"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


24 April 2018

The Illusion of Purification - शुद्धिकरण का छलावा

‘शुद्धिकरण’ शब्द सुनने में कितना ही पवित्र शब्द क्यों न लगे लेकिन जब-जब यह किसी पिछड़े समुदाय के संदर्भ में प्रयोग हुआ है, तब-तब अपमानजनक और शरारतपूर्ण सिद्ध हुआ है. किन्हीं धार्मिक संस्थाओं के हाथों में इसे राजनीतिक औज़ार के रूप में देखा गया है.

मेघ समुदाय के संदर्भ में इसका प्रयोग बीसवीं शताब्दी के शुरू में आर्यसमाज ने अपने ‘शुद्धीकरण’ नामक आंदोलन के दौरान किया था. इसमें आर्यसमाज ने मेघों, डूमों, महाशयों आदि का शुद्धिकरण करने का दावा किया था. शुद्धिकरण का मूल प्रयोजन था मूलनिवासी कबीलों के लोगों को इस्लाम या ईसाईयत की ओर झुकने से रोकना या उनसे बचाते हुए मनुवादी सिस्टम में लाना.

डॉ. ध्यान सिंह ने अपने शोधग्रंथ ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ में आर्यसमाजी तथा अन्य विद्वानों की लिखी किताबों के हवाले से लिखा है कि हज़ारों (तीस हज़ार से छत्तीस हज़ार तक उनकी गिनती बताई जाती है) मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें मनुवादी हिंदू दायरे में लाया गया था. वहां इस्तेमाल किए गए ‘हिंदू’ शब्द के व्यापक अर्थ में स्थिति को तौला जाए तो मेघ पहले भी हिंदू ही थे और कई अन्य हिंदू कबीलों की तरह एक कबीलाई जीवन जी रहे थे. यहाँ "पहले भी हिंदू ही थे" से तात्पर्य यह है कि मुग़लों के समय में सप्तसिंधु क्षेत्र के लोगों को हिंदू कहा गया था. यदि ‘हिंदू’ शब्द को किसी ‘धर्म’ से जोड़ने की बात है तो ‘हिंदू’ शब्द की जगह उसे मनुस्मृति वाला ‘मानव-धर्म’ कहना बेहतर होगा उसे ‘मनुवाद’ के नाम से बेहतर तरीके से व्यक्त किया जाता है.

मेघों के शुद्धिकरण को लेकर एक 80 वर्षीय मेघ प्रो. के.एल. सोत्रा जी से कई बार फोन पर बातचीत हुई. एक आर्यसमाजी की लिखी पुस्तक में छपे फोटोज़ के आधार पर वे कहते हैं कि मेघों के शुद्धिकरण की सच्चाई दरअसल दूसरी है. उनके अनुसार कुल सात-एक परिवारों का शुद्धिकरण किया गया था जो इस्लाम क़बूल कर चुके थे. वे बताते हैं कि मेघों की शिक्षा का प्रबंध आर्यसमाज ने बड़े स्तर पर करने का बीड़ा उठाया था जिससे मेघ समुदाय के सामाजिक जीवन को एक गति मिली. प्रो. सोत्रा के कुछ परिजन आज भी पाकिस्तान में रहते हैं. सोत्रा जी बताते हैं कि उनके परिजनों ने आज तक इस्लाम नहीं अपनाया. वे अपनी जीवन शैली के साथ पाकिस्तान में जी रहे हैं. सोत्रा जी बताते हैं कि मेघ कभी भी बड़े पैमाने पर इस्लाम या ईसाइयत में नहीं गए. 1947 में स्यालकोट से लगभग सभी मेघ परिवार भारत आ गए. गिनती के मेघ ही स्यालकोट में रह गए थे. वे सब हिंदू थे. पब्लिक मेमोरी (लोक स्मृति) में दूर-दूर तक कहीं नहीं है कि मेघों ने कभी बड़े पैमाने पर इस्लाम ग्रहण किया हो. तो आर्यसमाज से जुड़े लेखकों के प्रकाशित साहित्य में क्यों लिखा गया कि हज़ारों-हज़ार की संख्या में मेघों का शुद्धिकरण किया गया था?

पहली नज़र में यह आर्यसमाज के प्रचारात्मक कार्य का हिस्सा लगता है. उसके पीछे राजनीतिक कारण भी रहे हो सकते हैं जैसा कि डॉ. ध्यान सिंह ने अपने शोधग्रंथ में उल्लेख किया है कि शुद्धिकरण से स्यालकोट के क्षेत्र में हिंदू-मुसलमान जनसंख्या का अनुपात बदल गया. वे यह भी बताते हैं कि जम्मू के क्षेत्र में मेघ कबीलाई जीवन जी रहे थे. उनके शुद्धिकरण का एक ही अर्थ था कि उन्हें शुद्धिकरण की प्रक्रिया से 'हिंदू (मनुवादी) घेरे' में लाया जाए. संभव है उनमें कुछ इने-गिने ऐसे मेघ भी रहे हों जिन्होंने इस्लाम अपना लिया हो. वैसे शुद्धिकरण को लेकर आज भी कई पढ़े-लिखे मेघ कड़ुवाहट के साथ पूछते हैं कि ‘क्या हमें कीड़े पड़े हुए थे कि हमारा शुद्धिकरण किया गया था?’ वे जानते हैं कि उन्होंने या उनके पूर्वजों ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिसकी वजह से अन्यथा उनका शुद्धिकरण किया जाता. वैसे मनुवादी जाति व्यवस्था ऐसी है कि उसमें मंत्रोच्चार के साथ सिर मुंडवा कर नहा लेने से किसी की जाति या वंश नहीं बदलता. अलबत्ता शिक्षित करके स्वीकार्यता दे कर और धन प्रवाह को उनकी तरफ मोड़ कर उनकी जीवन-शैली में परिवर्तन किया जा सकता है. शिक्षित होने के बाद मेघों को प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का अधिकार संविधान के तहत मिला भी जो आज नाममात्र को बचा है.



बात शुद्धिकरण की हो रही है. शुद्धिकरण क्यों किया जाता है इसकी जानकारी एक जाट नेता श्री राकेश सांगवान से मिली. उन्होंने सितंबर 2017 में बताया कि रोहतक में खाप पंचायत नाम से पंचायत का एक फ़रमान जारी गया था और पंचायत का विषय था 'मूला जाटों का शुद्धीकरण और जाट - मूला जाटों के बीच आपसी रिश्ते शुरू करवाना'. इस पर श्री राकेश सांगवान की निम्नलिखित टिप्पणी शुद्धिकरण के राजनीतिक पक्ष को प्रभावी तरीके से रेखांकित करती है.

“पहली बात तो ये जो शुद्धीकरण शब्द ही बड़ा अटपटा सा है। जाट चाहे किसी भी धर्म सम्प्रदाय में गया या उसने जो भी अपनाया, उसने अपनी जाति कभी नहीं छोड़ी, जहाँ भी गया जाति साथ ही ले गया, और सिर्फ़ जाट ही नहीं इस देश में जिस भी जाति के व्यक्ति ने जो भी धर्म अपनाया वह अपनी जाति उस धर्म में साथ ही ले गया। अब समझ नहीं आता कि कौन किसका किस आधार पर शुद्धीकरण चाहता है? यदि इनका आधार सिर्फ़ धर्म को लेकर ही शुद्धीकरण है तो फिर इस खाप पंचायत के नाम पर सिर्फ़ जाट को ही क्यों टार्गट किया गया? खाप पंचायत सभी जातियों की होती हैं और सभी धर्मों में सभी जातियाँ हैं, फिर इस पंचायत में सिर्फ़ जाट और मूला ही टार्गट क्यों? और जाट-मूला जाट के नाम पर पंचायत में विश्व हिंदू परिषद, बंसल, परमार, शर्मा आदि का क्या काम? और यदि तुम्हारा इस शुद्धीकरण का आधार धर्म ही है तो फिर तुम्हारे इस शुद्धीकरण के टार्गट पर मूला जाट यानी मुस्लिम जाट ही क्यों, तुम्हारी ख़ुद की जातियाँ क्यों नहीं? और क्या सिर्फ़ हिंदू होना ही शुद्धता है? ये सर्टिफ़िकेट किस लैबॉरेटरी (laboratory) से जारी हुआ?

शुद्धीकरण और आपसी रिश्तेदारी, दोनों में बहुत फ़र्क़ है इसलिए जाट चाहे किसी धर्म मज़हब पंथ से ताल्लुक़ रखता हो उसे ऐसे विवादित विषयों से परहेज़ ही रखना चाहिए। ऐसे मुद्दों से तो हमारे रहबर-ए-आज़म सर छोटूराम भी दूरी रखते थे, जब भी धर्म का मुद्दा उठता तो उनका एक ही जवाब होता कि धर्म निजी मामला है इसे दूसरे पर मत थोपो। जो भी ठेकेदार इस शुद्धीकरण की बात करे उसे कह दो कि शुद्धीकरण और धर्म के बोझ से हम जाटों को माफ़ी दे दो, हम जाटों को तुम अपनी साज़िशों का मोहरा ना बनाओ। जो करना है पहले तुम अपने से शुरू करो, पहले अपनी जातियों का शुद्धीकरण कर लो, और जहाँ तक जाट-मूला जाटों की आपसी रिश्तेदारी का मामला है वह हमारा आंतरिक मामला है उसे हम जाट ख़ुद देख लेंगे।”

मेघ भी स्यालकोट के क्षेत्र में शुद्धिकरण से बावस्ता हुए थे. वहाँ तब अंग्रेजों का शासन था. अंग्रेजों की उदारवादी नीतियों के तहत समाज की निम्न जातियों को प्रतिनिधित्व देने पर विचार किया जा रहा था (शायद आपको साइमन कमिशन याद हो) और उसके तहत एक योग्यता यह भी रखी गई थी कि प्रतिनिधित्व ऐसे लोगों को दिया जाएगा जो पढ़े-लिखे हों. इस दौरान मिशनरी स्कूल पिछड़ी और निम्न जातियों को शिक्षित करने का कार्य शुरू कर चुके थे. आर्यसमाज ने भी फैसला किया कि ग़ैर-हिंदुओं को जितना जल्दी हो सके ‘हिंदू’ दायरे में लाया जाए और हिंदू जातियों में उनका स्थान भी परंपरा के अनुसार निर्धारित कर दिया जाए ताकि आने वाले समय में वे हिंदू के नाम पर सवर्णों के अधीन खड़े दिखें. तब शिक्षा से वंचित मेघ इस व्यवस्था को कितना जानते-समझते थे पता नहीं लेकिन उस समय के साहित्य से जानकारी मिलती है कि मेघों ने शुद्धिकरण की वास्तविकता को पहचान लिया था. वे महसूस कर रहे थे कि शुद्धिकरण ने सामाजिक व्यवस्था में उनकी प्लेसिंग नहीं बदली. यह तर्कशीलता मेघों की शक्ति के रूप में देखी जा सकती है. लेकिन क्या शुद्धिकृत मेघ 'आर्य-भक्त' और 'द्विज' का अर्थ भली भाँति जानते थे? यह सवाल बहुत महत्पूर्ण है.

1947 में पाकिस्तान बनने के बाद स्यालकोट से अधिकांश मेघ भारत आ गए. इसके साथ ही मेघों के बारे में आर्यसमाज का शुद्धिकरण का एजेंडा पृष्ठभूमि में चला गया. (ऊपर मूला जाटों के शुद्धिकरण को लेकर हुई हलचल में उसे फिर से ज़िंदा होते देखा जा सकता है). 

आज़ादी से पहले के समय में 'शुद्धिकृत' तबकों को स्वभाविक ही कांग्रेसी वोटर की पहचान मिली. (कांग्रेस उस समय नज़र आने वाली एक ही बड़ी राजनीतिक पार्टी थी). ये वोटर मूलतः श्रमिक तबकों के थे. कांग्रेस का उनके प्रतिनिधित्व (आरक्षण) को लेकर जो नज़रिया था उससे श्रमिक वर्गों और कांग्रेस दोनों को फ़ायदा हुआ. आज़ादी के बाद वाले ‘हिंदुस्तान’ में शुद्धिकरण आंदोलन की पहले जैसी जरूरत नहीं थी और न ही निम्न जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में शासन-प्रशासन में नुमाइंदगी (प्रतिनिधित्व, representation) देने की ज़रूरत महसूस की गई. इस्लाम अपना चुकी श्रमिक जातियों की बड़ी जनसंख्या वाला बड़ा भू-भाग (आज का बंगला देश और पाकिस्तान) पहले ही अलग किया जा चुका था. मुख्यधारा में शामिल होने के भ्रम के साथ वे शुद्धिकृत जनसमूह अपने परंपरागत निम्न सामाजिक स्तर पर बने रहे. मेघों को महज़ म्युनिसिपल कमेटियों और म्युनिसिपल कार्पोरेशंस में कुछ प्रतिनिधित्व मिला.

'शुद्धिकरण' निश्चित रूप से राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व (hegemony) के लिए हो रहे संघर्ष का हिस्सा रहा है जिसकी पहचान जातिवादी धार्मिक-राजनीतिक एजेंडा के औज़ार के रूप में होती है. इस नज़रिए से शुद्धिकरण का लक्ष्य शुद्धिकृत लोगों के सामाजिक स्तर में बढ़ौतरी तो नहीं ही हो सकता. 'शुद्धिकृत' लोगों की आर्थिक और राजनीतिक अपेक्षाएँ असंतुष्ट हैं. प्रतिनिधित्व के नाम पर मिलने वाले आरक्षण जैसे प्रावधान को न्यायालयों और सरकारों तक ने निष्फल (irrelevant) कर दिया है. फिर भी शुद्धिकृत होकर कोई धन्य-धन्य हो रहा है तो वो धन्य है.

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