पंजाब में चुनाव आने वाले हैं. मेघ भगतों के भीतर राजनीति कुलबुलाने लगी है. हर कोई रास्ता ढूंढ रहा है कि कैसे मेघ भगतों की एकता कार्य करे और उसको या उसके किसी पसंदीदा आदमी को किसी बड़ी पार्टी का टिकट मिले. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेघ भगतों ने आज तक अपने किसी लीडर को सलीके से आगे भेजा हो या किसी नेता के हक़ में एकता दिखाई हो या कभी हाइवे या रेल मार्ग रोकने की धमकी दी हो.
जैसा कि मैं कहता रहता हूँ शुद्धिकरण के बाद मेघ भगतों में सियासी इच्छाएँ एकदम बढ़ गई थीं और उन्होंने म्युनिसिपल कमेटियों में भागीदारी की मांग उठा दी जिससे आर्यसमाजी परेशान हो उठे थे. अब तो समय काफी बदल गया है. सन 1937 में एडवकेट हंसराज भगत अविभाजित पंजाब की विधान परिषद के सदस्य बने थे. उसके बाद पंजाब से दो-चार मेघ भगत विधान सभा/परिषद में पहुँचे हैं.
पिछले चुनाव में जीते हुए प्रतिनिधि अचानक आगामी चुनाव के मौसम में सक्रिय हो कर थोड़े बहुत विकास कार्यों में, कबीर मंदिरों/धार्मिक स्थानों में, सार्वजनिक स्थानों के निर्माण में पैसा लगाने लगते हैं ताकि पिछले 4 वर्षों में जो वे नहीं करना चाहते थे या जो उन्होंने नहीं किया उसे वे आखिरी वर्ष में जल्दी से शुरू कर दें ताकि जनता उनको वोट दे दे. दूसरी ओर हारी हुई पार्टियों के लोग फिर से लोगों के साथ जुड़ने का प्रयास करने लगते हैं जैसे लोग उनकी बात को तुरत मानकर कोई बड़ा बदलाव कर देंगे या पिछली पार्टी को उठा कर पटक देंगे. लगातार काम करने में किसी का यकीन है, ऐसा दिखता नहीं है. अब लगने लगा है कि मेघ भगत बासी हो चुकी ऐसी राजनीति से ऊब चुके हैं. नेता टाइप और अनुभवी लोग इस बात को जानते/समझते हैं कि मेघ भगतों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा या मांग बहुत छोटी है और वे बहुत आगे बढ़ कर राजनीति के क्षेत्र में कोई धावा बोलने वाले नहीं हैं (काश मेरा ऐसा कहना गलत हो). इसके कारण भी बहुत हैं. कमोबेश यह एक संतुष्ट-सा समाज है जिसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी और दिहाड़ी से मतलब है. उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए सत्ता द्वारा निर्मित नीतियाँ कितनी महत्वपूर्ण होती हैं उसके प्रति वो अक्सर उदासीन होता है. यह कोई इल्जाम नहीं है यह समुदाय की सियासी समझ की कमी है जो अक्सर देखी गई है और माना जाता है यह समाज कोई बड़ी उथल-पुथल करने के लिए बना ही नहीं है.
आने वाली पीढ़ी से बहुत उम्मीदें हैं जो यह बात समझ रही है कि राष्ट्रीय संसाधनों (resources) पर जो हक़ वंचित समाजों का था उसे वोट की ताकत से वापस लेने की जरूरत है. इसके साथ नई पीढ़ी को यह भी समझने की ज़रूरत पड़ेगी कि चुनाव के दिनों में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (liberalization, privatization and globalization) के 'मेगा मुद्दे' गायब क्यों हो जाते हैं और क्यों धर्म, जाति, समाज, हिंदुत्व, इस्लाम वगैरा मुद्दे बन जाते हैं और आखिर हम क्यों उन्हें पकड़ कर बैठ जाते हैं? क्यों रोज़गार, शिक्षा, सेहत, चिकित्सा आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे चुनाव की गर्मी में भाप हो जाते हैं? हमारा चुनावी एजेंडा हम तय नहीं करते तो हम किसका एजेंडा ढोते फिर रहे हैं? अपना एजेंडा आगे बढ़ाने की हालत में आख़िर हम कब आएँगे?
Study Link : Agenda Setting Theory
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