"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


20 April 2018

Echoic Words - प्रतिध्वन्यात्मक शब्द

मेरे बड़े भाई मायाधारी जी एक चुटकुला इस तरह सुनाया करते थे-
एक अन्य सज्जन ने एक मेघ सज्जन से पूछा कि तुम हर शब्द को दोहरा क्यों बना देते हो, जैसे चाय के लिए चा - शा, कलम - वलम, दूध के लिए दुद्द - शुद्द, लड़के के लिए मुंडा - शुंडा? तो भोले मेघ ने बहुत सहज स्वभाव से उत्तर दिया, " ਨਾ ਜੀ, ਅਸੀਂ ਤੇ ਕੋਈ ਦੋਹਰਾ-ਸ਼ੋਹਰਾ ਨਈਂ ਕਰਦੇ (मतलब - न जी, हम तो कोई दुहरा-शुहरा नहीं करते ".

उस भोलेपन के पीछे भाषाविज्ञान की एक घुंडी थी. वो यह थी कि हम पहले शब्द बोलते हैं और बाद में उसकी प्रतिध्वनि जैसा एक और शब्द भी आदतन बोल देते हैं. यह आदत आखिर देन किसकी है?
  
अब उस घुंडी की पहेली बूझ ली गई है. देशी और विदेशी भाषा वैज्ञानिकों ने अपना फैसला दिया है कि भारत में अंग-बंग , कोसल-तोसल , पुलिंद-कुलिंद जैसे भू-भागों के नाम निषादों / मुंडाओं / कोलों ने रखे हैं और प्राचीन काल में इन्हीं लोगों का इन क्षेत्रों पर कब्जा भी था. हिंदी के कई शब्द- पुस्तक-वुस्तक, कुत्ता-वुत्ता, सांप-वांप, हाकी-शाकी, यहाँ तक कि कंप्यूटर-शंप्यूटर जैसे शब्द भी कई बोलियों में सुने जा सकते हैं. हिंदी में ऐसे (प्रतिध्वन्यात्मक echoic) शब्दों का प्रचलन सभी जगह देखा जाता है. आदिवासी समाज ने हिंदी को ऐसे प्रतिध्वन्यात्मक शब्दों का सुंदर ख़ज़ाना दिया है जिसके लिए हिंदी भाषा आदिवासी समाज के प्रति ऋणी है. (यह बात भाषा विज्ञानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह से प्रेरित है)

तेलुगु में 'शेर' को पुलि कहते हैं और शेर-वेर के लिए ‘पुलि-गिलि’ बोला जाता है. पुलि-गिलि की व्याख्या एक तेलुगु जाट ने हँसते हुए इस तरह की थी - “पुलि ख़तरनाक़  होता है लेकिन गिली तो बहुत ही ख़तरनाक़ होता है. वो पुलि से बहुत बड़ा होता है और नज़र भी नहीं आता”.

इस व्याख्या में एक आदिवासी कथा सुनाई दे रही थी, भोले मेघ जैसी भोली कथा जो शेर को वेर बना देती है.


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