"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


07 March 2019

Thanks to bookbinding - जिल्दसाज़ी का शुक्रिया

अप्रैल 2016 में ऑल इंडिया मेघ सभा का अध्यक्ष पद संभालने की स्थिति आ बनी थी. इस संस्था द्वारा प्रकाशित की जा रही पत्रिका ‘मेघ-चेतना’ के मुख्य संपादक का दायित्व साथ ही आया.

पत्रिका-प्रकाशन और दो-चार शब्द लिख लेने का कुछ अभ्यास पहले से था ही, वो काम आया. दिसंबर 2018 तक के त्रैमासिक अंक निरंतर निकले. कुछ देरी से निकले. इसमें सबसे बड़ी समस्या थी लेखकों और आलेखों की कमी.

अनुभव बताता है कि लिखता वही है जिसे पढ़ने की आदत हो और लिखता वही है जिसे लिखने का ‘चस्का’ हो और लिखने में उसका अपना ‘स्वार्थ’ हो. स्वार्थ, जिसमें लालच भी कुछ मात्रा में शामिल होता है, की महिमा महान ग्रंथों में गाई गई है क्योंकि उनके लिखने वाले जानते थे कि लालच, लोभ और स्वार्थ के बिना हम अपना परिवार तक नहीं चला सकते. दरअसल उन महान ग्रंथों की रचना की पृष्ठभूमि में स्वार्थ ही था. उनका प्रयोजन अपने खुद के, अपने समाज (संबंधियों), अपनी विचारधारा, अपने धर्म आदि का हित साधना था. इसे ‘स्वांतःसुखाय’ (अपने सुख के लिए) लिखना कहा गया है.

मुझे अपने जाति भाइयों-बहनों से बड़ी शिकायत रही है कि वे लिखते नहीं हैं लेकिन वो शिकायत छोटी होती जा रही है. अब लिखने वालों की संख्या बढ़ी है, विशेषकर सोशल मीडिया पर. रचनात्मक साहित्य लिखने के अलावा वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आए हैं. पारंपरिक व्यवसाय समाप्त हो जाने के बाद वे विभिन्न व्यवसायों में गए हैं और ख़ूब नाम कमाया है. लेकिन लेखन के व्यवसाय में आए लोगों की गिनती थोड़ी है. उधर अध्यापन के क्षेत्र में गए लोगों की संख्या काफी है. तथापि अभी वे दूसरों का लिखा हुआ पढ़ाते हैं. उनके दिल में यह चाहत पैदा होना बाकी है कि वे खुद कुछ ऐसा लिखें जिसे दूसरे पढ़ाएं. ख़ैर, वह समय आ रहा है. 

बात अपने स्वार्थ की चल रही थी. ‘मेघ-चेतना’ का संपादन करते हुए कुल 7 अंक निकाले थे. उनकी कुछ प्रतियां रखी हुई थीं. विचार आया कि इनको सुरक्षित रखने के लिए इन्हें जिल्दबंद क्यों ना करवा लिया जाए सो करवा लिया. मन और वाणी के बाद इतिहास को जिल्द ही संभालती है. अब लगभग डेढ़ साल तक किए गए कार्य का एक समेकित (कंसोलिडेटेड) रिकॉर्ड मेरे सामने है. जिल्दसाज़ (बुकबाइंडर) ने दो प्रतियां देते हुए कहा, “आपके दोनों प्रोजेक्ट हो गए हैं.” बहुत उत्पादक शब्द है ‘प्रोजेक्ट’. ज़रूर अंकुरित होता है. अंकुर है तो फल-फूल भी आएँगे.

जिल्दसाज़ी का शुक्रिया जो इतिहास, जज़्बात के अलावा वक़्त को भी पोशाक पहना देती है.

2 comments:

  1. एक अच्छी शुरुआत ... इतिहास संजोना जरूरी है ...
    समय बड़ा बलवान है वो अर्थ खोज लेता है ...

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