गुलाम अली की हंगामा ग़ज़ल ‘हंगामा है क्यों बरपा’ का शायर कौन है? इसे लिखने वाला कोई इश्किया-पियक्कड़ शायर नहीं बल्कि जनाब सैयद हुसैन हैं जिनका जन्म सन् 1846 में और मृत्यु सन् 1921 में हुई लेकिन वे ज़िंदा है और हमारे बीच हैं. पियक्कड़ों के पक्ष में ग़ज़ल कहने वाले रिटायर्ड सेशन जज सैयद
हुसैन-उर्फ़-अक़बर ‘इलाहाबादी’ आप हैं जिनसे मैं मुख़ातिब हूँ. बैठिए साहब.
आपकी की उँगलियाँ समाज की नब्ज़ पर रहीं. मुहज़्ज़ब (सभ्य) होने का जो अर्थ आपने सामने देखा उसे अब ‘सामाजिक समस्याओं’ के तौर पर पिछले पचास साल से
कालेजों में पढ़ाया जा रहा है. कम्पीटिशन और दौड़-भाग के माहौल में पिसते जिस जीवन
को हम सभ्यता का विकास मानते हैं उसे आपने दो पंक्तियों
में कह दिया. यह देखो आप ही ने लिखा है-
हुए इस क़दर मुहज़्ज़ब कभी घर का न मुँह देखा
जी सर, इक्कीसवीं सदी
आते-आते हम अस्पताल में भर्ती होने के लिए हेल्थ इंश्योरेंस के नाम से पैसे जोड़ने लगे हैं. अब घर में
मरना बदनसीबी हो चुका है. यह आज की हक़ीक़त है.
महिलाओं के सशक्तीकरण के उन्नत बीज आपने अपने समय में देख लिए थे. आपका तैयार किया
दस्तावेज़ आप ही की नज़्र है-
बेपर्दा नज़र आईं जो
चन्द बीबियाँ
देखिए न, ज़माना महसूस करता है कि अक़्ल पे सदियों से कुछ पड़ा है.
कभी “हट, क्लर्क कहीं का” एक चुभने वाली गाली थी. लेकिन
आज 'सरकारी क्लर्क' ख़ानदानी
चीज़ है. सुरक्षित नौकरी, बिना काम वेतन और ‘ऊपर की कमाई’. एमबीए वाली हाई-फाई नौकरियाँ ही अपने
इकलौते भाई 'सरकारी क्लर्क' को
हेय दृष्टि से देखती हैं. आपने कहा भी है–
चार दिन की ज़िंदगी
है कोफ़्त (कुढ़न) से क्या फायदा
सरकारी नौकर के लिए खुश रहने के सभी कारण आपने दे दिए हैं. वह काफी
फूल चुका है. उधर प्राइवेट सैक्टर और औद्योगीकरण में दिख रही समता आधारित सामाजिक व्यवस्था पर
आप फरमा गए-
हम आपके फ़न के गाहक
हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सर, सर, सर!!! पकड़ा आपने चतुर वर्ण व्यवस्था को. सोशियोलोजी पर आपका क़र्ज़ हमेशा बाकी रहेगा.
विकासवाद के सिद्धांत में
डारून (डार्विन) द्वारा चंचल बुद्धि बंदरों को फिट करना आपको या मुझे कभी जँचा ही नहीं. हमारा सवाल साझा और सीधा है. सभी बंदर आदमी
क्यों नहीं बने? जिसमें आदमी बनने की संभावना थी वह आदमी ही तो ठहरा न? हमारे मूरिस (पूर्वज) बंदर हुए तो
यह विकासवाद न हुआ इल्ज़ाम हो गया. आपने
एक फैसले में कहा है-
'डारून साहब हकीकत
से निहायत दूर थे,
शुक्रिया जज साहब. ऐसा फैसला आप ही से मुमकिन था. पीने के आप कभी
शौकीन नहीं रहे. लेकिन आपकी महफिल में चाय तो चल ही सकती है. लीजिए.
लीडरों के बारे में देश की राय आजकल अच्छी नहीं. कभी कोई भला ज़माना
रहा होगा जब लीडर अच्छे थे. अब तो हर शाख़ पर बैठे हैं. आप ही ने बताया था-
कौम के ग़म में डिनर
खाते हैं हुक्काम के साथ
गाँधी के ज़माने का आपका यह डेढ़ सौ साल पुराना शे'र पढ़ कर दिल बैठा जा रहा है कि हम हमेशा से ही ऐसे
लीडरों की रहनुमाई में रहे हैं और ख़ुदा ने हमें पनाह देना मुनासिब नहीं समझा.
लीडर देश को खा गए और आप भी फ़रमा गए-
थी
शबे-तारीक (अंधेरी रात), चोर आए, जो कुछ था ले गए
सही है हुज़ूर, आप खाँसते रहे हैं. हम तो भौंकते हैं और चोर मुस्करा कर चल देता है. चलिए, छोड़िए. चलते हैं और कुछ
देर जंतर-मंतर पर बैठ कर नए ज़माने की हवा खा आते हैं.
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार आपका
ReplyDeleteआपका आभार.
DeleteAmrita Tanmay ✆ to me
ReplyDeleteहुजुर ! ये नाचीज़ तो आपके फन की कायल है..क्या नजर पायी है..अंदाज़े-बयाँ तो निराली है..
प्रोत्साहन के लिए आपका बहुत-बहुत आभार.
Deleteट्यूब लाइट देर से जली. सारे क्रेडिट के हक़दार इलाहाबादी हैं.
Deleteध्यान से पढता हूँ जल्द ही।
ReplyDeleteइतनी ढेर सी जानकारी के लिए आभार आपका ...
ReplyDeleteसमाज में जो आज है , वही पहले भी था जो हमारे चिन्तक और विचारक अपने शब्दों में बयां कर गए हैं। लेकिन हम तो श्री कृष्ण की एक बात ही दोहरायेंगे...."जिंदगी एक संघर्ष है, ---लड़ते रहो"...चाहे खांस कर चाहे भौंक कर.......लेकिन चोरों को देखकर चुप न रहो.............
ReplyDeleteचुन चुन कर शेर लाये हैं ॥बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeletePallavi saxena ✆ to me
ReplyDeleteसही में अंकल आज तो चुन-चुन कर शेर लाये हैं आप, बहुत बढ़िया प्रभावशाली रचना।
pahle bhi ek din ayee thi...apki jasusi vali post padhi thi aur comment bhi likha tha magar dikhayee nahin diya....khair....
ReplyDeleteaaj ka topic to bahut nirala hai....bahut achcha !
Bharat Bhushan ji Punjabi vehda aapko hamesha yaad karta hai aur karta rahega .. .....
hardeep
P.N. Subramanian ✆ to me
ReplyDeleteनज़ाकत लिए कुछ अलहिदा अंदाज़.