(फेसबुक पर बालेंदु स्वामी का यह नोट बहुत अच्छा लगा. इस लिए इसे यहाँ रख लिया है)
अधिकांश लोग धर्म, अन्धविश्वास और निरर्थक मान्यताओं से केवल इसलिए चिपके रहते हैं और उन आस्थाओं पर शंका होते हुए भी उन्हें इसलिए रिफ्यूज नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें लगता है कि पुराने समय से चली आ रहीं यह रूढ़ परम्पराएँ तथा विश्वास उनके बाप दादाओं की देन हैं और उन्हें ठुकराकर वो अपने पूर्वजों को भला कैसे मूर्ख व गलत साबित कर दें!
यदि गौर करेंगे तो पाएंगे कि वस्तुतः यही धर्म है जो कि बदलाव और विकास नहीं चाहता! आप गीता और कुरान को बदल नहीं सकते! इसीलिये धर्म लोकतांत्रिक नहीं बल्कि तानाशाही और सामन्तवादी है! इसीलिये धर्म ग्राह्य नहीं त्याज्य है और इसीलिए वह शोषण का साधन भी है! धर्म के साथ दिक्कत यही है कि जो उसकी किताबों में लिखा है वही अंतिम सत्य है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती और यही बात विज्ञान से पूर्णतः विपरीत है, इसीलिये धर्म और विज्ञान कभी एक साथ नहीं चल सकते! हालाँकि धार्मिक लोगों के पास धर्म, ईश्वर, आस्था, अन्धविश्वास और शास्त्रों को वैज्ञानिक बताने के अलावा और कोई चारा नहीं होता, जब कि ईश्वर सबसे बड़ी अवैज्ञानिक अवधारणा तथा अन्धविश्वास है! कई बार तो कुछ थोड़ा बहुत विचारवान आस्तिक अन्दर अपने दिल में जानते हैं कि यह गलत, मूर्खतापूर्ण और अविश्वसनीय है परन्तु उनमें इतना साहस नहीं होता (या फिर संकोच होता है) कि वो जिन्हें प्रेम और सम्मान करते हैं (उनके पूर्वज) या स्वयं को मूर्ख अथवा गलत कैसे साबित सकें! और वो फिर भेड़ की तरह लकीर पीटते चले जाते हैं!
यह निष्कर्ष न जाने कितने लोगों से हुयी मेरी बातचीत और मानव मनोविज्ञान पर आधारित है! मैं कहना यह चाहता हूँ कि विज्ञान की हर नयी खोज कुछ पुरानी आस्थाओं, सिद्धांतों और नजरियों को ख़ारिज कर देती है और एक नए प्रकाश के साथ आगे बढ़ने के लिए विकास के नए रास्ते खोलती है जबकि धर्म इसके विपरीत आपकी आस्था को पुराने के साथ ही चिपके रहने का दुराग्रह करता है!
मैं भी उसी रास्ते से चलकर आया हूँ, उसी गंदगी से निकल कर आया हूँ! मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं गलत था यह भी मानता हूँ कि मैं मूर्ख था! मैं भी अपने पूर्वजों को प्रेम और सम्मान करता हूँ परन्तु मुझे यह भी स्वीकार करना होगा कि या तो उन्हें सत्य का ज्ञान नहीं था या फिर वो मूर्ख बन गए अथवा मूर्ख बना रहे थे! यह तो ठीक है कि वो मेरे बड़े थे, अपने थे, पूर्वज थे तो मैं उन्हें प्रेम करूँ परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि मैं उनकी हर उलजुलूल (शास्त्रों में लिखी) बात का अनुमोदन या अनुगमन भी करूँ!
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