जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ पर एक आलेख पढ़ा जिसमें महाकाव्य के
लक्षणों का उल्लेख था. लिखा था कि महाकाव्य का प्रारंभ ‘ह’ से नहीं होना चाहिए. लेकिन कामायनी की शुरूआत ही
यों है- “हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल
छाँह....” महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों से हट कर मेरा मन महाकाव्य की आधुनिक परिभाषा में झाँकने लगा.
हमारे दो प्रमुख महाकाव्य हैं- ‘रामायण’ और ‘महाभारत’. इन्हें कइयों ने कई तरह से
लिखा. 'शोले' के लेखक सलीम-जावेद के फिल्मी कथानकों में महाभारत भरा हुआ है, गब्बर सिंह ऐसा कह गया है.
हमारे अन्य महाकाव्यों में भी महाराजाओं की कहानियाँ हैं. आज के लोकतंत्र-गणतंत्र में महाराजा का
अर्थ है अकूत धन, बड़े युद्ध, सेनाएँ,
अर्थतंत्र को नियंत्रित करता है, लोगों को पुरस्कृत-दंडित करता है, न्याय करता है,
न्याय की परिभाषा भी लिखवाता है, अपने कर्मों को धर्म के अंतर्गत लाने के तरीके जानता
है, संक्षेप में धर्म पर शासन करता है और धनापेक्षी विद्वानों का लेखन अपने पक्ष
में मोड़ता है. इस प्रक्रिया में उसका व्यक्तित्व इतना ग्लैमर पा जाता है कि
प्रजा उसकी कमज़ोरियों, ग़लतियों या कमियों की बात सोचने से भी घबराने लगती है. महाकाव्य उसी के इर्द-गिर्द रचे जाते हैं. यूरोप में भी ऐसा ही हुआ.
प्रत्येक युग में नायक राजा के साथ प्रजा पूँछ की तरह होती है. मान लिया जाता है कि राजा का खून खून होता है और उसकी पूँछ का खून पानी और कि पूँछ को दर्द नहीं होता. क्या प्रजा या आम आदमी का कोई युद्ध या संघर्ष नहीं
होता? अवश्य होता है- उसकी अपनी
प्रतिदिन की आवश्यकताओं और अभावों के साथ. उसका यह महायुद्ध अंतःकरण में चलता है. वह तभी दिखता है जब कबीर उस आदमी के कष्टों को गाते हैं और उसकी मुक्ति की बात भी करते हैं. आह! या मुंशी प्रेमचंद
उसे कष्ट में नाचते हुए चित्रित करते हैं. उफ़! वह भी महाकाव्य का रस देने लगता है.
जहाँ तक छवियों का सवाल है हमारे महाकाव्यों के हीरो राम और कृष्ण काले रंग के हैं. अधिकतर भारतीय काले-भूरे हैं. अतः महाकाव्य के नए लक्षण लिखने की दरकार है. इससे यूरोपीय महाकाव्यों से बेहतर तुलना हो सकेगी.
कच्चा-पक्का ही सही एक अन्य निष्कर्ष यह है कि जब महाकाव्यों में आम आदमी की पीड़ा की उपेक्षा बहुत देर तक होती है तब महाकाव्यों की कथाओं पर प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं और लोकतांत्रिक प्रणालियाँ शक्ति पाने लगती हैं. लेकिन परिवर्तन अचानक लागू नहीं हो जाता. शासक दल और शासक परिवार लोकतंत्र में मनमानी करते हैं. यदि वे आम आदमी का कष्ट कम करने के लिए कार्य करें तो ठीक अन्यथा प्रकृति की शक्तियाँ आम आदमी के हित में सक्रिय हो जाती हैं. महाकाव्य का वास्तविक नायक तो आम आदमी का दर्द ही है जिसे जनमानस प्रतिदिन जपता है.
जहाँ तक छवियों का सवाल है हमारे महाकाव्यों के हीरो राम और कृष्ण काले रंग के हैं. अधिकतर भारतीय काले-भूरे हैं. अतः महाकाव्य के नए लक्षण लिखने की दरकार है. इससे यूरोपीय महाकाव्यों से बेहतर तुलना हो सकेगी.
कच्चा-पक्का ही सही एक अन्य निष्कर्ष यह है कि जब महाकाव्यों में आम आदमी की पीड़ा की उपेक्षा बहुत देर तक होती है तब महाकाव्यों की कथाओं पर प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं और लोकतांत्रिक प्रणालियाँ शक्ति पाने लगती हैं. लेकिन परिवर्तन अचानक लागू नहीं हो जाता. शासक दल और शासक परिवार लोकतंत्र में मनमानी करते हैं. यदि वे आम आदमी का कष्ट कम करने के लिए कार्य करें तो ठीक अन्यथा प्रकृति की शक्तियाँ आम आदमी के हित में सक्रिय हो जाती हैं. महाकाव्य का वास्तविक नायक तो आम आदमी का दर्द ही है जिसे जनमानस प्रतिदिन जपता है.
सत्य तो यही है सर जी ! पर रामायण और महाभारत से बेजोड़ - कोई ग्रन्थ.... आज तक आया ही नहीं ! हम काले है तो क्या हुआ दिल वाले है ! बधाई सर जी !
ReplyDeleteआपके बताए गाने के साथ मैंने दो लटके लगा लिए हैं :))
Deleteअच्छा लगा आपको पढकर। धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद, गिरिजेश जी.
Deleteआपने जो तर्क और तथ्य प्रस्तुत किया है उससे तो सचमुच लगने लगा है कि महाकाव्यों को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है।
ReplyDeleteऐसे मामलों को लोकतान्त्रिक रार की सही संज्ञा दी है आपने.
ReplyDelete"ह" से प्रारंभ होने या न होने के बजाय महाकाव्य का समाजोपयोगी होना तथा सुगमता से ग्राह्य होना अधिक आवश्यक है और इसी में इसकी सार्थकता छिपी होती है.
महाकाव्य पर सार्थक चिंतन. स्वागत.
ReplyDeleteaccha laga padhkar
ReplyDeleteek vicharniya post
मैं तो आने वाले समय की बात सोच कर परेशान हो जाती हूँ जब हमारी आने वाली पीढ़ी के हाथ ' लालू-चालीसा ' मायावती-चालीसा ' लगे और वो भी किसी काव्य के नायक की तरह स्थापित हो जाए . मतलब भाट-चारणों की जमात इनका गुणगान स्वर्णाक्षरों में लिख रखे हैं..वैसे आपके विश्लेषण का प्रत्येक दृष्टिकोण आकर्षित करता है..
ReplyDeleteभूषण सर ,
ReplyDeleteआम आदमी के दर्द को बहुत सही तरीके से परिभाषित किया है आपने। नायक अपने आप में व्यस्त और त्रस्त दिखयी देते हैं। वे आम आदमी के जीवन द्वन्द, अंतर्द्वंद और व्यथा से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। निसंदेह अब काव्य को पुनः परिभाषित करने की ज़रुरत है।
बहुत सुन्दर. "अपने कर्मों को धर्म के अंतर्गत लाने के तरीके जानता है, संक्षेप में धर्म पर शासन करता है और धनापेक्षी विद्वानों का लेखन अपने पक्ष में मोड़ता है" यह तो स्थापित सत्य है.पराकाष्टा तो तब दिखाई देती है जब वही दीन हीन अपने शोषकों की जयजयकार करते जुलूस का हिस्सा बना दिया जाता है.
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