स्वतंत्रता से पहले स्यालकोट में उस समय धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की कुछ विशेषताएँ थीं जिन्हें जान लेना ज़रूरी है.
मेघवंशियों को इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख पंथ में ले जाने के लिए संस्थाएँ सक्रिय थीं. स्यालकोट नगर में रोज़गार के अवसर काफी थे. यहाँ मेघजन उद्योगों में रोज़गार पा कर आर्थिक रूप से सक्षम बन रहे थे. इनके सामाजिक संगठन तैयार हो रहे थे. उल्लेखनीय है कि ये आर्यसमाज द्वारा आयोजित शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुज़रने से पहले मुख्यतः कबीरमत के अनुयायी थे और मेघ ऋषि तथा कबीर से जुड़े कपड़ा बुनने के व्यवसाय में लगे थे.
इन्हीं दिनों लाला गंगाराम ने इनके लिए स्यालकोट से दूर एक ‘आर्यनगर’ की परिकल्पना की और एक ऐसे क्षेत्र में इन्हें बसने के लिए प्रेरित किया जहाँ मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी. स्यालकोट, गुजरात और गुरदासपुर में 36000 मेघों का शुद्धिकरण करके उन्हें हिंदू दायरे में लाया गया. सुना है कि आर्यनगर के आसपास के क्षेत्र में मेघों को आर्य भगत बनाने से वहाँ मुसमानों की संख्या 51 प्रतिशत से घट कर 49 प्रतिशत रह गई थी. वह क्षेत्र लगभग जंगल था.
नंगी आँखों से देखा जाए तो धर्म के दो रूप हैं. पहला है अच्छे गुणों को धारण करना. इस धर्म को प्रत्येक व्यक्ति घर में बैठ कर किसी सुलझे हुए व्यक्ति के सान्निध्य में भी धारण कर सकता है. दूसरा और मुख्य रूप है धर्म के माध्यम से धन बटोर कर राजनीति करना.
सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और उनके संतमत ने निराकार की भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था. इससे परंपरावादी चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर जाने लगा. आगे चल कर परंपरावादियों ने निराकारवादी आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि ‘निराकार’ की ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. अतः उन्होंने कई प्रयोजनों से मेघवंशियों को लक्ष्य करके स्यालकोट में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ मेघों को आत्मविश्वास जगाने के रूप में हुआ. नुकसान यह हुआ कि मेघों के मुकाबले आर्य मेघों, जिन्हें आर्य भगत कहा गया, को अलग और ऊँची पहचान दी गई और नाम के आधार पर मेघों का एक विभाजन और हो गया. भगत अपने आप को मेघों से अलग करने लगे. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ा.
सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और उनके संतमत ने निराकार की भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था. इससे परंपरावादी चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर जाने लगा. आगे चल कर परंपरावादियों ने निराकारवादी आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि ‘निराकार’ की ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. अतः उन्होंने कई प्रयोजनों से मेघवंशियों को लक्ष्य करके स्यालकोट में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ मेघों को आत्मविश्वास जगाने के रूप में हुआ. नुकसान यह हुआ कि मेघों के मुकाबले आर्य मेघों, जिन्हें आर्य भगत कहा गया, को अलग और ऊँची पहचान दी गई और नाम के आधार पर मेघों का एक विभाजन और हो गया. भगत अपने आप को मेघों से अलग करने लगे. सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ा.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मेघवंशियों के उत्थान के मामले में आर्यसमाज ने धीरे-धीरे अपना हाथ खींच लिया. यहाँ भारत में मेघ भगतों की ज़रूरत हिंदू के रूप में कम और सस्ते करिंदों/मज़दूरों के तौर पर अधिक थी. सस्ते श्रम को कौन खोना चाहेगा? मेघवंशियों की अपनी कोई धार्मिक या राजनीतिक पहचान नहीं थी. जिस धर्म या राजनीतिक पार्टी ने इन्हें समानता का सपना दिखाया ये उधर झुकने को विवश थे. राधास्वामी मत और सिख धर्म ने भी वही कार्य किया जो परंपरावादियों ने ‘निराकार’ के माध्यम से किया. इनका साहित्य मानवता और समानता की बात तो कर ही लेता है. शायद इतना काफी हो.
मेघवंशी कई धर्मों-संप्रदायों में बँटे. कई कबीर धर्म की ओर लौट गए. कई राधास्वामी धर्म में आ गए. कुछ गुरु गद्दियों में बँट गए. कुछ सिखी और ईसाईयत की ओर चले गए. कुछ देवी-देवताओं को पूजने लगे. कुछ आर्यसमाज के हो गए. वैसे ये स्वयं को मेघऋषि के वंशज मानते हैं और भावनात्मक रूप से कबीर से जुड़े हैं. मेघवंशियों में गुजरात के मेघवारों ने अपने धर्म- बारमतिपंथ- को सुरक्षित रखा है. राजनीतिक एकता में राजस्थान के मेघवाल आगे हैं.
(विशेष टिप्पणी- कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ पंजाब के कबीरपंथियों पर विस्तार से रोशनी डालता है. यदि वे इसे यूनीकोड में उपलब्ध करा सकें तो लाभ होगा.)
MEGHnet
(विशेष टिप्पणी- कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह का शोधग्रंथ पंजाब के कबीरपंथियों पर विस्तार से रोशनी डालता है. यदि वे इसे यूनीकोड में उपलब्ध करा सकें तो लाभ होगा.)
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मेघ समाज पर अच्छा निबंध लिखा है , आपने . साधुवाद !
ReplyDeleteYes Sir, you are absolutely right. Since centuries our people are being segregated in different sects and beliefs. Even, Dr. Ambedkar in his various quotes has logically mentioned about graded inequality prevalant in the Hindu Society.
ReplyDeleteAbove post clearly defines our separatism amongst each of various Meghwal Sects and beliefs. A million dollar question is whether all Meghwals will congregate under one platform, which shall pave a way for new dimension in social, educational and religious solidarity. I think, religion is the base to unite people under one canopy. Let us find our base religion, which had once united all Meghwals under single name.
Let us not forget an old proverb - United we stand, divided we fall.
With Great love,
Navin K. Bhoiya
Dear Bhagatji,it is nice post on meghwar,origin and conversion in different religoins path, many meghwars in south gujarat are converted in christian due untouchability in Hinduism,
ReplyDeletefrom nitin vinzoda,
Jamnagar,gujarat
good site
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