"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


28 November 2018

The Legend of Porus - पोरस की गाथा - 2

मेघों के सतलुज के किनारे बसे होने और सतलुज के प्राचीन नाम Megarsus और Megandros के बारे में कर्नल कन्निंघम ने अपनी रिपोर्ट में महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं कि :-

(1)  इस पहचान के अनुसार मेकी, या प्राचीन मेघ, सिकंदर के आक्रमण के समय ज़रूर सतलुज के किनारों पर बस चुके थे.
(2) दोनों नामों (Megarsus और Megandros) की आपस में तुलना करने पर, मेरे अनुसार संभव है कि मूल शब्द मेगान्ड्रोस (Megandros) हो जो संस्कृत के शब्द मेगाद्रु, या 'मेघों का दरिया', के समतुल्य होगा.

यहाँ कर्नल अलैक्ज़ांडर कन्निंघम ने सतलुज नदी का उल्लेख किया है जिसका पुराना नाम ‘मेगाद्रु’ यानि ‘मेघों की नदी’ था.

कई बार इतिहास पूरी बात नहीं बताता या इतिहासकार पूरी बात नहीं लिख पाता. वहाँ भाषाविज्ञान भी किसी बात को समझने में मदद करता है. एक अन्य जगह कर्नल कन्निंघम ने लिखा है कि पोरस (पुरु) के समय के मद्र और मेद ही 19वीं शताब्दी (जब यह रिपोर्ट लिखी गई थी) के मेघ हैं जो रियासी, जम्मू, अख़्नूर आदि क्षेत्रों में बसे हैं. इसे भाषाविज्ञान की मदद से हम समझ पाते हैं कि ‘मद्र’ शब्द का स्वरूप ‘मेगाद्रु’ शब्द से विकसित हुआ है. सवाल पूछा जा सकता है कि मेघ और मेद में जो ध्वनिभेद है उसका क्या? इसका कारण यह है कि मेघजन जब ख़ुद को मेघ कहते हैं तो ‘घ’ की ध्वनि पूरी तरह महाप्राण ध्वनि नहीं होती बल्कि वो ‘ग’ के अधिक नज़दीक पड़ती है. इससे ‘मेघ’ शब्द की वर्तनी (spelling) में अंतर हो गया. परिणामतः मेघ (Megh) शब्द की वर्तनी सुनने वालों के लिए मेग (Meg) बनी. श्री आर.एल. गोत्रा ने अपने लंबे आलेख ‘Meghs of India’ में बताया है कि वेदों में ‘मेघ’ और ‘मेद’ शब्द भी आपस में अदल-बदल कर लिखे गए हैं. इस प्रकार 'मेघ', 'मेग' और 'मेद' ये तीनों शब्द एक ही वंश (Race) की ओर इशारा करते हैं.

प्राचीन काल में मेघों की भौगोलिक स्थिति निर्विवादित रूप से सिंधुघाटी क्षेत्र में थी. झेलम और चिनाब के बीच के पौरव क्षेत्र के अलावा सतलुज और रावी के क्षेत्रों में उनकी बस्तियाँ थीं. वर्ण परंपरा के अनुसार मेघ क्षत्रिय थे ऐसा ‘मेघवंश - इतिहास और संस्कृति’ पुस्तक में सप्रमाण बताया गया है. हमारे पुरखे पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन महाराजा बली और पोरस की कथा बहुत प्रेमपूर्वक सुनाते थे. पोरस की कथा की कुछ निशानियाँ मेघों की जन-स्मृतियों में दर्ज है. स्वाभिमानी पोरस के साथ उनका अपनत्व का संबंध रहा.


महाराजा पोरस (पुरु) मद्र नरेश थे. नरेश शब्द पर ध्यान देने की ज़रूरत है. मद्र+नर+ईश (राजा). यानि मद्र लोगों का अग्रणी. इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि उस काल में किन्हीं नदियों और क्षेत्र में बसे लोगों के नाम पर उस नदी या क्षेत्र का नाम रखने की परंपरा थी जिसकी पुष्टि ऊपर कन्निंघम के दिए संदर्भ में हो जाती है. इस नज़रिए से पोरस के साकल/सागल (जिसे आज के सियालकोट क्षेत्र के समतुल्य माना गया है) की मेघ जाति के अग्र-पुरुष होने का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है. पोरस निस्संदेह इतिहास पुरुष है लेकिन उसके जीवन से संबंधित बहुत-सी कड़ियाँ कथा-कहानियों के सहारे खड़ी हैं. ऐसी कथा-कहानियों का अपना रुतबा होता है और वे अपने पात्रों के रुतबे को प्रभावित करती हैं.

ऐतिहासिक संदर्भ स्पष्ट बता रहे हैं कि पोरस मेघ वंश परंपरा के हैं. कर्नल कन्निंघम ने आधुनिक मेघों को मद्रों / मेदों का ही वंशधर माना है.


The Legend of Porus - पोरस की गाथा - 1

एक अन्य रुचिकर लिंक (यह पोरस के संदर्भ में नहीं है)
History of the Indo-Greek Kingdoms (Retreived as on 04-01-2019)


1 comment:

  1. पोरस का गौरवशाली इतिहास है ... उसपे हर देश वासी गर्व करता है ...
    ये खोज जारी रहनी चाहिए और किसी निश्चय पे जानी चाहिए ... आपका कार्य सराहनीय है ....

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