"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


16 December 2018

Comprehending the history - इतिहास की बूझ


कुछ लोग अपने पिछले इतिहास से बहुत ख़ौफ़ खाते हैं. वे 'मेघ' शब्द से भी दूरी बनाते दिखते हैं. इस बीच 'आर्य-भक्त' शब्द 'भगत जी' का स्वरूप ले चुका है. यह बात सच है कि जब कोई उनके इतिहास की बात कहता है तो वे उसका विरोध करते दिख जाते हैं. लिखने वाले का एक नज़रिया होता है और दूसरा नज़रिया उसका विरोधी. यानि दृष्टि-संघर्ष (conflict).

वह भी एक तरह का विरोध होता है जब सुनना पड़ता है कि- ‘तुम इतिहास की बात करने वाले लोग तो अतीतवादी (pastist) हो’. यह आँशिक रूप से सही है. यद्यपि हमारा अधिकतर कार्य वर्तमान में होता है लेकिन अपना इतिहास जानने के इच्छुक लोग अतीत की एक खिड़की खुली रखते हैं. उस खिड़की से दिख रहे इतिहास के प्रति मेरे दिल में भी अनुराग है. क्यों न हो? वो एकदम धुँधला नहीं है. आखिर मुझे वहाँ से अपना अतीत दिखता है जो एक निरंतर गतिशील पथ की कथा कहता है जहाँ से मानवता सिर उठा कर चली आ रही है. वहीं होता है मानव-मूल्यों के साथ चलते रहने का बोध जो मानव सभ्यता की ओर इशारा करता हुआ कहता है ‘चलते रहो, बढ़ते रहो’. वही हमें वर्तमान तक ला कर बेहतर भविष्य की अपार संभावनाओं के खुले राजमार्ग पर ले आता है. इसी लिए अतीत को खंगालने वाले लोग ‘अतीतवादी (pastist)’ या ‘अतीतरागी (nostalgic)’ जैसे शब्दों से विचलित नहीं होते भले ही ये शब्द अतिकटुता के साथ परोसे गए हों.

इतिहास में दर्ज हमारी समझदारियों और मूर्खताओं के कई आयाम होते हैं. यदि हम उनको नहीं जानते और उनसे नहीं सीखते तो इतिहास हमें तब तक सबक सिखाता है जब तक हम सबक सीख न लें. जब हम बिना सीखे चलते हैं तो उसका असर समाज के व्यवहार में दिखता है यहाँ तक कि अपने ही लोगों को कहना पड़ता है कि वे आपस में एक-दूसरे को कोसना बंद करें. इतिहास ग़ज़ब का 'गुरु' है, गुरु जी !

इतिहास-बोध एक बेशकीमती औज़ार है जिसे समाज के सभी जनों की जेब में और समाज के संगठनों की अलमारियों में उपलब्ध होना चाहिए ताकि समस्त समाज उसके महत्व को जाने और जान कर लाभान्वित हो. अपने बारे में जानने, अपने से सीखने और ख़ुद से ही समझदारी विकसित करने को ‘इतिहास-बोध’ कह दिया जाता है. यही ‘इतिहास बोध’ व्यक्ति और समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है. इससे समाज में जुड़ाव और सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता पैदा होती है. जब यह क्षमता मज़बूत हो गई तब समझिए कि समाज का हर सदस्य अपनी जानकारी के आधार पर समाज के हित में कार्य करने लगेगा.

1 comment:

  1. आपका कहना सही है पर सही इतिहास का होना और उससे सबक लेना और उसका बोध रखना ... सभी कुछ जरूरी है ... पर आज शायद हमें हमारे ही इतिहास से दूर ले जाया गया है सुनियोजित तरीके से ...
    क्योंकि जिसका इतिहास नहीं होता वो सभ्यताएं नष्ट ही होती हैं अनन्तः ...

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