"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


27 May 2014

Megh culture-3 - मेघ संस्कृति-3 - ਮੇਘ ਸਭਿਯਾਚਾਰ -3

मेघ समाज में वधु के घर बारात पहुँचने पर वर का स्वागत 'पुरखणे' और 'चमक दिये' (दीपक) से किया जाता है। "पुरखणा" शब्द को संस्कृतनिष्ठ पुरस्सरण शब्द से समीकृत किया जा सकता है। वर को पुरस्सृत करते समय वर को बधानेवाली महिला गाजे-बाजे के साथ मंगल कलश व मंगल थाल के साथ समूह में गीत गाते आती हैं। वह उस समय एक विशेष प्रकार का कच्चे सूत से बना शुभंकर धारण करती हैं। उसे भी पुरखणा कहते हैं। यह कच्चे सूत को तीन लड़ी बना कर तैयार करते हैं। तीनों लड़ियों को साथ करते हुए उसमें कुल नौ गांठें लगती हैं। प्रत्येक गाँठ में रूई लगी होती है। यह बन जाने पर उसे हल्दी से पीला रंग दिया जाता है। यह पुरखणा उसी समय बनाया जाता है। इसे गले में माला की तरह पहना जाता है। इन तीन लड़ियों और नौ गांठों का अपना सांस्कृतिक निहितार्थ है।

इस पुरखणे की रस्म में चमक दिया (झिलमिल करता दीपघर) भी विशेष होता है। जो तीन पतली-पतली डंडियों से बनाया जाता है। प्रायः यह बाजरे के सूखे डंठल की डंडियाँ ही होती हैं। इसमें तीनों डंडियों को तिपाही की तरह जोड़ा जाता है। जिसके ऊपरी सिरे जुड़े होते हैं और नीचे के सिरे फैले होते हैं। इन पर आदि डंडिया जोड़ दी जाती हैं। इसी प्रकार से क्षेतिज व ऊर्ध्वाकार रूप से बनी यह आकृति बनाने पर जहाँ डंडियाँ जुड़ती हैं वहाँ कच्चे सूत से हलकी-सी बांध दी जाती हैं और प्रत्येक गांठ (जोड़) पर आटे का एक दीपक बना दिया जाता है जिसमें घी और बाट डालकर प्रज्ज्वलित कर दिया जाता है। इसमें कुल चौबीस दीपक बनते हैं। यह आकृति चमक दीया या कहीं-कहीं झलामल भी कही जाती है। (मेघवंश : इतिहास और संस्कृति भाग दो भी देखिये)

(यह आलेख श्री ताराराम जी का लिखा हुआ है)


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