Govind Guru |
(This post is based upon an article published in a magazine
‘Meena Bharati’, September-October 2007 issue. I came to know about it through my colleague
Vasundhara Meena. I am grateful to her.)
Govind Guru
(Govind Guru) was born on December 30, 1858, in Basipa Village, District Dungarpur in a Banjara
(gypsy) family. In the area of Bhils in Southern Rajasthan, Gujarat and Madhya
Pradesh this aboriginal community was a slave of two masters. They were slaves to
the British but more sadly they were slaves to local feudal, vassals and petty
self-made kings those not only exploited this community but also went to the lowest
levels of moral values to keep this tribe in abject poverty. An incident
of a massacre on the occasion of a religious ceremony held at Mangarh hill is an
apt example.
Guru Govind,
a socially conscious and religious personality had launched a different kind
of struggle against social evils prevailing in Bhils and Garasis. At that time
an organization named Samp Sabha was the symbol of unity of tribes in Gujrat.
The number of devotees in the organization had reached 5
lakhs. A goal of this
organization was to get their tribe free from the system of forced labour. The
movement was getting momentum and was strong enough to end the rule of feudal
and vassals etc. From the other end, feudal and vassals were conspiring to crush
it. They propagated that Guru Govind was a threat to British rule and got him
arrested. The tribe took it as a challenge and they had to release Guru Govind.
It did not end here. Atrocities against the tribals were increased. In addition
to violent attacks, the main objective was to shut down their schools. The
British masters were misinformed and told that tribals had been organizing
mutiny against the British rule and wanted to establish their own State. During
that period one Bhil Punja Dhira killed a policeman (thanedar) of Gathra village,
Santrampur, Gujrat because Thanedar was giving them brutal treatment and
tribals were fed up with him. The incident was promoted as treason and military
assistance from the British was requested.
In December 1908, like every year, a religious ceremony
‘Magh Purnima’ was prearranged on Mangadh hill. Bhil Meena (including women,
children and old men) had gathered for a religious ceremony. Those Bhil Meena,
influenced by the freedom movement, were also raising slogans against the
British, vassals, feudal and petty kings.
False rumours
were spread that the half-million Bhils had gathered on the hill and intended
to attack Santrampur district. The army of the British and the feudal
surrounded the hill from three sides and millions of unarmed people were indiscriminately
fired at. In order to save their lives, many people ran towards Khaidapa valley
and were killed in a stampede.
It is said
that 1500 Bhil Meena died in this massacre.
(Most of the references
mention 1500 as the number). After the massacre, the area was declared ‘restricted area’.
The purpose was to destroy evidence and prevent documentation. But -
"Blood is blood after all if dropped it remains in the earth.” Now people celebrate this martyrdom day on 17 November every year.
In the incidence of Jallianwala Bagh 379 people had died.
Shouldn’t Mangadh
incidence be given the same place in history as was given to Jallianwala Bagh
incidence? These brave people are the aboriginal tribe of India. Is their sacrifice
and sense of freedom less important?
This struggle makes the
real sense of 'Vande Mataram' of freedom struggle of Bhils because this land
belongs to them. They are aboriginals of this land. Their struggle is not yet
over. Their land is still grabbed and the law is not in their favour.
Mangadh Hill
is undoubtedly memorial of martyrs of Independence. Magh Purnima festival is
held even today.
Another
reference can be seen on the blog of Mr. Madhav Hada. (It was reported by Mr.
Pramod Pal Singh)→ धूणी तपे तीर: Author Mr. Hariram Meena
(यह पोस्ट एक पत्रिका ‘मीणा भारती’ के
सितंबर-अक्तूबर 2007
के अंक में छपी थी जिसकी जानकारी मुझे अपनी सहकर्मी वसुंधरा मीणा (Vasundhara
Meena) से मिली. उनका हृदय से आभार)
30 दिसंबर 1858 में बासीपा
ग्राम, ज़िला डूँगरपुर (Dungarpur) के
एक बंजारा (gypsy) परिवार में गोविंद गुरु (Govind Guru) का जन्म हुआ था.
दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में भीलों का
क्षेत्र दो तरफा गुलामी झेल रहा था. अंग्रेज़ों की और उनके एजेंट स्थानीय रजवाड़ों,
सामंतों, जागीरदारों आदि की जो स्वयं तो इनका
शोषण करते ही थे साथ ही इन्हें गरीबी की हालत में रखने के लिए हद दर्जे तक गिर
जाते थे. इसका एक उदाहरण मानगढ़ (Mangarh) पहाड़ी पर धार्मिक
समारोह के दौरान हुए भीषण नरसंहार (massacre) की घटना में
देखा जा सकता है.
सामाजिक रूप से जागरूक और धार्मिक व्यक्तित्व वाले
गोविंद गुरु, भीलों और गरासियों (Garasi) में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एक अलग लड़ाई लड़ रहे. तब गुजरात में गठित संप
सभा (Samp Sabha) आदिवासियों (tribes) की
एकता का प्रतीक थी. इस सभा में भक्तों की संख्या 5 लाख तक पहुँच चुकी थी. इस सभा
का एक लक्ष्य आदिवासियों से कराई जा रही बेगार (forced labor) से मुक्ति प्राप्त करना था. यह सामंतों, रजवाड़ों की
ज़ड़ों को हिलाने वाला आंदोलन बन रहा था. वे इसे कुचलने का षडयंत्र रच रहे थे.
उन्होंने गोविंद गुरु को एक खतरा बता कर गिरफ्तार कराया परंतु आदिवासियों ने इसे
चुनौती के रूप में लिया और गोविंद गुरु को रिहा करना पड़ा. इसका अंत यहीं नहीं
हुआ. इसके बाद आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ा दिए गए. हिंसात्मक हमलों के अलावा आदिवासियों की पाठशालाओं को बंद कराना उनका एक बड़ा प्रयोजन था. अंग्रेज़ आकाओं के सामने यह रोना रोया
गया कि आदिवासी राजद्रोह करके एक अलग राज्य की स्थापना करना चाहते हैं. इन्हीं
दिनों गठरा गाँव, संतरामपुर (Santrampur), गुजरात (Gujrat) के एक क्रूर थानेदार की हरकतों से
तंग आ चुके भील पूँजा धीरा (Punja Dhira/Poonja Dhira)
ने उसकी हत्या कर दी. इसे राजद्रोह के तौर पर प्रचारित किया गया और
अंग्रेज़ों से सैनिक मदद माँगी गई.
प्रति वर्ष की भाँति दिसंबर 1908 में माघ पूर्णिमा
के दिन मानगढ़ पहाड़ी पर धार्मिक समारोह पूर्वनिर्धारित था. धार्मिक समारोह के लिए
भील मीणा स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों
सहित एकत्रित थे. स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित वे भील मीणा अंग्रेज़ों, जागीरदारों, सामंतों और रजवाड़ों के विरुद्ध भी
आवाज़ उठा रहे थे. झूठी अफ़वाह फैला दी गई कि पहाड़ी पर एकत्रित होने वाले डेढ़
लाख भील संतरामपुर जिले पर हमला करने वाले हैं. अंग्रेज़ और सामंती सैनिकों ने
पहाड़ी को तीन ओर से घेर लिया और निहत्थे आदिवासियों पर गोलियों की बौछार कर दी.
लाखों लोगों पर अंधाधुँध गोलीबारी की गई. जान बचाने के लिए कई लोग खैड़ापा खाई की
ओर भागे और भगदड़ में मारे गए. इस कांड में कहा जाता है कि गोलीबारी में 1500 भील
मीणा शहीद हुए. (अधिकतर संदर्भों में यह संख्या 1500 ही देखी गई है) नरसंहार के
बाद इस क्षेत्र को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसका उद्देश्य साक्ष्य
मिटाना और दस्तावेज़ीकरण को रोकना था. लेकिन- ‘ख़ून फिर
ख़ून है,
टपकेगा तो जम जाएगा.’ अब हर वर्ष अंग्रेज़ी माह नवंबर की 17 तारीख को उन शहीदों को यहाँ श्रद्धांजलि देने के लिए लोग एकत्रित होते हैं.
जलियाँवाला बाग़ काँड (Jallianwala Bagh) में 379 लोग शहीद हुए थे. उसे इतिहास में जो
जगह दी गई है क्या मानगढ़ काँड को उससे अधिक महत्व का स्थान नहीं मिलना चाहिए था? ये शहीद
लोग भारत के मूल निवासी हैं. इनकी आज़ादी की भावना या स्वतंत्रता के लिए दी गई
प्राणों की आहुती क्या कम महत्वपूर्ण है? यह आंदोलन काँड बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (Bankim
Chandra Chatterjee) के उपन्यास ‘आनंदमठ’ (Anandmath) में
लिखे राष्ट्रगान ‘वंदेमातरम्’ (Vande Matram) को सही संदर्भ देता है कि भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता-संघर्ष अभी चल रहा है. उनकी
ज़मीनें आज भी छीनी जा रही हैं और कानून उनकी मदद नहीं करता.
मानगढ़ पहाड़ी निस्संदेह स्वतंत्रता के दीवाने
शहीदों का स्मारक (Monument of Martyrs) है. माघ पूर्णिमा का मेला आज भी
आयोजित होता है.
श्री माधव हाड़ा (Madhav
Hada) के ब्लॉग पर इसका एक संदर्भ इस प्रकार है (इसकी सूचना श्री
प्रमोद पाल सिंह ने अपनी टिप्पणी से दी है) → धूणी तपे तीर :
लेखक श्री हरिराम मीणा (Hariram Meena)
The monument |
भीलों के बारे में दुशप्रचार ही किया जाता रहा है. इस लेख को प्रकाशित कर आपने हमारा ज्ञांवर्धन किया है. मानगढ़ कांड को स्थाई रूप से भीलों के गौरव गाथा के रूप में इतिहास में स्थान दिया ही जाना चाहिए.
ReplyDeleteआदरणीय सुब्रमणियन जी, उत्साह वर्धन के लिए आभार. आपकी टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करती हैं.
ReplyDeleteग्यानवर्द्धक पोस्ट। इस विशःय पर मेरी जानकारी बहुत कम है। धन्यवाद।
ReplyDeleteइतिहास को भी/ तो
ReplyDeleteजवाब भी देना ही पड़ेगा
समय जब करेगा सवाल
कि/ किन अंधकूपों में
फ़ैंक दी थी कभी कुंजियां
उन बंद अंधेरे कमरों की
जहां तक पहुंचने का
रास्ता तक भी
गायब हो चुका है
लोक मानस के भंडार तक से
विचारणीय और सार्थक प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
यह एक संगठित,सुनियोजित,दीर्घकालीन और तैयारी के बाद किया गया विद्रोह था, जिसमें शहीद होने वोले आदिवासियों की संख्या जलियावाला हत्याकांड से चार गुना अधिक थी। विडंबना यह है कि इतिहास में इसका उल्लेख नहीं है।..........उपनिवेशकालीन दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी विद्रोह पर हरिराम मीणा की रचना धूणी तपे तीर उपन्यास की समीक्षा से भी इस विषय में प्रकाश पड़ता हैं।
ReplyDeleteइसके लिए देखें मेरे प्राध्यापक रहें श्री माधव हाड़ा का ब्लॉग लिंक-
http://madhavhada.blogspot.com/2009/06/blog-post.html
@ डोरोथी आपकी पंक्तियाँ याद रहेंगी.
ReplyDelete@ प्रमोद जी आपके द्वारा भेजी जानकरी आलेख में ही लिंक कर दी गई है.
I do not understand why "meena" is attached here with "bheel" identity ...that struggle and awakening was purely a BHEEL activity ...there is huge difference between socio-economic levels of bheels and meenas and they are totally different clan and cast ...no need to share the pride
ReplyDeleteShri Guru Govindsinh ji ki shahidi rang layegi agar HUM Hindustani Ek Ho kar prayatna kare to
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