"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


16 October 2016

My Megh, Your Megh - मेरा मेघ, तेरा मेघ

स्यालकोट से पंजाब में आकर बसे मेघ भगतों को बहुत शिकायत रही है कि अब तक लिखे उनके पुराने इतिहास में ऐसी कोई बात नहीं बताई गई जिस पर आज की पीढ़ी नाज़ कर सके. मैं इस इल्ज़ाम के निशाने पर हूँ. उनकी बात में बहस की एक त्यौरी है लेकिन उसकी लकीरें इसलिए गहरी नहीं हैं क्योंकि किसी समुदाय का इतिहास अचानक शुरू हो कर अचानक कहीं समाप्त नहीं होता. इस बात को यों समझेें कि आप अपना इतिहास नहीं जानते तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे लोग भी आपका इतिहास नहीं जानते. हमें अपने बारे में जो लिखा हुआ मिला है वह अधिकतर दूसरों का ही लिखा हुआ है जिसे मिटाना मुश्किल है. वो नहीं तो आप कुछ अपना लिखिए जो आपको ठीक-ठाक सा लगे.

गरीब कौमों का पिछला इतिहास उनकी गरीबी में से ख़ुद झांकता है. भारतीय संविधान से मिले नुमाइंदगी के अधिकार (आरक्षण, reservation) से हुई उनकी आज की तरक्की में उनका बदलता हुआ मौजूदा इतिहास है और तरक्की करने की उनकी खुद की ताक़त जो उनके इतिहास का भविष्य हैं. इतिहास का कोई एक रंग-रूप नहीं होता.

चुनावी सियासत ने साफ कर दिया है कि जात-पात एक सच्चाई है जिसका इस्तेमाल करने से वे बाज़ नहीं आएँगे और कि वह समाज का एक टिकाऊ अंग है. जात-पात से अनजान बड़े होते हमारे मासूम बच्चे जब अचानक कहीं इस सच्चाई से रूबरू होते हैं तो उनको लगी चोट और उलझन का कोई अंत नहीं होता कि उनके साथ समाज का एक हिस्सा वैसा गंदा व्यवहार क्यों करता है? उनकी चोट का क्या इलाज है? इलाज यह है कि उन्हें पिछला इतिहास जानने दीजिए और उन्हें सिखाइए कि पहले ऐसा होता था लेकिन अब हमें वैसा रवैया मंज़ूर नहीं है. उन्हें ताकत दीजिए कि वे ऐसे हालातों का मुकाबला करें जो उनकी ख़ुद्दारी पर लगातार चोट करते हैं. दूसरे, उनके लिए ऐसे साहित्य की रचना करते रहें जिससे उनमें आत्मगौरव का सूरज उगता रहे. यह बहुत ज़रूरी है. लेकिन यह कार्य करेगा कौन? बाहर से आकर कोई उनके 'आत्मगौरवं' या 'स्वाभिमानं' की बात नहीं करेगा. यह कार्य आपको ख़ुद करना होगा. इसके लिए आपको जानकार और लगन वाले लोगों की ज़रूरत होगी. उन्हें ढूँढिए. मुझे तो उनसे ही अधिक उम्मीद है जो आपका माज़ी ढूँढ लाए हैं. उन्हें लिखने की आदत भी है और वे बेहतर जानते हैं कि करना क्या है. या फिर यह उम्मीद उनसे की जा सकती है जो ढ़े-लिखे और प्रशिक्षित हैं और जिनकी जेब में चार पैसे भी हैं.

मैं यहाँ उनके नाम नहीं लिखना चाहता जिनसे मैंने प्रार्थना की थी कि वे मेघ समाज की कामयाबियों की कहानियाँ लिखें या उनके इतिहास के चमकदार पन्नों को अलग करके उनका संग्रह तैयार करें. नहीं जानता यदि उनमें से किसी ने कुछ सामग्री तैयार की है. जिन्होंने कुछ लिखा और मेरी जानकारी में आया वह इस ब्लॉग का हिस्सा बन चुका है.

जिन्हें अपनी 'पुरानी कहानी' अच्छी नहीं लगती उनकी भी ज़िम्मेदारी बनती है कि कम-से-कम वे तो अपनी 'नई कहानी' लिखें. भावी पीढ़ियाँ हमारी कीमत इस बात से नहीं लगाएँगी कि हमने एक दूसरे को कितना भला-बुरा (नकारात्मक) कहा बल्कि इस बात से उन्हें मदद मिलेगी कि हमने अच्छा क्या किया.

("जो अपना इतिहास नहीं जानते वे अपना

 इतिहास बना भी नहीं सकते." - डॉ. अंबेडकर

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