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कक्षाओं में तुलसीदास
कक्षाओं में तुलसीदास
कक्षाओं को पढ़ाते हुए डॉ. गोविंदनाथ राजगुरु कहा करते थे कि तुलसीदास कवि बहुत अच्छे हैं लेकिन थिंकर (चिंतक) के तौर पर बेकार हैं. थिंकर के तौर पर कबीर बेमिसाल हैं.
डॉ.
वीरेंद्र मेंहदीरत्ता कहा करते थे कि तुलसी की हर बात को माफ़ किया जा सकता है लेकिन
इस बात को नहीं- 'जाके प्रिय न राम वैदेही, सो छाँडिए कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही'.
सही है. स्नेही पर धर्म-आस्था का कोड़ा बरसाना अच्छी बात नहीं. तुलसी ने ही
कहीं लिखा है- 'देखत ही हरषे नहीं, नैनन नाहिं स्नेह, तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे
मेह'. तो तुलसी का त्यागा हुआ परम स्नेही व्यक्ति जिसकी अपनी आस्था पर राम-वैदेही की छवि उकेरी हुई नहीं है, तुलसी के घर क्यों आएगा? यह बात और है कि राम-वैदेही के मंदिरों ने तुलसी के समाज को अच्छी
आजीविका दी है.
डॉ.
लक्ष्मीनारायण शर्मा कहा करते थे, "तुलसीदास का यह कथन- 'ढोर, गँवार, शूद्र, पशु,
नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी'- यह वास्तव में रामचरित मानस में समुद्र के मुँह से
कहलवाया गया है जो राम के मार्ग में बाधक था और उस समय विलेन था. जरूरी नहीं कि
विलेन का कथ्य तुलसी का भी कथ्य हो." चलिए, आपकी बात भी मानते चलते हैं पंडित जी.
डॉ.
पुरुषोत्तम शर्मा इसे कौमा-डैश का हेर-फेर मानते हुए कहते थे कि तुलसीदास का इससे
तात्पर्य था- 'ढोर, गँवार-शूद्र, पशु-नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी'. यानि अगर शूद्र
गँवार हो या नारी पशु जैसी हो तो वे ताड़ना के अधिकारी हैं. बहुत
खूब. इसके
निहित संदर्भों की
व्याख्या रुचिकर होगी क्योंकि तब शूद्र और नारी के लिए शिक्षा की मनाही थी.
अतः उन्हें 'गँवार' और 'पशु' की श्रेणी में रखने का रिवाज़ रहा होगा.
कुछ
बात तो है कि ब्राह्मण समाज तुलसीदास को सिर पर उठाए फिरता है और दूसरों को भी
ऐसा करने की सलाह देता है. लेकिन यह तय है कि समय के साथ तुलसी साहित्य
की व्याख्याएँ
बदलती रहीं. संभव है कि तुलसी के साहित्य में हेर-फेर भी किया गया हो.
तुलसी के साहित्य से ऐसे कई उद्धरण हैं जिन्हें आज विभिन्न लेखक अलग दृष्टि से पहचानते हैं. एक सज्जन ने जातिवादी दृष्टि से तुलसी की इन पंक्तियों- 'पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना.'- की व्याख्या की और तुलसी पर जम कर बरसे और फिर इस पर ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का ठप्पा लगा दिया. चलिए जी, ठीक है जी......
लेकिन मैं तुलसी के उक्त कथन को बहुत महत्व देता हूँ.
'पूजिए
विप्र जदपि गुन हीना' (अर्थात् ब्राह्मण यदि गुणहीन भी है तो भी पूजनीय है).
स्पष्ट है कि यहाँ विद्वान, ज्ञानी, दूसरों का भला करने वाले व्यक्ति की बात नहीं
हो रही बल्कि ब्राह्मण समुदाय के किसी व्यक्ति की बात है जो सिर्फ़ अनाज का दुश्मन
है.
अब
मैं सोचता हूँ कि तुलसीदास ने क्या लिखा. वे ब्राह्मण थे और वे अपने समुदाय के गुणहीन
व्यक्ति को भी पूजनीय कह रहे हैं तो इसमें उनकी उदार दृष्टि और प्रेम भावना झलकती है. इसमें ग़लत क्या है? वे अपने समुदाय की छवि को ऊँचा उठाते रहे और उनका समुदाय आज उन्हें उठाए-उठाए फिरता है.
अपने समुदाय के सदस्यों के कार्य, कला, ज्ञान और उत्पाद (product) की जानकारी लें और परस्पर चर्चा करें. फिर जहाँ भी अवसर आए उसकी यथोचित प्रशंसा करें. यह सब को अच्छा लगेगा. इस प्रकार एक-दूसरे का आवश्यक सामाजिक-आर्थिक सहयोग अपने आप होता रहता है.
तुलसीदास दुबे सामुदायिक उन्नति के इस सरलतम मार्ग को जानते थे. उनकी सभी बातें आप माने या न माने, केवल अपने समुदाय के प्रति आदर और प्रेम-भावना को घना करके हृदय तक उतार लें तो समुदाय के विकास का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. आपकी उन्नति और सफलता निश्चित है.
अपने समुदाय के सदस्यों के कार्य, कला, ज्ञान और उत्पाद (product) की जानकारी लें और परस्पर चर्चा करें. फिर जहाँ भी अवसर आए उसकी यथोचित प्रशंसा करें. यह सब को अच्छा लगेगा. इस प्रकार एक-दूसरे का आवश्यक सामाजिक-आर्थिक सहयोग अपने आप होता रहता है.
तुलसीदास दुबे सामुदायिक उन्नति के इस सरलतम मार्ग को जानते थे. उनकी सभी बातें आप माने या न माने, केवल अपने समुदाय के प्रति आदर और प्रेम-भावना को घना करके हृदय तक उतार लें तो समुदाय के विकास का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. आपकी उन्नति और सफलता निश्चित है.
वेद,उपनिषद में ब्राह्मन का अर्थ यह लिया गया था - जो ब्रम्ह अर्थात परमात्मा में लीन हो. विकृतियां समय के साथ जुड़ती रहती है और जिसके हाथ जो झंडा लग जाए उसी को उंचा उठाये रखता है. इसलिए किसी एक को सही ठहराना सर्वथा अनुचित है. अंतत: निज आंखन देखि ही हमारा सत्य है.
ReplyDelete"निज आंखन देखि ही हमारा सत्य है."
Deleteइससे अधिक सत्य क्या हो सकता है कि हर व्यक्ति का अपना सत्य होता है.
तुलसी की विह्वलता में बंध
ReplyDeleteक्यों लोग मनाते दीवाली ?
आपका आभार.
DeleteAbdul Hameed Khan via email-
ReplyDeleteमेघनेट के एक-दो आर्टिकल पढ़े. कहीं कुछ लिख रहा हूँ :
Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry के लिए यथास्थिति फिक्की और उसी तर्ज़ पर डिक्की शब्दों का इस्तेमाल भी, करने पर विचार करें. तुलसीदासवाला लेख भी पढ़ गया, उसमें दिया गया एक दोहा मैंने कुछ इस तरह भी पढ़ा है, "आवत ही हर्षे नहीं.........कंचन बरसै मेह".
आपका आभार अब्दुल हमीद जी.
Deleteतुलसी कोई ब्रह्मा तो नहीं कि उनके हर शब्द वाक्य को ब्रह्म वाक्य माना ही जाय ....
Deleteमगर उनके कथनों को बहुत सावधानी से देखा जाना होगा ...
सोचिय शूद्र विप्र अवमानी मुखर मान प्रिय ज्ञान गुमानी
शूद्र का अर्थ यहाँ मात्र मैं सेवक से लेता हूँ ......और विप्र का विद्वान् से द्विज से ....
आपसे सहमत हूँ अरविंद जी.
Deleteअमृता जी कि बात से सहमत हूँ अंकल ....
ReplyDeleteअमृता जी सुलझी हुई बात कहती हैं. उनकी टिप्पणियों का मैं कायल हूँ. आपका आभार.
Deleteऔर मुझे तो आपका कुछ भी कहने का अंदाज़ आकर्षित करता है साथ ही प्रभावित भी .
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रिया.
Deletebahut badiya gyanvardhak prastuti ...aabhar!
ReplyDeleteआपका आभार कविता जी.
DeleteAmrita Tanmay
ReplyDeletehas left a new comment on your post "Tulsidas knew the art of loving his people - तुलसी...":
और मुझे तो आपका कुछ भी कहने का अंदाज़ आकर्षित करता है साथ ही प्रभावित भी .