ग़रीब
का दिमाग़ स्वभाविक रूप से
ऐसा बन जाता है कि उसमें
'ईश्वर-परमेश्वर'
नाम
की खरपतवार अपने आप
फैलने लगती है.
उसे
रोज़गार देने वाला चाहता भी यही है.
इसकी
वजह यह है कि उसे जो भी रोशनी नजर आती है वह इसी विचार
में होती है कि कोई तो उसका ईश्वर,
मालिक,
स्वामी, रोज़गारदाता वगैरा है जो कभी-न-कभी
उसकी सुनेगा और उसे सहारा दे
कर बेहतर जीवन देगा.
उसी
विचार को बल देते हुए वह जीवन
काटता है.
कुछ
मिला तो ठीक,
नहीं
तो न सही जबकि उसे यह समझने की
ज़रूरत होती है कि उसके हालात
को सरकारी नीतियाँ बदलती हैं
और उस बदलाव का रास्ता राजनीति
से हो कर ग़ुज़रता है.
कठिन जीवन में आँखें बंद करके अपनी ही सोच से अपने ही विचारों में मिलने वाला आध्यात्मिक आनंद उसे सुकून देता है. वंचित व्यक्ति ईश्वर, परमेश्वर, आध्यात्मिकता, आत्मा-परमात्मा के विचारों में खुशी हासिल करता है बिना जाने कि उनका वजूद है भी या नहीं. यही वजह है कि गरीब तबकों के लोग अधिक आस्थावान हो जाते हैं. संतुष्ट रहना उसकी मजबूरी है- “रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी मत ललचावे जी.” लेकिन यदि कोई बेहतर जीवन की कामना को लालच और 'औक़ात से ज़्यादा' की केटेगरी में डाले तो उसे धूर्त ही समझना चाहिए. अब आगे चलते हैं.
मेघ
भगत सदियों से अपने पुरखों,
वड-वडेरों
की मान्यता/पूजा
के अतिरिक्त भगती और रुहानियत के कायल रहे
हैं जिसका सीधा रिश्ता उनकी
गरीबी से रहा.
आर्य
समाजियों ने शुद्धिकरण करके
उन्हें भगत बना लिया.
तो चलो
जी,
हम
'मेघ' से 'भगत' हो गए.
भगती के रास्ते की एक विशेषता यह है कि
वह गरीबी दूर करने का तरीका
नहीं बताता. उसका काम यह बताना है कि गरीबी में कैसे रहा
जाए.
फिर जहाँ तक माँगने की आदत का सवाल है कबीर ने साफ़ कहा है- "माँगन गए सो मर गए मत कोई माँगो भीख, माँगन से मरना भला यह सत्गुर की सीख."
अद्भुत कबीर |
चौदहवीं
शताब्दी के कबीर,
रविदास
जैसे संतों ने ग़रीब तबकों
को भगती भाव में उतना नहीं
डुबोया जितना उन्हें सामाजिक
चेतना की ओर मोड़ा.
यह
उन संतों का बोया हुआ क्रांति का बीज था.
मेघों
और अन्य ग़रीब जातियों ने जो संतों का भक्तिमार्ग अपनाया
और ख़ुद को उनका अनुयायी बताया
उसे संतों की उस सामाजिक जागृति के विकसित
लक्षण के तौर पर देखना चाहिए.
बहुत
से मेघ अब ख़ुद को कबीरपंथी
लिखना पसंद करते हैं.
यहाँ
समझने की बात है कि पंद्रहवीं
शताब्दी के कबीर को मेघों ने 20वीं
शताब्दी में बड़े पैमाने पर अपनाया. सुना
है 15
अगस्त,
1947 (जो
पंजाब के मेघ भगतों के आधुनिक
इतिहास की कट-ऑफ़
डेट है)
के
बाद पठानकोट और जम्मू के इलाकों
में मेघों ने कबीर का
प्रकाश उत्सव मनाना शुरू किया और कबीर मंदिरों बनाने के काम
में तेज़ी आई.
इन
दिनों पंजाब और जम्मू में अनेक
कबीर मंदिर और उनकी कमेटियाँ
बनीं हुई हैं जिनमें परस्पर
प्रतियोगिता है. सियासी
धड़ेबंदियों उन पर हावी हैं
और क्यों न हों आख़िर उन्हें
कोई बना-बनाया
वोट बैंक अपने आक़ा को दिखाना
होता है.
'धन्
कबीर'
और
'जय
कबीर' का जयकारा
इस
वोट बैंक की धार्मिक-राजनीतिक पहचान बन सकती है.
इसी सिलसिले में सोशल
मीडिया पर कबीर की ऐसी वाणी
परोसी जाने लगी है जो भक्तिधारा की नुमाइंदगी करती है.
सामाजिक क्रांति लाने वाली कबीर की वाणी
वहाँ शायद ही दिखाई दे. सियासतदानों की पूरी
कोशिश मेघों को अपना भक्त और वोट
बैंक बता कर पेश करने की है.
मेघ
भगत चाहे राधास्वामीमत में
हों,
किसी
डेरे-गुरु
को मानने लगे हों या सनातनी
या आर्यसमाजी हो गए हों,
धर्म ग्रंथों का अखंडपाठ या जागरण करवाते हों,
हैं
वो भगत ही.
उनकी
अपनी धार्मिक और राजनीतिक
ताक़त दूर तक नहीं दिखती.
कुछ
कबीर मंदिरों में ज़रूरतमंद
बच्चों के लिए कंप्यूटर या
अन्य प्रकार शिक्षा और ट्रेनिंग का प्रबंध किया गया है.
कबीर
मंदिरों का यह सबसे खूबसूरत
इस्तेमाल है जिसका सीधा फ़ायदा
समाज को पहुँचता है.
उधर सवालिया निशानों से घिरे
'ईश्वर-परमेश्वर'
या 'देवी-देवताओं'
ने वंचित समाजों को कोई फ़ायदा
नहीं पहुँचाया,
उनकी
सामाजिक स्थिति को तो बिल्कुल ही
नहीं बदला.
तीन
सौ वर्ष पहले दुनिया के कई
देशों ने विज्ञान को महत्व
देना शुरू किया.
वे देश बहुत तरक्की कर चुके हैं.
इसे
देखते हुए भारतीय संविधान की
प्रस्तावना में वैज्ञानिक
दृष्टिकोण (temperament) यानि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात की गई है.
कबीर भी बुद्ध और उनके जैसे वैज्ञानिक सोच रखने वाले
लोगों की तरह तर्कशील
और विवेकशील थे.
ऐसे
में उनके मंदिरों या उनसे होने
वाली कमाई का शिक्षा और वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए इस्तेमाल करना समाज के लिए अधिक लाभकारी होगा.
मेघ
समाज ने कबीर की 'भक्ति-वाणी'
के अपने कई प्रचारक पैदा कर
लिए हैं. देखा-देखी अन्य समाजों
के लोग भी मेघों में आ कर वही धंधा करने लगे हैं.
जब
धर्म एक व्यापार के तौर पर जाना जाता है तो उसके नियम सीखने
चाहिएँ.
व्यापारिक
घुसपैठ, व्यापारिक तोड़-फोड़ और व्यापारिक हमलों के ख़तरे पहचानने पड़ेंगे.
जानने
की बात है कि ईसाइयत और इस्लाम
के मानने वालों के बाद अब ऐसे
लोगों की गिनती बहुत ज़्यादा है जो
वैज्ञानिक नज़रिए से लैस
हैं.
वे
दुनिया की आबादी का लगभग एक
तिहाई हैं और उनकी गिनती
तेज़ी से बढ़ रही है.
सवाल
बनता है कि हम भगत या कबीरपंथी
कहलाने वाले भोले-भाले भगत लोग भक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त दे कर विज्ञान की दुनिया
में पिछड़ तो नहीं रहे हैं?
हमारा भगतपना तरक्की के रास्ते
में देरी की वजह तो नहीं बन रहा है?
(आपके
पास आर्थिक और मानव संसाधन
बहुत थोड़े हैं.
ऐसे में
उनका
उपयोग आप कैसे करना चाहेंगे,
सोचिएगा.)
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