"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


24 May 2014

Megh Culture-1 - मेघ संस्कृति-1 - ਮੇਘ ਸਭਿਯਾਚਾਰ-1

मेघ समाज में संकेतों का विशेष महत्व है. गोल घेरा या वृत्त जब उकेरा जाता (उत्कीर्णन) है तो उस वृत से वे समस्त ब्रह्मांड से अभिप्राय लेते हैं. इसे आप अंतरिक्ष या space समझिये. जब वृत्त में बीचों बीच एक बिंदी लगाकर उकेरते हैं तो यह उनकी भाषा में यह उस ब्रह्माण्ड में उसकी स्थिति है. जब वृत्त में क्षितिज रेखा खींच कर उकेरते हैं तो उसका अर्थ वे बेदाग माता से लेते हैं. जब वृत्त में क्षितिज रेखा को उर्ध्वाकार रेखा से क्रॉस करते हैं तो उसका अर्थ सांसारिकता का या पारगामी लेते हैं. जब वृत्त नहीं हो और सिर्फ क्रॉस (+) हो तो उसका अभिप्रायः है सांसारिकता या भोगों की प्राप्ति. जीवन या सृष्टि का चलन.
जब वृत्त नहीं हो और क्रॉस हो, साखये के रूप में, तो उसका अर्थ है - स्वस्तित्व.

अपने आसपास के किसी बुजुर्ग से पूछ कर इस गूढ़ रहस्य का पता लगाइए. अब आपको समझ में आ जाना चाहिए कि नवजात के जन्म पर मेघों में वृत्त और साख्या क्यों बनाया जाता है. यह मेघों का आध्यात्मिक रहस्य है जिसका वे प्राचीन काल से अनुगमन करते रहे हैं. यदि मुझे समय और अवसर मिला तो मैं निश्चित रूप से मेघों की संस्कृति के इस रहस्यात्मक प्रतीकों पर अधिक लिखना चाहूँगा.
 
यह उनके अध्यात्म के रहस्य से भी जुड़े हैं जिनको आप सिद्धों की अपभ्रंश भाषा में इधर-उधर बिखरा हुआ पाएँगे.
चार वृत्तों द्वारा बनाए गए जीवन के चार क्षेत्र. स्वास्तिक के वृत्त के समान. वृत्त चंद्रमा का भी प्रतीक है और यदि इसके चारों ओर अतिरिक्त वृत्त बना हो तो यह सूर्य का प्रतीक बन जाता है. कभी-कभी इसके चारों और किरणें बना कर इसे सूर्य का प्रतीक बनाया जाता है.
ये उत्कीर्णन श्री आर. के. मेघवाल जी ने भेजे हैं. जो परंपरागत रूप से उनके समाज में नवजात शिशु के जन्म के समय उकेरे जाते हैं. वस्तुतः यह प्राचीन काल से चली आ रही उनकी धार्मिक और आध्यात्मिक रहस्यवादिता है. इसमें वैदिक मनुवाद या पाखंड न होकर स्वास्तित्व का निदर्शन है. यह परंपरा अभी भी इस समाज में जीवित है परन्तु मुझे जीवंत नहीं लगती क्योंकि इसके मूल अर्थ और सन्दर्भ काल के गर्भ में खो चुके हैं और नए मनुवाद में धँस चुके हैं.

उनकी अपनी सांस्कृतिक भाषा में इसे "मांडना" नहीं कहा जाता है. इसे वे "चौक पूरणा" कहते हैं. पूरणा का अभिप्राय पूर्ण या संपन्न करना ही बनता है. चौक का अर्थ पवित्र शुभंकर आकृति से ही है. जो प्रायः स्वास्तिक आकृति का पल्लवन या अभिवृद्धि है. चूँकि यह आकृति है, इसलिए साधारण लोग या इससे अनभिज्ञ लोग इसे मात्र "मांडना" कहते हैं. मांडना का हिंदी में अर्थ बनाना या आकृति बनाना ही होता है. परन्तु मेघों के लिए यह सिर्फ आकृति या "मांडना" नहीं है बल्कि उनकी आस्था और संस्कृति का प्रतिस्वरूप पवित्र शुभंकर है. इसके अलावा वे अन्य आकृतियाँ बनाते हैं, उन्हें साधारणतया "मांडना" कहते हैं.

शादी के अवसर पर इस पवित्र चौक को चौकोर आकृति से बनाना शुरू करते हैं विवाह की चंवरी में आटे से स्वास्तिक के साथ बारह चौकोर खाने बनाकर करते हैं. मृत्योपरांत किये जाने वाले पवित्र क्रिया कर्म में चौक को वृत्त बना कर शुरू करते हैं. त्यौहार, उजोवन-उत्सव में विभिन्न रंगों के मनमोहक स्वरूप में बनाते हैं. मुख्य बात यह है कि यह उनकी आस्था की सांस्कृतिक परंपरा है. इसके पीछे उनका आध्यात्म और दर्शन गहरे रूप से जुड़ा है न कि आकर्षण.

इन प्रतीकों की प्राचीनता और गूढ़ता की जानकारी से अनभिज्ञ कुछ मेघों में हीनता घर कर गयी. अतः उससे उभरने के लिए वे देखा-देखी आसपास में प्रचलित दूसरे मनुवादी क्रियाकलाप अपनाने के लिए आतुर और उत्साहित होते हैं. ऐसा करने में उन्हें कुछ समय के लिए बड़प्पन आ जाता है. वे सोचते हैं कि वे भी मनुवादी धर्म में बराबर हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. उन्हें अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु खूब मेहनत करनी पड़ेगी नहीं तो निम्नतर ही रहेंगे.

(यह आलेख श्री ताराराम जी का लिखा हुआ है)

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