किसी समुदाय के इतिहास में उसका साहित्य एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है. उसकी पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र, न्यूज़लेटर,
इश्तेहार और ब्लॉग भी अपनी भूमिका रखते हैं. हालाँकि प्रकाशित
साहित्य हाथ पर रखी चीज़ की तरह है और इंटरनेट पर रखा साहित्य आम आदमी के लिए
कभी-कभार देखने की वस्तु है. आगे यह स्थिति बदल जाएगी.
यशपाल जी ने मेरे कहने पर ‘मेघ चेतना’ के शुरूआती दो अंक भेजने की कृपा की. यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो
रही है. मुझे लगा कि इसे सब की जानकारी के लिए सहेज लिया जाए. मैंने मेघवंश पर
सामग्री एकत्र करने के सिलसिले में कई जगह संपर्क साधा. अधिकतर जगहों से ‘मेघ चेतना’ के
बारे में पूछा गया. इससे स्पष्ट था कि पत्रिका के संपादक मंडल और इससे जुड़े अन्य
ने इसे न केवल दूर तक भेजा बल्कि सजीव बनाए रखा है.
दिसंबर 2000 में छपे इसके प्रथम अंक की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करना
प्रासंगिक होगा. मेघ चेतना के प्रथम मुख्य संपादक श्री ज्ञान चंद, आई.ए.एस.
थे. इसका संपादकीय ‘मेघदूत’ के नाम से लिखा गया था. इसमें कर्नल तिलक राज के ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म खिलने को हैं’ से बहुत अच्छी ग़ज़लें
छापी गईं. एक ग़ज़ल के दो शे’र नीचे दिए गए हैं:-
अम्न का फिर खोखला नारा लगाया जाएगा
दोस्ती की आड़ में ख़ंजर चलाया जाएगा
फिर से भर दी जाएगी सरहद की ख़ामोशी में आग
फिर से समझौतों को आपस में भुलाया जाएगा
मेघ चेतना के पहले ही अंक में एक बहुत महत्वपूर्ण लेख श्री यशपाल का
था जिसमें स्वयं सहायता समूह बनाने और उसके महत्व पर प्रकाश डाला गया था. यह उस
समय की ज़रूरत थी. विडंबना यह है कि आज सन् 2010 तक जम्मू-कश्मीर, पंजाब और
हरियाणा में इस दिशा कुछ भी महत्व का किया गया दिखाई नहीं देता.
इस
पत्रिका का दूसरा अंक चित्रों और रचनाओं के साथ बेहतरीन तरीके से सुसज्जित था.
इसमें अच्छी रचनाओं और लेखों को शामिल किया गया था. इसके बावजूद रचनाओं और
रचनाकारों की सीमाएँ स्पष्ट थीं. शायद इसीलिए आगे चल कर इसे मासिक पत्रिका के बजाय
त्रैमासिक करना पड़ा. तथापि यह पत्रिका अब नए रूप और गेटअप में छप रही है. इस
पत्रिका ने कई विकासात्मक, समाजोपयोगी, व्यक्ति
विकास, राजनीतिक जागरूकता, मेघ
समुदाय की महत्वपूर्ण गतिविधियों संबंधी विषयों पर लेख प्रकाशित किए हैं. इस पत्रिका ने अपनी एक मैट्रिमोनियल सेवा भी शुरू की. यह कहना
उचित होगा कि इसने मेघ समाज के मानस को प्रभावित किया है.
sure
ReplyDeleteतैंक्यू माधव.
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