आगे बढ़ने से पहले कृपया नोट कर लें
कि मैं इतिहासकार नहीं हूं. मैं अपनी जाति का इतिहास ढूंढता रहा हूं. इस सिलसिले
में जो मिला, अच्छा-बुरा, सही-गलत वो सब यहां इकट्ठा हुआ. इसलिए यदि मैं किसी इतिहास
संबंधी अवधारणा को गलत मान बैठा हूं या उसे गलत साबित करने की कोशिश की है तो उसका
कारण मेरे पढ़े हुए इतिहास के उलट किसी इतिहास का मौजूद होना है. अब आगे चलें.
जम्मू-कश्मीर के निवासी मेघ और अन्य बहुत से मेघ अपने इतिहास को ‘राजतरंगिणी’ के राजा मेघवाहन में देखते हैं. पता नहीं उनमें से कितने लोगों ने राजतरंगिणी का मूल पाठ (संस्कृत में) पढ़ा. संस्कृत में लिखी राजतरंगिणी मैंने नहीं पढ़ी लेकिन अंग्रेज़ी और हिंदी में अनूदित अंश (तृतीय तरंग के) पढ़े जो मेघवाहन से संबंधित हैं और मैं मानता हूं कि उसमें राजा मेघवाहन का जितना उल्लेख किया गया है वह राजा और उसकी शासन प्रणाली के वर्णन के लिहाज़ से अपर्याप्त है. राजतरंगिणी के लेखक पं.कल्हण आज के अर्थ में इतिहासकार नहीं थे. लेकिन बहुत से ऐतिहासिक संदर्भों को उन्होंने अपने नज़रिए से रिकार्ड किया. 12वीं शताब्दी में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं थी उस काल में कल्हण का कार्य महत्वपूर्ण रहा होगा. आज के इतिहास लेखन से जैसी अपेक्षा हो सकती है वैसी कल्हण से नहीं होनी चाहिए. राजतरंगिणी की लेखन शैली पौराणिक कथा शैली से प्रभावित है.
श्री जोगेश चंदर दत्त ने ‘राजतरंगिणी’ का जो अंग्रेज़ी अनुवाद किया है उसी की पीडीएफ फाइल मेरी नज़र में पहले आई. उसमें बहुत स्पष्ट लिखा था कि राजा मेघवाहन जिस कालखंड में थे उसमें बौधमत का बहुत प्रभाव था. राजा के अलावा उसकी रानियों ने भी बौद्ध मठों का निर्माण करवाया था. उस नेरेशन से तब के जम्मू-कश्मीर में बौद्धमत की व्यापकता का उल्लेख मिलता है. जीवों के प्रति करुणा का भाव फैलाने में मेघवाहन की भूमिका को राजतरंगिणी में सराहा गया है.
हफ्ता-भर पहले ‘मेघ-चेतना’ के लगभग दस साल तक संपादक रहे श्री एन.सी. भगत ने ‘मेघ-चेतना’ के किसी पुराने अंक में से 4 पृष्ठों की फोटो कॉपी मुझे दी. उसमें प्रकाशित एक आलेख मेघवाहन के बारे में था. उस आलेख के शुरू में ही छपा था “मूल पाठों का सारांश, पंडित कल्हण लिखित कश्मीर के राजाओं
का इतिहास,
राजतरंगिणी की तृतीय तरंग के
आरंभ में ही साक्षात जिनेंद्र भगवान के तुल्य प्रभु मेघवाहन का प्रसंग शुरू होता
है.” यह रुचिकर था. इसे “आचार्य जैन मुनि श्री विमल मुनि जी महाराज श्री दर्शन मुनि जी महाराज” के सौजन्य से छापा गया था. उक्त आलेख दोनों मुनिजनों ने मिल कर लिखा या पहले वाले मुनि जी महाराज ने लिखा यह स्पष्ट नहीं है. श्री दर्शन मुनि जी महाराज का नाम (संभवतः दर्शन भगत था) लेकिन यह मानने का मेरे पास पर्याप्त कारण है कि जैन दायरे में उनका नाम सुदर्शन मुनि रहा होगा जिनसे मैं कालेज के दिनों में जैन धर्मशाला, सैक्टर-18, चंडीगढ़ में श्री सत्यव्रत शास्त्री जी के साथ मिलने गया था. उक्त आलेख के स्कैन इस ब्लॉग के अंत में दिए गए हैं. श्री सुदर्शन मुनि ऊधमपुर, जम्मू के रहने वाले थे.
‘मेघ-चेतना’ पत्रिका में छपा उक्त आलेख किसी पौराणिक कथा से कम नहीं. आलेख के शीर्षक में लिखा है - “साक्षात् जिनेंद्र भगवान के तुल्य प्रभु मेघवाहन”. आगे पहले पैराग्राफ में ही लिखा गया है कि “प्राणी मात्र पर दया करने वाले बोधिसत्वों की महिमा को भी उस उत्तम विचार संपन्न राजा ने अपने गंभीर तथा उदात्त चरित्र से परास्त कर दिया.” ऐसा कह कर मेघवाहन को जैनमत का गौरव कहा गया है ऐसा प्रतीत होता है. जोगेश चंदर दत्त के 'राजतरंगिणी' के अंग्रेजी अनुवाद में लिखा है कि महामेघवाहन बौधमत के अनुयाई थे और उनकी रानियों ने बौद्ध विहार बनवाए थे. यानि दोनों संदर्भों के नेरेशन में तनिक भिन्नता है.
मेघवाहन को प्रभु जिनेंद्र तुल्य मानना एक सद्भावनापूर्ण सोच है पर ज़रा संभल कर. ओडिशा (जिसे पहले उड़ीसा, Odissa कहा जाता था) में एक महामेघवाहन राजवंश रहा है जिसकी परंपरा में खारवेल जैसे सम्राट जैनमत के अनुयायी थे. अभी तक मेरी नज़र में ऐसा कुछ भी नहीं आया जो कश्मीर के मेघवाहन और ओडिशा के महामेघवाहन बीच कोई तर्कपूर्ण संबंध बिठाता हो. अलबत्ता एक आलेख (यथा 13-09-2019 को देखा गया) ऐसा है जो दोनों को एक साथ रखता है. वहां मेघवाहन और महामेघवाहन को लेकर स्पष्टता की ज़रूरत है.
अब सवाल रह जाता है कि क्या राजा मेघवाहन ‘मेघ’ नस्ल के थे. राजतरंगिणी में इस बारे में स्पष्ट तो कुछ लिखा नहीं है लेकिन यह ज़रूर लिखा है, “We are ashamed to relate the history of this good king to vulgar men, but those who write according to the Rishis do not care for the taste of their hearers.” इसे अब कोई दिल पर ले ले या नकार दे यह आज उसकी मर्ज़ी पर है.
धार्मिक, इतिहासिक, सामाजिक विषयों पर लिखे ग्रंथों को जब पढ़ना हो तो उनके लेखकों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि को जानना-समझना बहुत ज़रूरी है. उसके बिना आप उनकी रचनाओं के गूढ़ कथ्य को सही सदर्भों में नहीं जान सकते. कल्हण कश्मीरी ब्राह्मण/पंडित थे और रामायण तथा महाभारत के जानकार थे. विकिपीडिया पर कल्हण के बारे में काफी कुछ कहा गया साथ ही यह जानना ज़रूरी है कि इतिहास के बारे में विकिपीडिया बहुत विश्वसनीय स्रोत नहीं है, तथापि कल्हण को इस→ लिंक से थोड़ा जान लीजिए (यह लिंक 13-09-2019 को देखा गया है).
कल्हण अपनी ‘राजतरंगिणी’ में संकलित ऐतिहासिक संदर्भों को पौराणिक शैली से मुक्त नहीं रख पाए. इसका एक उदारण मेघवाहन के संदर्भ में उनकी निम्नलिखित टिप्पणी से मिल जाता है, “From that time none violated the king's order against the destruction of animals, neither in water, nor in the skies, nor in forests did animals kill one another.” “...nor in forests did animals kill one another” जैसी बात कहना एक बहुत ही काल्पनिक स्थिति की बात है जिसमें अतिश्योक्ति है और अतिरंजना भी वरना प्रकृति में एक जीव भोजन है दूसरे जीव का.
जहाँ तक करुणा (tenderness) और अहिंसा (non-violence) की बात है करुणा बौधमार्ग की महत्वपूर्ण जीवन शैली है और अहिंसा जैनमार्ग की. बौधमत राज्य की रक्षा और आत्मरक्षा के लिए हिंसा के प्रयोग की अनुमति देता है.
अंत में मेघों का इतिहास जानने के इच्छुक मेघजनों को कह सकता हूँ कि 'राजतरंगिणी' के राजा मेघवाहन की कहानी में मेघों के इतिहास का कोई सिरा नज़र नहीं आता. यदि किसी को नज़र आ जाए तो उसे लिखना चाहिए.
नरेंदर सहगल की पुस्तक व्यथित जम्मू-कश्मीर के पृष्ठ 25 पर
प्रतिभाशाली मेघवाहन का उल्लेख हुआ है.
Brahmans hate to write about Buddhists, what to say of highlighting their achievements.
ReplyDeleteIt is confirmed by research made by Punjabi University, Patiala that Meghs had embraced Buddhism around 500 B.C. following visit of Gautam Buddha in Sialkot region.
जी, मैंने वो पढ़ा है. आपका आभार.
Deleteखोज जारी रहेगी तो गंतव्य एक दिन जरूर प्राप्त होगा ...
ReplyDeleteऔर फिर इतिहास तो वैसे भी पीड़ियों में बन पाता है ... निरंतर खोज ही जीवन है ...
Thanks so much Digamber ji.
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Deleteआप स्वयं को जिस रूप में पाते हों पर आपका विधायक चिंतन व गैर- पक्षपातपूर्ण रुख आपको सबसे अलग करता है ।
ReplyDeleteआपका आभार अमृता जी.
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