किसी भी
शुभ कार्य के लिए,
यथा
शादी-ब्याह,
उजोवणा-उत्सव
आदि के अवसर पर मेघ परिवार
अपने घर के आँगन को लीप-पोत
करके मुख्य आँगन के बीचों-बीच
चौक मांडते (बनाते)
हैं.
इसे वे
अपनी भाषा में "चौक-पूरणा"
कहते
हैं. जब
तक वह शुभ कार्य पूरा नहीं हो
तब तक उस चौक को उलिङ्गते (ऊपर
से चलते)
नहीं है
। इसे वे शुभ और पवित्र मानते
हैं.
प्रस्तुत
आकृति एक विवाह के अवसर की है.
बारात
आने के अवसर पर वधु के घर पर
सधवा (सुहागिन)
औरत यह
चौक बना रही है.
मेघों
की इस विरासत को शहरी या तथाकथित
सभ्य समाज आजकल रंगोली या
मन्दन मात्र कहता है.
उनके
लिए यह मात्र एक आकर्षक डिजाइन
है परन्तु मेघों के लिए उनके
विश्वास या आस्था का यह प्रतीक
है.
उनकी सांस्कृतिक
भाषा में इसे "मांडना"
नहीं
कहा जाता है। इसे वे "चौक
पूरणा"
कहते
है। पूरणा का अभिप्राय पूर्ण
या संपन्न करना ही बनता है।
चौक का अर्थ पवित्र शुभंकर
आकृति से ही है। जो प्रायः
स्वस्तिक आकृति का पल्लवन या
अभिवृद्धि है। चूँकि यह आकृति
है, इसलिए
साधारण लोग या इससे अनभिज्ञ
लोग इसे मात्र "मांडना"
कहते
है। मांडना का हिंदी में अर्थ
बनाना या आकृति बनाना ही होता
है। परन्तु मेघों के लिए यह
सिर्फ आकृति या "मांडना"नहीं
है बल्कि उनकी आस्था और संस्कृति
का प्रतिस्वरूप पवित्र शुभंकर
है। इसके अलावा वे अन्य आकृतियाँ
बनाते है,
उन्हें
साधारणतया "मांडना"कहते
है।
शादी के अवसर
पर इस पवित्र चौक को चौकोर
आकृति से बनाना शुरू करते है।
विवाह की चंवरी में आटे से
स्वास्तिक के साथ बारह चौकोर
खाने बनाकर करते है। मृत्युपरांत
किये जाने वाले पवित्र क्रिया
कर्म में चौक को वृत्त बना कर
शुरू करते है। त्यौहार,
उजोवन-
उत्सव
में विभिन्न रंगों के मनमोहक
स्वरुप में बनाते है। मुख्य
बात यह है कि यह उनकी आस्था की
सांस्कृतिक परंपरा है। इसके
पीछे उनका आध्यात्म और दर्शन
गहरे रूप से जुड़ा है न कि आकर्षण।
किसी भी शुभ
काम के लिए मेघवालों में किसी
भी प्रकार की हवन-पूजा
या यज्ञ आदि नहीं किया जाता
है. परसों
मुझे ग्रामीण इलाके में एक
शादी के कार्य-क्रम
में शरीक होने का मौका मिला.
यहाँ भी
वे ही क्रिया कलाप हुए,
जिसको
मैंने विवाह के प्रसंग में
उद्धृत किये थे.
समेला
के समय प्रयुक्त की जाने वाली
थाली और उसमें रखी सामग्री
विशेष रूप से विचारणीय है.
कांसे
की थाली में पानी से भरा लोटा
मंगल कलश का प्रतिरूप है.
पीली
हल्दी में सूत के धागे को पीला
करके लोटे के लपेटते है.
यहाँ
थाली में रखा है.
कलश में
खेजड़ी की कोपल वाली हरी टहनी
रखी है.
पीपल की
अनुपलब्धता में कलश में खेजड़ी
की हरी टहनी रखी जाती है.
थाली
में साख्या (स्वस्तिक)
उकेरा
गया है.
उसके आस
पास सूरज और चाँद साक्षी स्वरूप
उकेरे गए हैं.
थाली
में आखी बाजरी और गुड़ रखा है.
यह सब
सामग्री और इस समय के क्रिया
कलाप उनकी संस्कृति की विशिष्ठ
पहचान और निरंतरता को दर्शाते
हैं.
(यह
आलेख श्री ताराराम जी का लिखा
हुआ है)
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