इंसान
जब अपने मूल को ढूँढने निकलता
है तो उसे सृष्टि के प्रारंभिक
प्राणियों जैसे अमीबा, Comb Jelly, मछली और फिर बंदर में अपना
अतीत जल्दी से न दिखता है न
हज़म होता है.
फिर
वो पूछता है कि भाई हम किस मानव स्वरूप पुरुष
की संतान हैं जिसे हम अपना
पहला पुरुष कह सकें.
यही
'पहला'
सबसे
बड़ी मुसीबत है उनके लिए जो
सवाल पूछते हैं.
फिर
भी वैज्ञानिकों ने और अन्य
जानकार लोगों ने मानवशास्त्र-विज्ञान
(anthropology),
भाषा-विज्ञान
(philology)
आदि
के आधार पर बहुत सी जानकारी
दी है.
'पहला'
तो
नहीं मिलता लेकिन उसकी संतानों
के कदमों के निशान
पाए जाते हैं कि वे कहाँ से
चले होंगे और कहाँ-कहाँ
गए और इस समय कहाँ-कहाँ
हैं.
तो
हे मेघजन!
आपके
लिए कुछ संदर्भ हाज़िर हैं
इससे आपको कुछ तसल्ली मिलेगी.
मेघवंश
के इतिहासकार ताराराम जी ने
हाल ही में श्री
मारवाड़ मेघवाल सेवा संस्थान,
शाखा
-
देसूरी
के घानेराव में दिनांक 03
जनवरी
2017
को
एक उद्बोधन दिया था जिसकी एक
प्रति उन्होंने अग्रिम रूप
से मुझे भेजने की कृपा की थी.
उस
भाषण का एक अंश आपके मतलब का
हो सकता है यदि आप अपनी मानवशास्त्र
सम्मत (एंथ्रोपोलोजिकल)
पहचान
में रुचि रखते हैं.
"किसी
समय मारवाड़ और महाराष्ट्र एक
ही हुआ करता था और यह ध्यान
देने वाली बात है कि इस क्षेत्र
का नाम ‘मारवाड़’ और इससे इतर
प्रदेश का नाम 'महाराष्ट्र' इन
जगहों पर निवास करने वाले एक
ही तरह के ‘म्हार’ वा ‘मेग’
लोगों के कारण पड़ा था. कोल-द्रविड़
मूल के ‘मेग’ शब्द के अर्थ
जूना,
पुराना, प्राचीन, फैलना
या पसारना, बादल, मुख्य
या प्रमुख आदि कई होते है. यह
भी ध्यान देने वाली बात है कि
‘महार’ और ‘मेग’ शब्द की
व्युत्पत्ति धातु भी एक ही
है. म्हारवाड से मारवाड़ और
महार-रटठ
से महाराष्ट्र शब्द बना. वाड
का अर्थ जगह, घेरा
या वाड़ से है और रटठ का अर्थ
राष्ट्र से है. स्पष्ट यह है
कि यह भूमि मेघों और महारों
की भूमि रही है; ऐसा
इसके प्राचीन इतिहास से ज्ञात
होता है. इनसे जुडा हुआ मालवा
और मालानी भी ‘मल्ल’ लोगों
का निवास होने के कारण मालवा
और मालानी कहलाया. ये सब तथ्य
आज जिस संगठन के बैनर-तले
यह कार्यक्रम हो रहा है, उसके
लिहाज से महत्त्वपूर्ण
है, क्योंकि
मारवाड़ की ‘मेघ’ जाति की
उत्पत्ति’ और महाराष्ट्र की
‘म्हार’ नामधारी जाति की
उत्त्पति एक ही प्रजाति से
हुई है. मल्ल, मेग, म्हार
आदि भारत के प्राचीन और मूल
वाशिंदे है. इसमें अब कोई
संशय नहीं रह गया है और वे
कोल-द्रविड़
मूल के है. सिन्धु-घाटी
की प्राचीन सभ्यता के सृजनहारों
में कई इतिहासकारों ने ‘मेगों’
का उल्लेख किया है और हमारा
जो यह प्रदेश है, वह
किसी समय सिंध का ही एक हिस्सा
था. इसलिए यहाँ निवास करने
वाले आज के ‘मेग’ और प्राचीन
काल के ‘मेग’ एक ही परंपरा और
एक ही प्रजाति के है, इसमें
भी कोई संदेह नहीं रह जाता है.
सिन्धु और उसकी सहायक नदियों
के आस-पास
बसने वाले मेगों का उल्लेख
महाभारत आदि ग्रंथों में मद्र
और मल्ल के रूप में और कहीं-कहीं
बाह्लिक के रूप में हुआ है.
विश्व-इतिहास
में इन्हें ‘मेडिटेरेनियन’ के
रूप में भी रखा है और आस्ट्रिक
प्रजाति के साथ वर्णन किया
गया है. आज तक की उपलब्ध जानकारी
से यह स्पष्ट हुआ है कि ये
प्रजातिगत रूप से कोल-द्रविड़
मूल के मंगोलियन प्रजाति से
निकली हुई जातियां है, जो
भारत में वैदिक आर्यों के
आक्रमण से पहले यहाँ बस चुकी थीं. वैदिक आर्यों के और यहाँ
की मेघ आदि जातियों के बीच
500 वर्ष
तक लम्बा संघर्ष चला. समय
बीतते-बीतते
वैदिक-आर्य
सरस्वती नदी के आस-पास
बस गए और उस भू-भाग
पर कब्ज़ा कर लिया, जिसे
उन्होनें आर्यावर्त कहा. मेघ
लोग सतलज, जिसका
पुराना नाम ‘मेगाद्रु’ था
उसके आस-पास
व चेनाब या चंद्रभागा और सिन्धु
की अन्य सहायक नदियों के आस-पास
बस गए. आर्यों के बाद तूरानी,
अरब, मंगोल, शक, हुण
और सिदियन आदि लोगों और प्रजातियों
के आक्रमण भी हुए. आर्य लोग
सरस्वती से विन्ध्य पर्वत तक
विस्तृत हुए, जिसे
उन्होंने ब्रह्मवृत्त नाम
दिया. उसके आगे वे नहीं जा सके
और गंगा नदी व गांगेय-तटों
को अपनी आवास भूमि बनाया. मेग
आदि कोल-द्रविड़
मूल की जातियां हिमालय के
तलहटी-मैदानों
की ओर विस्तृत होती गयी और
सिन्धु से लेकर मेघना व
ब्रह्मपुत्र नदी तक निवासित
हुईं.
अजमेर, पाली, नागौर, जोधपुर
और बाड़मेर होते हुए कच्छ में
जाकर अरब सागर में मिलने वाली
लूनी नदी सिन्धु नदी की सहायक
नदी थी. मेग लोग प्राचीन काल
में इन क्षेत्रों में भी आकर
बस गए."
ताराराम
जी की इन कुछ पंक्तियों की
पृष्ठभूमि में कई संदर्भ
होंगे.
दो
नीचे दे रहा हूँ ताकि समझने
में आसानी रहे.
इन
पर क्लिक करके आप पढ़ सकते
हैं.
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