आज से कई वर्ष पहले मैंने डॉ डेविड सी. लेन से वादा किया था कि उनकी पुस्तक द अननोइंग सेज (The Unknowing Sage) का एक समर्पित अनुवाद ज़रूर दूंगा.
पिछले कुछ वर्षों में इसके ऐसे अंशों का अनुवाद मैं करता रहा जो इस कृति का आधार बने थे. उनसे संतुष्ट हो कर शेष पुस्तक का अनुवाद किया. लेकिन मुश्किल यह थी कि जो कुछ उस पुस्तक में लिखा गया था वह लगभग आधा ऐसा था जो मुख्यतः और मूलतः हिंदी-उर्दू में लिखवाई गई एक आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद था जिसका फिर से हिंदी में उलथा करना था. यह अपने आप में एक चुनौती थी क्योंकि वह साहित्य किसी न किसी रूप में कई जगह मौजूद तो होगा लेकिन उस तक मेरी पहुंच नहीं थी. डॉ लेन के अनुरोध पर ही फकीर चंद जी ने उर्दू में डिक्टेशन दे कर अपनी आत्मकथा लिखवाई थी. इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रो. बी.आर. कमल ने किया था. विडंबना यह कि वह आत्मकथा मानवता मंदिर के प्रकाशनों में नहीं मिल पाई और ना ही उसकी हस्तलिखित कॉपी वहाँ उपलब्ध हो पाई. इस लिए अनुवाद करते हुए केवल एक विश्वास था कि जब मैंने फकीर चंद जी के सैकड़ों सत्संग उनके मुखारविंद से सुने हुए हैं तो उनकी भाषा और मुहावरा ज़रूर मदद करेगा. फ़कीर के दिए हुए ज्ञान को व्यवहारिक नज़रिए से मैं जीवन में नहीं उतार पाया विशेषकर साधन-अभ्यास वगैरा की बातों को. साधन-अभ्यास की गूढ़ बातें वे सरल भाषा में बताया करते थे. साथ ही वे कहा करते थे कि जो कोई उनकी बात को अकली तौर पर या बौद्धिक रूप से समझ लेगा उसको भी 50% फायदा हो जाएगा.
यही कारण था कि उनका अनुभव ज्ञान जो अब मेरे सामने अंग्रेज़ी में उपलब्ध था उसका हिंदी अनुवाद करते हुए उस अकली ज्ञान से सहायता मिली. कई बार ऐसी अनुभूति हुई कि फकीर चंद जी मेरे भीतर बैठकर मुझे डिक्टेशन दे रहे हैं. कई बार तो ऐसा भी लगा कि जैसे अचानक उन्होंने मेरी अर्धनिद्रा अवस्था में आकर मुझे बताया कि यह नहीं बल्कि यह शब्द इस्तेमाल करो. अनुवाद करते हुए मैं उससे मिलता-जुलता शब्द इस्तेमाल कर गया था.
मैं संशयवादी-सा हूँ. चमत्कारों में विश्वास नहीं करता लेकिन ये ऐसे मानसिक अनुभव हैं जो कुछ ना कुछ हैरान तो कर ही देते हैं.
शेष....
जिज्ञासाओं का आंशिक शमन हुआ ।
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