आत्मगौरव और स्वाभिमान एक दूसरे पर निर्भर हैं लेकिन स्वाभिमान से पहले आत्मगौरव का स्थान है जिसका निर्माण करना पड़ता है. आगे चलकर उसी पर स्वाभिमान का मज़बूत ढांचा खड़ा होता है.
गरीब समुदाय अपने आत्मगौरव की निशानियां वहाँ भी ढूंढते हैं जहाँ उसके मिलने की उम्मीद बहुत कम होती है. लेकिन आत्मगौरव के पायदान चढ़ने के लिए जरूरी नहीं है कि बड़े-बड़े युद्ध जीतने ज़रूरी हों. बुद्ध ने कोई युद्ध नहीं जीता लेकिन दुनिया भर के सभी धर्मों के मूल में कहीं ना कहीं बुद्ध की विचारधारा स्थापित है. जहाँ धर्म और आस्तिकता नहीं भी है वहाँ भी व्यक्ति के विकास के लिए बुद्ध के विचारों का ख़ज़ाना मौजूद है. इससे सिद्ध हो जाता है कि जिन विचारों और विचार-युक्तियों से हम इंसानी जीवन को खूबसूरत बना सकें वो विचार हमारे लिए गर्व की बात हो सकती है. और जब वो गर्व की बात बन जाती है तब वो हमारे आत्मगौरव का आधार बन जाती है. आत्मगौरव एक विचार है और इसके तल में कई अन्य विचारों की अदृष्य धारा बहती रहती है.
कभी किसी समुदाय पर ऐसी परिस्थितियां आ सकती हैं जिससे उसके आत्मगौरव की निशानियां किसी कारण से गुम हो जाएं, उनके शांतिपूर्ण अहं को कुचल दिया जाए, उनकी सभ्यता को नेस्तनाबूद कर दिया जाए या उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को मिटा दिया जाए. यदि उस समुदाय का जहाज़ समय के थपेड़े खाता हुआ अपने जर्जर मस्तूल और फटे हुए पाल के साथ अपनी यात्रा करता रहता है तो मानना चाहिए कि उस समुदाय में कोई ना कोई ऐसा आत्मगौरव और स्वाभिमान है जो उसे चलने की शक्ति देता आ रहा है. यह पाल और मस्तूल और कुछ नहीं, उस समाज या समुदाय के अंदर रचे-बसे ऐसे मानवीय मूल्य (human values) हैं जो जिंदगी नाम की चीज़ को हर हाल में बचाए रखते हैं और उसे खूबसूरत अहसासों से भरते रहते हैं.
आत्मगौरव एक भावात्मक धौंकनी है जो हमारी जीवनी शक्ति को प्राणवान बनाए रखती है. आत्मगौरव स्वाभिमानी मानसिकता का एक स्ट्रक्चर है जिसका निर्माण करना पड़ता है. निर्माण के बाद उसका रखरखाव करना होता है और उसकी रक्षा तो ज़रूरी है ही. देखा गया है कि जो समुदाय आत्मगौरव से ओतप्रोत होते हैं वे स्वतः ही अपने भीतर आत्मविश्वास से भरे हुए जन-समूहों की सृष्टि करते हैं.
अपनी निंदा आप करना बुरी बात है. अपने समुदाय की निंदा करना तो बहुत ही बुरी बात है. यह दूसरों को आपके ख़िलाफ़ बोलने का भरपूर मौका देती है. तुलसीदास ब्राह्मण थे. उन्होंने अपने समुदाय के लोगों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “पूजिए विप्र जदपि गुण हीना, ना पूजिए अन्य गुण ज्ञान प्रवीना”- अर्थात ब्राह्मण में यदि कोई गुण ना भी हो तो भी वह पूजनीय है. दूसरा कोई गुण और ज्ञान में बहुत प्रवीण हो भी तो भी वो पूजनीय नहीं है. ध्यान रहे कि यह बात तुलसीदास ने अपने समुदाय के लिए कही थी. किसके मुँह से कहलवाई इसका भी कोई महत्व नहीं. तुलसीदास अपने समुदाय की प्रशंसा करना जानते थे और उसी सिलसिले में वे अपने समुदाय के लिए ‘राम-चरित-मानस’ जैसी रचना दे गए. आज की स्थिति यह है कि उनका समुदाय ‘राम-चरित-मानस’ को और तुलसी बाबा को अपने सिर पर उठाए-उठाए फिरता है. ये आत्मगौरव की सीढ़ियाँ हैं. गर्व किसका? जो आपका है, अपना है.
गौरव 'गर्व' से जुड़ा शब्द है. गर्व यदि ज़रूरत से अधिक हो जाए, तर्क से परे हो जाए, कारण-परिणाम की सीमाएँ लाँघ जाए या कह लीजिए कि उजड्ड हो जाए तो उसे अहंकार या दुरहंकार मान लिया जाता है. इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि आत्मगौरव दरअसल एक तरह का अपने प्रति, अपनों के प्रति और अपने जीवन मूल्यों के प्रति आदर है जो साधारण भाषा में आत्मसम्मान कहलाता है. इसे अहंकार नहीं कहा जाता. इस आत्मसम्मान में आदमी की अपनी हैसियत, योग्यताएँ, माल-असबाब, पुरखों की शिक्षा, उसके अपने समुदाय और उसके क्षेत्र की परंपराएँ, प्रणालियाँ, त्योहार, नैतिक मूल्य यहाँ तक कि उसके निजी और उसके समुदाय से संबंधित उत्पाद, कलाएँ, पूजा-स्थल, कारीगर, लोक-गीत, लोक-कलाकार, साहित्य, साहित्यकार, रंगकर्मी, भाषा-बोली, बुद्धिजीवी, राजनेता, नौकरशाह, समाज-सेवी आदि बहुत कुछ होता है. इनका विकास कीजिए, इनको समर्थन दीजिए.
आपका आत्मसम्मान कोई यूँ-ही-सी चीज़ नहीं और यूँ ही नहीं बन जाती. यह प्रेम से सजाई गई उस मूर्ति की तरह है जिसे सजाते-सजाते आप अनजाने में उसकी पूजा करने लगने लगते हैं.
No comments:
Post a Comment