चलना ठीक होगा कि ''मेघ वंश (Race)'' एक मानव समूह है जो उस कोलारियन ग्रुप से संबंधित है जो मध्य एशिया से ईरान के रास्ते इस क्षेत्र में आया था. इसका रंग गेहुँआ wheetish है.

जब इतिहास लिखने की परंपरा नहीं थी तब कथाओं के रूप में कुछ बातें याद रख ली जाती थीं. अंग्रेज़ी में इन्हें मिथ (myth) कहा जाता है और भारत में इनकी पहचान वैदिक-पौराणिक कथाओं के रूप में होती है. कथाकार का व्यवसाय राजदरबार के कर्मचारी जैसा होता है. वो वही लिखता है जो युद्ध जीतने वाला राजा लिखने देता है. जिस काल में मेघवंशी इस देश में सत्ता में रहे उसका इतिहास ज़रूर कभी उपलब्ध रहा होगा. उनके राज्य की सीमाएँ रही होंगी जिसे किसी और ने जीता होगा. हम इतिहास में लिखे 'अंधकार युग' (dark period या dark ages) के बारे में आधुनिक इतिहासकारों को पढ़ें तो बेहतर जानकारी मिलती है क्यों कि परंपरागत रूप से जो लोग इतिहास लिखते आ रहे थे उन्होंने तो कह दिया था कि हमें उस समय के बारे में जानकारी नहीं मिली लेकिन उसके पहले की मिलती है, बाद की मिलती है. बीच वाले की ही जानकारी क्यों नहीं मिलती. इसका सीधा-सा अर्थ निकलता है कि इतिहास के साथ बेइमानी हुई, तथ्य बदले गए, नष्ट कर दिए गए या या उनकी उपेक्षा कर दी गई. के.पी. जायसवाल, नवल वियोगी, एस.एन. रॉय-शास्त्री (जिन्होंने ‘मेघ’-‘महामेघ’ की उपाधि वाले राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों का अध्ययन किया), आर.बी. लाथम आदि ऐसे इतिहासकार हैं जिन्होंने ईमानदारी का परिचय दिया. इससे पूर्व लेखन पर जिनका परंपरागत एकाधिकार (monoply) रहा उन्होंने पुराणों के रूप में अपनी कथाएँ लिख कर उनका प्रचार किया. व्यवस्था द्वारा ज़बरदस्ती अक्षिशित रखे गए लोगों को वही कथाएँ परोसी गईं और वे उनके ज़हन में बैठ गईं. लेकिन लोक-स्मृति में अंकित उनका इतिहास जीवित रहा. वे जानते थे कि जो अच्छे भले इंसान थे जिन्हें असुर, राक्षस, दैत्य, खल आदि कहा गया क्योंकि वे युद्ध हार गए थे. हिरण्यकशिपु के वंशज प्रह्लाद से लेकर राजा बली उसी श्रेणी में आते हैं जिनके राजपाट को छल कपट से या उनकी हत्या करके छीन लिया गया. रामायण के पात्र भी अलग किस्म के नहीं हैं. वही सुर-असुर की तस्वीरों का खेल है. कौरवों की सेना के योद्धाओं का इमेज भी ऐसे ही बनाया गया.

आर्यों के आक्रमण से पहले सिंधुघाटी/मुअनजो दाड़ो/हड़प्पा सभ्यता का उल्लेख है जिसके राजा और प्रजा मेघवंशी/नागवंशी थे. यह अपने समय की सब से अधिक विकसित सभ्यता थी जिसके निवासी शांति प्रिय थे और छोटी-छोटी बस्तियाँ बना कर रहते थे जो दूर-दूर बसी होती थीं. कृषि और कपड़ा बुनना उनका व्यवसाय था. यहाँ इस बात को समझ कर चलने की ज़रूरत है कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़े होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता. आक्रमणकारी आर्यों के पास प्रशिक्षित घोड़े थे जिनके कारण उन बिखरी हुई बस्तियों के निवासी जंगली, हिंसक और बर्बर आर्य कबीलों के आक्रमणों का मुकाबला नहीं कर सके और पराजित हुए. इसके बाद उनकी दासता का बुरा समय शुरू हुआ. इतना जान लेना बहुत है कि उस लंबे संघर्ष के बाद लिखे गए वेदों में वृत्रासुर, अहि (नाग) मेघ, प्रथम मेघ, आदि का उल्लेख है. अंतिम बौध राजा बृह्द्रथ की हत्या के बाद लिखी गई पौराणिक कथाओं में मेघों, नागवंशियों और उनके राजाओं के बारे में तथाकथित ऐतिहासिक संकेत हैं. उनसे एक ऐसी तस्वीर बनती है जिसे मेघवंशियों की आने वाली पीढ़ियाँ देखना तक नहीं चाहेंगी. वीर मेघ वंशी पौराणिक कथाओं, रामायण, महाभारत में आर्यों के साथ हुए युद्धों में वीरता के साथ युद्ध करते हुए दिखाई देते हैं. लेकिन अपनी कमज़ोरियों के कारण हारते हैं. असुरों, राक्षसों, नागों - हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, प्रह्लाद, विरोचन, बाणासुर, राजा महाबली, रावण, तक्षक, तुष्टा, शेष, वासुकी आदि - के बारे में जो लिखा गया और जो इमेज बनाए गए वो ऐसे बनाए गए कि वे नफरत के निशाने पर आ गए. वैदिक कथाओं और ईरान के इतिहास से मिलने वाला मेघ वंश का कुछ इतिहास श्री आर.एल. गोत्रा के एक लंबे आलेख Meghs of India और एक अन्य आलेख Pre-historic Meghs में बखूबी बताया गया है. ताराराम जी ने उसमें लिखी बातों से सहमति जताई है. वैदिक कथाओं की बात ऊपर बता दी गई है. आगे चल कर स्पष्ट होता है कि मेघ वंश (रेस) ने मेडिटेरेनियन साम्राज्य की स्थापना भी की थी जो सतलुज और झेलम तक फैला था. पर्शियन राज्य की स्थापना के बाद यह समाप्त हो गया और मेदियन साम्राज्य के लोग बिखर गए होंगे इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है.

वैदिक-पौराणिक कथाओं के रूप में यहाँ-वहाँ मिलने वाला मेघवंशियों का तथाकथित इतिहास क्योंकि पहचानने लायक है ही नहीं इसलिए उसे हम इतिहास नहीं कह सकते. हाँ उसे कुछ संकेतों के रूप में जाना जा सकता है कि हारने वाली कौमें या वंश कौन-कौन से थे. अब आधुनिक इतिहासकारों ने वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर नए तथ्यों के साथ मेघों के इतिहास पर कार्य शुरू किया है. हमें केवल उस पर ध्यान देना चाहिए.

श्री आर.एल,. गोत्रा ने अपने अध्ययन से बताया है कि आर्यों के आने से पहले सप्तसिंधु क्षेत्र में बसे लोग 'मेघ ऋषि' जिसे 'वृत्र' भी कहा जाता है के अनुगामी थे या उसकी प्रजा थे. उसका उल्लेख वेदों में आता है. काबुल से लेकर दक्षिण में नर्बदा नदी तक उसका आधिपत्य (Suzerainty) था. सप्तसिंधु का अर्थ है सात दरिया यानि सिंध, सतलुज, ब्यास, रावि, चिनाब, झेलम और यमुना. आर्यों का शुरुआती आगमन या आक्रमण ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व माना जाता है और मेदियन साम्राज्य ईसा से 600 वर्ष पूर्व अस्तित्व में था. इस दौरान आर्यों के बड़ी संख्या में आने की शुरूआत हुई और इस क्षेत्र में मेघ और अन्य कबीलों के साथ लगभग 500 वर्ष तक चले संघर्ष के बाद आर्य जीते. यह लड़ाई मुख्यतः दरियाओं के पानी और उपजाऊ जमीन के लिए लड़ी गई. गोत्रा जी ने लिखा है कि वैदिक साहित्य के अनुसार मेघ या वृत्र से जुड़े लगभग 8 लाख मेघों की हत्या की गई थी. धीरे-धीरे आर्यों का वर्चस्व स्थापित होता चला गया जो बुद्ध और उसके बाद भी चला और पुष्यमित्र शुंग के द्वारा असंख्य बौधों की हत्या तक चला जिसमें बौधधर्म के मेघवंशी प्रचारक भी बड़ी संख्या में शामिल थे. कालांतर में ब्राह्मणीकल व्यवस्था स्थापित हुई, मनुस्मृति जैसा धार्मिक-राजनीतिक संविधान पुष्यमित्र ने स्मृति भार्गव से लिखवाया. जात-पात निर्धारित हुई और मेघवंशियों का बुरा समय शुरू हुआ जो मेघों के लिए अंधकार काल बना.

ब्राह्मणीकल इतिहास में अंधकार काल उसे कहा गया है जब मेघवंशी शासन कर रहे थे. ताराराम जी की पुस्तक में मेघ राजाओं के नाम दिए गए हैं.

मेघों का प्राचीन इतिहास भारत में कम और पुराने पड़ोसी देशों के इतिहास में अधिक मिलता दिख रहा है. जो खोजी हैं उनके लिए यह दिशा संकेत है.

ख़ैर, बहुत आगे चल कर आर्य ब्राह्मणों की बनाई हुई जातिप्रथा में शामिल होने से मेघ वंश से कई जातियाँ निकलीं. पंजाब और जम्मू-कश्मीर के मेघ-भगत एक जाति है तथापि मेघ वंश से राजस्थान के मेघवाल भी निकले हैं और गुजरात के मेघवार भी. कई अन्य जातियाँ भी मेघवंश से निकली हैं जिन्हें आज हम पहचाने से इंकार कर देते हैं लेकिन पहचानने की कोशिशें तेज़ हो रही है.

जातिवादी व्यवस्था का प्रसार
भाई साहब आपका गोत्र क्या है?
क्या आपके गोत्र में आपका इतिहास है? हाँ है, थोड़ा सा. जाति और गोत्र. और आपका सामाजिक स्तर.
माननीय ताराराम जी अपनी पुस्तक 'मेघवंश - इतिहास और संस्कृति-2' में लिखते हैं कि हिंदू समाज में अलग-अलग जातियों की पिछली व्यवस्था को 'वर्ण-व्यवस्था' बताया जाता है और उसे धर्म आधारित बताया जाता है. सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक बताना या धार्मिक आधार देना ऐसी चतुराई थी जिसका उदाहरण किसी अन्य देश में देखने-सुनने को नहीं मिलता. भारत की हर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में हम धर्म का आधार बताते हैं. परंतु गहराई में जाने पर मालूम पड़ता है कि यह प्रचार का एक साधन है. हम इस नाम से उन सारी बातों का प्रचार करते हैं, जो याद दिलाती रहती हैं कि कौन सा वर्ण सबसे ऊँचा है या सबसे ऊँचे से कितना नीचे है.
मैंने अपने संबंधियों को जन्म-मरण, विवाह के संस्कारों के समय अपना गोत्र छिपाते हुए देखा है. वे केवल ऋषि गोत्र से काम चलाना चाहते हैं. वे जानते हैं कि गोत्र बता कर वे अपनी जाति और अपने सामाजिक स्तर की घोषणा खुद करते हैं जो उन्हें अच्छा नहीं लगता.

हिंदू समाज में जाति अपने आप में न केवल एक सामाजिक घटक (Social component) बन चुका है, अपितु राजनीतिक और सांस्कृतिक component भी बन चुका है. सामाजिक और सांस्कृतिक घटक के रूप में हर जाति अपना बड़प्पन बताने के लिए गोत्र की सहायता लेती है. गोत्र-व्यवस्था जातिवाद और ऊँच-नीच को स्थायी बनाती है. हिंदू समाज में गोत्र का विचार सामाजिक रस्मों-रिवाज में किया जाता है, यह प्रथा मेघ समाज में भी है जोकि देखा-देखी आई है. गोत्र की परंपरा का बोलबाला देख कर मेघों ने भी अपने को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मिलाते हुए इस व्यवस्था को अपना लिया. यह गोत्र-परंपरा मेघों की अपनी सामाजिक या सांस्कृति परंपरा नहीं है, बल्कि ब्राह्मणी परंपरा से ली गई प्रथा है. मेघों के अपने कबीलाई नाम होते थे जो विवाह आदि के लिए प्रयोग होते थे.

ताराराम जी ने अपने गोत्र संबंधी आलेख में बताया है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में प्रत्येक जाति अपनी उत्पति किसी न किसी ऋषि या हीरो (शूरवीर) से जोड़कर अपनी जाति और वर्ग का बड़प्पन बताती है. इसे एक मज़बूत मान्यता मिली हुई है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक ऋषियों ने देखा कि जब तक व्यक्ति या समाज के जीवन में उनके अपनी जाति का अभिमान या वंश का अभिमान नहीं लाया जाएगा, तब तक किसी वर्ग का बड़प्पन नहीं बनाया जा सकता. उन्होंने गोत्र प्रथा बनाई. शुरू में इने-गिने ऋषियों ने इस व्यवस्था को चलाया. बाद में यह गिनती बढ़ती गयी. कई ऋषियों के नाम वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में आते हैं, लेकिन वे सभी गोत्र चलाने वाले नहीं हैं. ज़ाहिर है ऋषियों में भी मतभेद रहे होंगे.

वैदिक परंपरा में गोत्र उस समय की देन है, जब मानव-समुदाय अनेक भागों में बँटने लगा था और उसे अपने पूर्वजों और संबंधियों का ज्ञान कराने के लिए किसी इशारे की ज़रूरत थी.

कई जातियाँ एक ही नाम वाले ऋषि से अपनी उत्पत्ति बताती हैं. आमतौर पर ब्राह्मण परंपरा में गोत्र प्रथा को रक्त-परंपरा (अपना ख़ून) और वंश के अर्थ में लिया जाता है. इसलिए यह परंपरा स्वीकार करती है कि ब्राह्मण हमेशा ब्राह्मण ही रहेगा. दूसरी जाति वाला कभी नहीं हो सकता. मेघवंशी मेघवंशी ही रहेगा. वह आर्य या ब्राह्मण नहीं बन सकता.

कई समाज सुधारकों ने मेघ वंश को ऋषियों से जोड़कर देखने की कोशिश की. वे हिंदू व्यवस्था में इस जाति का मान बढ़ाना चाहते थे, लेकिन उनकी इन कोशिशें से इस जाति की स्थिति ऊँची नहीं हुई. इसलिए मेघों को अपने कुल या वंश को ही फिर से प्रतिष्ठित करना होगा जिसे वे भूल गए हैं. ऐसा ताराराम जी का सुझाव है.

एक अन्य परंपरा के अनुसार मेघों की पहचान वशिष्टी के नाम से की जाती रही अर्थात मेघ जाति बनने से पहले ये अपना परिचय वशिष्टी या वशिष्ठा नाम से देते थे जो उनके गौरव और शौर्य का वत्स जनपद से संबंधित इतिहास था. इसलिए सारे भारत में मेघ वाशिष्ठी, वशिष्टा या वासिका नाम से जाने गए. फिर कई भू-भागों में यह वशिष्टा नाम धीरे-धीरे लुप्तप्राय हो गया.

आदिकाल से ही मेघ लोग अपने मूलपुरुष के रूप में किसी मेघ नामधारी महापुरुष को मानते आए हैं. यह मूल पुरुष ही उनका गोत्रकर्ता (वंशकर्ता) है. इसे सभी मेघवंशी मानते हैं.

क्या मेघों का कोई धर्म है?
आप को पूछा जाए कि क्या आप धार्मिक व्यक्ति हैं? तो क्या आप सिर हिला कर न कर सकते हैं? नहीं न? नहीं कर सकते क्योंकि इस शब्द का भारी ख़ौफ़ है. हालाँकि धर्म ख़ौफ़ की चीज़ नहीं होनी चाहिए. लेकिन जब धर्म का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति हो तो धर्म को ख़ौफ़ की चीज़ बना कर अपना स्वार्थ साधा जाता है. मेरा प्रश्न दूसरे प्रकार का है कि - क्या मेघों का अपना कोई धर्म है? इतिहास खुली नज़र से इसका भी रिकार्ड देखता है.

मेरा अनुभव यह है कि मेघ समुदाय में मेघों के धर्म के विषय पर कुछ कहना टेढ़ी खीर है. मेघ मधाणी चलने का डर होता है.

यह विषय गहन गंभीर इसलिए है क्योंकि- (1) धर्म नितांत व्यक्तिगत चीज़ है, इसे व्यक्ति सब के सामने नहीं भी रखना चाहता. (2) सामाजिक भय के कारण वह सबके सामने वही रखता है जो समाज में प्रचलित है या कमोबेश मान लिया गया है.

जम्मू के एक युवा सतीश भगत जिसे हम सतीश एक विद्रोही के नाम से बेहतर जानते हैं उन्होंने भगतनेटवर्क ग्रुप जो श्री राजकुमार ‘प्रोफेसर’ ने बनाया है उसमें इस विषय पर चर्चा आयोजित की थी. चर्चा से जो बातें सामने आईं उसके आधार पर यह जानकारी प्रस्तुत है.    

1. मेघ अपने धर्म का इतिहास तो दूर वे अपना पिछला सौ साल का इतिहास भी कम जानते हैं. जो थोड़े-बहुत जानते हैं वे धर्म के विषय में तर्क बुद्धि (logical approach) अक़सर नहीं रखते. वे केवल धार्मिक भावनाओं की मदद लेते हैं जिसका कारण वैज्ञानिक शिक्षा की कमी है.

2. हालाँकि व्यक्ति के धर्म और लोक धर्म में कई बातें समान हो सकती हैं. लेकिन उनके बारीक ताने-बाने को समझना बहुत ज़रूरी होता है. उनमें ही कहीं इतिहास और परंपरा का निवास होता है.

3. मार्च, 1903 में आर्यसमाज ने अपने पहले प्रयास में 200 मेघों का शुद्धीकरण करके उन्हें हिंदू दायरे में शामिल किया था. बाद में बहुत से मेघों का शुद्धीकरण किया गया. इससे मेघों और आर्यसमाज दोनों को लाभ हुआ. आर्यसमाज को हिंदुओं की संख्या बढ़ाने में कामयाबी मिली और मेघों के लिए शिक्षा के द्वार खुल गए. जम्मू में रामचंद्र महाजन नाम का व्यक्ति तो मेघों की शिक्षा के हक में अपनी जान पर खेल गया. लेकिन यह प्रश्न बना हुआ है कि स्वतंत्र भारत में आर्यसमाज के एजेंडा में मेघ अब कहाँ हैं. जो मेघवंशी पाकिस्तान में रह गए थे उनमें से अधिकतर इस्लाम अपना चुके हैं. जो अभी भी हिंदू हैं वे अपना हाल बताते भी हैं तो उनकी आवाज़ कम ही सुनाई देती है. वे धार्मिक अल्पसंख्यक हो गए हैं.

इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि मेघों के शुद्धीकरण के बाद मेघों का आत्मविश्वास जागा, उनकी राजनीतिक महत्वाकाँक्षा बढ़ी और स्थानीय राजनीति में सक्रियता की उनकी इच्छा को बल मिला. वे म्युनिसपैलिटी जैसी संस्थाओं में अपनी नुमाइंदगी चाहते थे. इससे आर्यसमाजी लोग परेशान हुए. लेकिन सामान्य मेघों के मुकाबले 'आर्य मेघ' नाम गढ़ कर ऊँची पहचान दी गई लेकिन वे आर्यवंशी तो नहीं ही बन सकते थे. इसका मेघों की सामाजिक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि आर्य मेघ या आर्य-भक्त मेघ शब्द की आढ़ में यह ब्राह्मणीकल व्यवस्था ही थी.

4. राजस्थान के बहुत से मेघवंशी अपने एक पूर्वज बाबा रामदेव में आस्था रखते हैं. गुजरात के मेघवारों ने अपने पूर्वज मातंग ऋषि और ममई देव के बारमतिपंथ को धर्म के रूप में सहेज कर रखा है और उनके अपने मंदिर हैं, पाकिस्तान में भी हैं. जितना मैं जान पाया हूँ बारमतिपंथ कमोबेश बौधमत ही है. प्रसंगवश मातंग शब्द का अर्थ मेघ ही है. मेघवार अपने सांस्कृतिक त्योहारों में सात मेघों की पूजा करते हैं. संभव है वे सात मेघ कोई मेघवंशी राजा रहे हों. इसकी पड़ताल होनी चाहिए. डॉ. नितिन विनज़ोदा ने बताया था कि ममैदेव का मक़बरा थट्टा के पास मक्ली के नेक्रोपोलीज़ क़ब्रगाह में बना है. ममैदेव महेश्वरी मेघवारों के पूज्य हैं जो मातंग देव या मातंग ऋषि के वंशज हैं. ममैदेव ने बारमति पंथ का खूब विस्तार किया. ममैदेव का मक़बरा जिस कब्रगाह में है उसे यूनेस्को ने विश्वधरोहर (World Heritage) के रूप में मान्यता दी है. एक मेघवंशी का निर्वाण स्थल विश्वधरोहर में है. बारमती पंथ, मेघवार, मेघरिख, मातंगदेव, ममैदेव और उनकी संबंधित परंपराओं आदि के बारे में अधिक जानकारी के लिए डॉ. मोहन देवराज थोंट्या, कराची, पाकिस्तान का आलेख नेट पर उपलब्ध है. Origins of Barmati Panth and Megh Rikh पर कार्य करने के लिए उन्हें डॉक्टरेट की डिग्री दी गई है. इस्लामिक राष्ट्र में ऐसे विषय पर शोध करना आसान कार्य नहीं था. आगे आप समझ लीजिए.

5. मेघ कई अन्य धर्मों/पंथों में गए जैसे राधास्वामी, निरंकारी, ब्राह्मणीकल सनातन धर्म, सिखिज़्म, आर्यसमाज, ईसाईयत, विभिन्न गुरुओं की गद्दियाँ, डेरे आदि. सच्चाई यह है कि जिसने भी उन्हें 'मानवता और समानता' (humanity and equality) का बोर्ड दिखाया वे उसकी ओर गए. लेकिन इससे उनका सामाजिक स्तर नहीं बदला. धार्मिक दृष्टि से उनकी अलग-अलग पहचानें बन गईं. लेकिन धार्मिक एकता भी नहीं हो पाई. एक जाति के रूप में मेघों ने सामूहिक निर्णय शायद ही कभी लिए हों. एकाध बार चुनावी माहौल में एकता होती दिखी लेकिन वह अपवाद रूप में है.

6. मेघ जानते-बूझते हैं कि मंदिरों में उनके पुरखों के जाने पर मनाही थी. मेघ पौराणिक कथाओं से प्रभावित हैं. देवी-देवताओं, मंदिरों की ओर आकर्षित हैं.

7. वे मंदिरों में जाना चाहते हैं लेकिन ब्राह्मणीकल धर्म के प्रति आशंकित भी हैं. अत्यधिक जातीय शोषण (हिंसा) झेलने और अशिक्षा के कारण वे जात-पात को भुलाने की प्रबल इच्छा रखते हैं लेकिन वे सवर्ण जातियों के व्यवहार के कारण बहुत आशावान नहीं हैं.

8. मेघों की नई पीढ़ी कबीर की ओर झुकने लगी है ऐसा दिखता है और बुद्धिज़्म को एक विकल्प के रूप में जानने लगी है शायद बिना यह जाने कि कबीर और बुद्ध की शिक्षाओं में ग़ज़ब की समानता है. यह पीढ़ी कर्म-कांडों, अंधविश्वासों के प्रति जागरूक है. वह मूर्तियों पर पैसा-प्रसाद चढ़ाने, दूध पिलाने आदि के आडंबर के विरोध में है.

9. युवा मेघ पूछते हैं कि हम 'खास अपने' मंदिर क्यों नहीं बनाते? जहाँ से होने वाली आमदनी को अपने समुदाय की तरक्की के लिए इस्तेमाल कर सकें. मेघों द्वारा बनाए गए कबीर मंदिरों में आया चढ़ावा अपने सामुदायिक उत्थान (community development) के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ कबीर मंदिरों में गरीब बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण का प्रबंध शुरू किया गया है.

10. कुछ शिक्षित मेघ किसी मंदिर में जाने की अनिवार्यता महसूस नहीं करते. हिंदू धर्म ग्रंथों, जो मूलतः ब्राह्मणग्रंथ हैं, उन पर उनका विश्वास कम हुआ है क्योंकि ये ग्रंथ जातिवाद चलाए रखने में सहायक रहे हैं.

11. मेघों में संशयवादी (scepticism) विचारधारा के लोग भी हैं जो ईश्वर, मंदिर, धर्मग्रंथों, धार्मिक प्रतीकों आदि की आवश्यकता महसूस नहीं करते बल्कि देश के संविधान पर भरोसा रखते हैं. भारत के प्राचीन इतिहास में लोकायत की सशक्त परंपरा रही है जो बुद्ध से जुड़ी है. संशयवाद इस दृष्टि से कोई नई चीज़ नहीं है न ही नास्तिकता भारत में नई चीज़ है. डॉ. अंबेडकर ने सभी अछूत जातियों को प्राचीन समय के बुद्ध के अनुयायी कहा है जो उनकी सघन खोज का निष्कर्ष है.

क्या आपकी देरियाँ आपके धार्मिक स्थल हैं?
वैसे तो इस विषय पर बहुत बहस हो सकती है लेकिन यहाँ इतना बता देना काफी होगा कि सिंधु घाटी सभ्यता या उससे संबंधित बिखरे हुए कई अन्य कबीलों की भाँति मेघ अपने मृत पूर्वजों (वड्-वडेरे, जठेरे) की पूजा करते हैं और वहाँ मस्तक नवाते हैं, मन्नतें माँगते हैं. उनकी अधिकतर देरियाँ आज जम्मू में और दो-तीन पंजाब में हैं. शायद कुछ पाकिस्तान में भी हों. इस बारे में पहला रिसर्च कार्य डॉ. ध्यान सिंह ने किया है जो उनके थीसिस में दर्ज है.

आप कबीरपंथी हैं? डॉ. ध्यान सिंह पूछा करते हैं कि आप कबीरपंथी कब से हैं. आप में बहुत होंगे जो खुद को कबीरपंथी कहलाना पसंद करने लगे हैं. यह भी आगे चल कर मेघों के धार्मिक इतिहास में एक प्रवृत्ति (tendency) के तौर पर पहचाना जाएगा.

भारत विभाजन के बाद लगभग सभी मेघ भगत भारत (पंजाब) में आ गए. यहाँ अपनी उन्नति को लेकर उनकी आर्यसमाज से बहुत उम्मीदें थीं. लेकिन आर्यसमाज के एजेंडा में मेघों के शुद्धिकरण और सामाजिक उत्थान का वैसा एजेंडा या उत्साह बाद में नहीं दिखा. शायद उन्हें शुद्धिकृत लोगों की कोई बड़ी ज़रूरत अब नहीं थी. मेघों के कबीरपंथ की ओर रुझान का यह भी एक कारण था ऐसा मैं मानता हूँ.

कमज़ोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति की वजह से राजनीतिक गलियारों में मेघों की सुनवाई लगभग नहीं हुई. एक सकारात्मक positive बात यह है कि पढ़े-लिखे मेघों ने बड़ी तेज़ी से अपना पुश्तैनी कार्य छोड़ कर अपनी कुशलता कई अन्य कार्यों में दिखाई और उसमें सफल हुए. इस बात की प्रतीक्षा है कि व्यापार के क्षेत्र में इनकी पहचान बने.

राजनीति में मेघों का इतिहास अभी अंकुर अवस्था में है. राजस्थान में 'मेघ देशम्' नाम की राजनीतिक पार्टी ने अपनी हाज़िरी दर्ज कराई है.

मेघ ऋषि का मिथ धर्म और पूजा पद्धति में प्रवेश पाने के लिए आतुर है. आर.एल. गोत्रा जी ने अपने अध्ययन में मेघऋषि या वृत्र को सप्तसिंधु का पुरोहित नरेश पाया है जिसकी प्रभुता का प्रभाव झेलम से यमुना और नर्बदा तक फैला था. मेघों के इतिहास का यह महत्वपूर्ण पृष्ठ खाली पड़ा था जिसके बारे में लोगों ने सुना तो है लेकिन जानते कम हैं. मेघ ऋषि को अपना आदि पुरुष मानने वाले मेघवंशी उसकी कल्पना अपने-अपने तरीके से करते हैं. कोई स्पष्ट तस्वीर तो नहीं है लेकिन कल्पना की जाती है कि एक जटाधारी भगवा कपड़े पहने ऋषि रहा होगा जो पालथी लगा कर जंगल में तपस्या करता था. इसी इमेज के आधार पर आपके यहाँ गढ़ा, जालंधर में एक मेघ सज्जन सुदागर मल कोमल ने अपने देवी के मंदिर में मेघ ऋषि की मूर्ति स्थापित की है. राजस्थान के एक सज्जन गोपाल डेनवाल ने कुछ-कुछ ऐसी ही बिना भगवा वाली मेघ ऋषि की मूर्ति स्थापित करके जयपुर में मेघ ऋषि मंदिर स्थापित किया है जिस पर अभी कार्य चल रहा है. तीन-चार अन्य स्थानों पर ऐसे मंदिरों पर काम हो रहा है. यहाँ मौजूद हरबंस लाल लीलड़ जी ने अबोहर में एक चौक पर मेघ ऋषि की मूर्ति स्थापित की है जहाँ हर साल 16 दिसंबर को एक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. मुअनजो दाड़ो सभ्यता में मिली सिन्धी अज्रुक पहने हुए पुरोहित-नरेश (King Preist) की 2500 ई.पू. की एक प्रतिमा जो पाकिस्तान के नेशनल म्यूज़ियम, कराची, में रखी है उसकी इमेज या छवि का प्रयोग भी मेघवाल कहलाने वाले समूहों ने जयपुर स्थित मेघ मंदिर में किया है. उसी इमेज में मामूली परिवर्तन करके उसे मेघसेना (जो उनका का ही संगठन है) के सुप्रीम कमांडर की छवि तैयार की है. चूँकि आधुनिक इतिहासकारों ने मुअनजो दाड़ो सभ्यता और मेघ वंश से संबंधित तथ्यों को स्थापित कर दिया है इसलिए मेघ ऋषि की पवित्र, ऐतिहासिक और मानव छवि उभर कर सामने आई है. मेघ ऋषि, मेघ भगवान की आरतियाँ, चालीसा, स्तुतियाँ तैयार करके CDs बनाई गई हैं. इस बारे में अग्रणी भूमिका निभाने का श्रेय विशेष तौर पर श्री गोपाल डेनवाल और श्री आर पी सिंह को जाता है.

आपके इतिहास के कुछ पृष्ठ भी ख़ाली पड़े हैं. उनमें से कुछ का ज़िक्र करना चाहता हूँ.

1. जम्मू के एक सज्जन ने एक दस्तावेज़ तैयार किया था जिसका नाम था इस्तगासा-ए-राष्ट्रपति. मेरा अनुमान है कि उसमें मेघों की स्थिति का वर्णन हुआ हो सकता है. उसे ढूँढना चाहिए. यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हो सकता है.

2. केरन वाले भगता साध के चलाए शाकाहार आंदोलन का सफ़ा भी लगभग खाली पड़ा है. सन् 1879 में भगता साध के माध्यम से एक करार हुआ था कि मेघ मांसाहार से दूर रहेंगे (मरे हुए जानवर नहीं खाएँगे या मांसाहार नहीं करेंगे इसके स्पष्टीकरण की ज़रूरत है). करार तोड़ने वाले पर इतना भारी जुर्माना था कि शायद ही कोई मेघ उसे भर सकता था. कई हज़ार मेघों ने मांसाहार छोड़ा. यह लगभग एकतरफा करार था. इस करार की शर्तों और पृष्ठभूमि को देखने की ज़रूरत है. क्या उस करार की कोई प्रति भगता साध के उत्तराधिकारियों के पास या जम्मू-कश्मीर राज्य के सरकारी रिकार्ड में पड़ी है? ज़रा देखिएगा.

3. कुछ मेघों ने युद्धों में हिस्सा लिया है खास कर दूसरे विश्वयुद्ध में, पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्धों में. वे दुश्मन की सामाओं में घुस कर लड़े हैं. लेकिन उन लड़ाके सेनानियों का रिकार्ड इकट्ठा नहीं किया गया है. उनके बारे में जानकारी एकत्र कीजिए. लिखिए. यह पन्ना खाली न रहने पाए.

4. क्या आपने सुना है कि कोई मेघ भगत स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा पा चुका है? मैंने इस बारे में कइयों से पूछा कि किसी मेघ स्वतंत्रता सेनानी को जानते हो. कभी हाँ में जवाब नहीं मिला. दीनानगर की अनीता भगत पहली थीं जिन्होंने कहा कि हाँ मैं एक ऐसे मेघ भगत को जानती हूँ. अनीता ने उनके बारे में जानकारी और फोटोग्राफ इकट्ठे करके मुझे भेजे. उस वीर को 1972 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के लिए ताम्रपत्र भेंट किया था. गाँव की पंचायत ने उनके सम्मान में स्मृति द्वार बनवाया है. एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जिसके शरीर पर गोलियों के छह निशान थे. मास्टर नरपत सिंह नाम है उनका. गाँव बफड़ीं तहसील और ज़िला हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश), जीवन काल - सन् 1914 से 1992 तक. क्या आपकी नज़र में कोई अन्य मेघ स्वतंत्रता सेनानी है? ढूँढिए. वह आपका इतिहास है.

5. शिक्षित होने के बाद मेघ लेखकों की तादाद बढ़ी है. कुछ का ब्योरा मैंने इकट्ठा किया है. जम्मू के कुमार अनिल भारती 16 पुस्तकें लिख चुके हैं. वे भी सम्मान पा चुके हैं. ताराराम जी ने मेघ वंश का इतिहास लिखा है और अन्य कई पुस्तकें लिखी हैं. अवार्ड पाए हैं. वे इतिहास के अथक अध्येता हैं. श्री मुंशीराम भगत ने ''मेघ-माला'' और ''छुआछूत कब और क्यों?'' के अलावा संतमत पर 7 पुस्तकें लिखी हैं. जम्मू के श्री जोगराज योग ने उर्दू और हिंदी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है और सम्मान पाया है. कर्नल तिलकराज ने ग़ज़ल और गीत लेखन आदि में नाम कमाया है. कुसुम मेघवाल बहुत सक्रिय साहित्यकार हैं. और भी कई होंगे. उनके बारे में जानकारी एकत्र कीजिए और लिखिए. वह भी आपका इतिहास है.

6. आपके मेघ समाज के सामाजिक कार्यकर्ताओं की जानकारी लिखनी बाकी है. वे आपके इतिहासकर्ता हैं. कुछ के बारे में जानकारी इकट्ठी हुई है. आशा भगत का पठानकोट में किया कार्य ध्यान खींचता है. श्री आर.एल. गोत्रा जी ने एडवोकेट हंसराज भगत और जम्मू के भगत दौलत राम जिन्होंने अलवर में मेघ भगतों को ज़मीन दिलवाने में बड़ी भूमिका निभाई थी उनके बारे में बहुत बढ़िया लिखा है. वह एक उदाहरण बन सकता है.

7. मेघों के अपने धार्मिक नेता हुए हैं जैसे केरन वाले भगता साध. और भी होंगे. उनकी जीवनियों का विस्तृत वर्णन इतिहास में महत्व का होता है. वह उपलब्ध होना चाहिए. ऐसे ही मेघ राजनीतिज्ञों की जीवनियों का बहुत महत्व है. जम्मू के भगत छज्जू राम जी जैसे कई राजनेताओं के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है. अब तो बहुत राजनेता हैं. जो काम के हैं उनके बारे में अधिक लिखा जाएगा. केंद्र में शिक्षा राज्य मंत्री रहे कैलाश मेघवाल की जीवनी एक अच्छा उदाहरण है.

हम यहाँ जितनी देर के लिए इकट्ठा हुए हैं उतनी देर में मेघों का सारा इतिहास नहीं कहा जा सकता. इसे आप उस इतिहास की हेडलाइन्स समझ कर संतोष करें.

निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि मेघों की चमक कभी कम नहीं होती. आज भी वैसी है जैसी पहले थी. आज वे पहले से अधिक प्रकाशित है. वे अन्य के साथ मिला कर देश की प्रगति में अपना योगदान दे रहे हैं. आने वाले समय में उनकी भूमिका अधिक होगी.

अंत में बस इतना ही कि अपने पिछले इतिहास को थोड़ा-सा जान लीजिए जो आपका-सा उजला भले न हो, लेकिन अपने आज को सँवारिए और भविष्य बनाइए जो आपका है.

जय मेघ, जय भारत.

भारत भूषण भगत

चंडीगढ़.
Also see Seminar-2

 

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