डीएनए रिपोर्टों ने अभी तक पढ़ाए जा रहे इतिहास में कई जगह निशान लगा कर बताया है कि हुज़ूर यहाँ-यहाँ कुछ गड़बड़ है. 2018 में राखीगढ़ी में 4500 साल पुराने (हड़प्पा सभ्यता के समय के) नरकंकाल मिले. डीएनए रिपोर्ट आने से पहले ही तब मीडिया मालिक (पत्रकारों के अवतार में) अपने-अपने सिद्धांतों के साथ टूट पड़े. “ये हमीं है, यह हमारा है, वो सभ्यता हमारी थी, हमने उसे नष्ट नहीं किया था, हम सिंधुघाटी के ही हैं, हमीं ने उसे विकसित किया था, आर्य आक्रमण का सिद्धांत गलत है, अंग्रेज़ों ने हमारे इतिहास को गलत लिखा”. (यानि अंग्रेज़ों के जाने के 70 साल बाद आज तक पढ़ाए जा रहे इतिहास में यदि कुछ गलती है तो उसके ज़िम्मेदार अंग्रेज़ हैं, वग़ैरा).
अब सितंबर 2019 में उन कंकालों की डीएनए और अवशेषों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं तो मीडिया फिर उस पर झपट पड़ा कि इसमें यह मेरा है, तुम्हारा क्या है, हम तो पहले से ही कह रहे थे, तुम्हारा तो सिद्धांत ही गलत था, कोई आक्रमण नहीं हुआ बल्कि बाहरी लोग थोड़े-थोड़े करके आए थे, कुछ उधर से इधर आए और कुछ इधर से उधर गए (ऐसी कई बातें और उनसे जुड़े सवाल अपेक्षित थे इसलिए डीएनए रिपोर्ट अपनी सीमाएँ बता गई है और कई स्पष्टीकरण दे गई है) लेकिन सवाल मुख्यतः उस इतिहास पर उठाया जा रहा है जो बच्चों को बताता रहा है कि भारत के लोग असभ्य थे और उन्हें सभ्य बनाने के लिए आर्य लोग बाहर से यहाँ आए थे. डीएनए रिपोर्ट यह भी बता रही है कि दक्षिण एशिया की किसानी यहाँ के स्थानीय लोगों ने ही शुरू की थी. उसका कोई संबंध ईरान या पश्चिम से नहीं है. यानि भारत प्रायद्वीप की सभ्यता यहाँ के स्थानीय बाशिंदों ने ही विकसित की थी.
फिर वो आर्यवर्त क्या चीज़ है? ऊपर उठा हाथ पूछ रहा है कि आर्य का तात्पर्य रेस (नस्ल) से है या श्रेष्ठ से है, यदि श्रेष्ठ से है तो श्रेष्ठता का सिद्धांत कहाँ से आया, किसने पढ़ाया? आज के भारत में जातीय श्रेष्ठता का औचित्य क्या है? उससे अधिक प्रखर सवाल यह हो सकता है कि जातीय श्रेष्ठता पर आधारित व्यवस्था क्यों है.
इसी संदर्भ में कुछ विद्वान यह बात दोहरा रहे हैं कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने लिखा है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि वो यहीं के हैं. इस उद्धरण को भी मीडिया मालिक भुनाते फिर रहे हैं. प्रकारांतर से वे उस धारणा को झुठलाना चाहते हैं जो बहुत प्रचारित हो चुकी है कि ‘ब्राह्मण विदेशी’ है. इसी संदर्भ को दूसरे विद्वान कहते हैं कि अंग्रेज़ों के आने से पहले ही भारत के कुछ लोगों ने ख़ुद को बाकियों से श्रेष्ठ कहना शुरू किया था. "आर्य बाहर से नहीं आए" वाली बात को वे डॉ. आंबेडकर की राष्ट्रनिर्माण संबंधी अवधारणा से जोड़ कर देखते हैं और मानते हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग भारत के ही हैं. सभी को मिल कर एक राष्ट्र का निर्माण करना है और उसमें जातीय श्रेष्ठता वाली सोच को बाधा बन कर नहीं आना चाहिए.
फिलहाल संदर्भित रिपोर्ट यह स्थापित कर रही है कि पहले जो पढ़ाया जाता था कि प्राचीन विकसित सभ्यता का विकास बाहर से आए लोगों ने किया वो ग़लत है. वास्तव में वो विकास मूलनिवासियों ने किया था.
अब मेघों के लिए दो शब्द. 'मूलनिवासी' नाम के तहत जो मेघ पहले असहज महसूस कर रहे थे वे अब सहज हो कर बैठ सकते हैं.
पाश्चात्य लोगों ने भारत खंड के बारे में ठीक लिखा होगा ये सोचना न सिर्फ गलत है बल्कि दुश्भाव भी है ... कालान्तर में जो उन्नत सभ्यता समय के साथ ताकत में पिछड़ जाती है उसे ये सब कुछ सहना होता है जो आज भारत खंड की सभ्यता कर रही है ... इसलिए बेहतर है अपनी खोज, अपने इतिहासकार जो किसी भी विचारधारा से अप्रभावित हैं वो निचित करें ... पर ऐसा तभी संभव है जब शक्ति का संचार करे भारत खंड ... जो अभी तो दूर दूर तक दिखाई नहीं देता ... आपनी भेद-भाव को देखते हुए ...
ReplyDeleteपाश्चात्य इतिहासकारों को हम तीसरी पार्टी कह सकते हैं. समस्या राष्ट्रनिर्माण (जिसे आपने शक्ति संचार कहा है) की धीमी प्रक्रिया से है. मीडिया इसमें जो भूमिका निभा सकता था वो नदारद है. दिगंबर जी आपकी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है.
ReplyDeleteबुद्धिजीवी वर्ग और समाचार माध्यम अपना नजरिया थोपना कब छोड़ेंगे जबकि कुछ और सच भी होता है ।
ReplyDeleteसही कहा आपने. सच अपना, नेरेटिव अपना होता है. कोई उन सभी में समन्वय बिठाता है तो वो उसका नेरेटिव हो जाता है.
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