(वैसे
तो मेघों और जाटों के संघर्ष
का एक अध्याय भी है जो काफी पुराना है.
लेकिन
अब तक वह संघर्ष जमीन के मालिकों
और कमेरों के बीच सहयोग और
परस्पर निर्भरता मेँ बदल चुका
है.
जाति
के तौर पर भले ही वे अलग-अलग
हों लेकिन कृषि और संबद्ध
कार्यों के कारण उनकी समस्याएँ
आपस मेँ जुडी हैं. अच्छी फसल से या खराब फसल से वे समान रूप से प्रभावित होते हैं. सामाजिक उथल-पुथल को इन्होंने संयुक्त रूप से और अलग-अलग झेला है.
पिछले
दिनों फेसबुक पर राकेश सांगवान
की वॉल पर उनका एक आलेख पढ़ने
को मिला.
इसमें
सर छोटूराम के विचारोँ के आधार
पर दलितों और जाटों के धर्म सहित कई साझा संकटों पर भी प्रकाश डाला
गया है.
अभी
तक मेघनेट पर जो लिखा है वह
मेघ sensibility
की
दृष्टि से लिखा गया है. प्रस्तुत आलेख जाट दृष्टिकोण
पर पर्याप्त रूप से प्रकाश
डालता है.
राकेश
सांगवान ने इसे मेघनेट पर
प्रकाशित करने की अनुमति दी
है इसके लिए उनका आभार.)
"तुम
अगर बिछड़े रहो तो चंद कतरे ही
फकत
अगर
मिल जाओ तो बिफरा हुआ तूफान
हो तुम"
हमारे
देश में जाति आधार
पर जनगणना आखिरी बार 1931
में
हुई थी.
उस वक़्त
भारत में जाटों की
आबादी इस प्रकार थी -
1)
पंजाब
- 73%, 2)
राजस्थान
- 12%, 3) यू.पी
- 9.2%, 4)
जम्मू
कश्मीर -
2%, 5) बलोचिस्तान
- 1.2%, 6)
एनडबल्यूएफ़पी
(NWFP)-1%, 7)
बॉम्बे
प्रेसीडेंसी -
0.7%, 8) दिल्ली
- 0.6%, 9) सीपी
& बार
- 0.3%, 10)
अजमेर
& मारवाड़
– 0.3%.
जिसमें
हिन्दू जाट -
47%, सिख
जाट -
20%, मुस्लिम
जाट – 33%.
कुछ
लोग जिनकी आबादी देश में
मुट्ठी भर है वे लोग
जाट व अन्य दूसरी किसान व दलित
जातियों को धर्म के नाम पर
बाँट कर उनके साथ भेड़ बकरियों
की तरह बर्ताव करते हुए अपने
स्वार्थों के लिए
इस्तेमाल किया करते.
चौधरी
छोटूराम शहरी लोगों
की इस चाल को भली भांति समझ गए
थे इसलिए उन्होंने
अलग-अलग
पंथों धर्मो में
बंटे जाटों को एक किया,
उनको
उनकी शक्ति का एहसास दिलाया.
जाटिज्म
का नारा सबसे पहले चौधरी छोटूराम
ने दिया था.
सन 1929
में
अखिल भारतीय जाट महासभा के
आगरा अधिवेशन में
चौधरी छोटूराम ने पहली बार
कहा था "राज
करेगा जाट".
पंजाब
एसेमम्ब्ली में
इस बात पर काफी हल्ला हुआ.
चौधरी
छोटूराम ने इस पर जवाब देते
हुए कहा था कि लोकतन्त्र
का सिद्धांत है कि
"जिसकी
जितनी संख्या भारी उसकी उतनी
हिस्सेदारी"
और मैंने
जिस सभा में यह बात
कही थी वहाँ 25-30
हजार
लोगों की भीड़ थी
जिसमें 90%
जाट थे.
पंजाब
में 73%
जाटों
के साथ साथ चौधरी छोटूराम ने
दलित व दूसरी किसान जातियों
के हितों का भी पूरा ख्याल
रखा.
चौधरी
छोटूराम ने कृषक जातियों को
लेकर अजगर (अहीर,
जाट,
गूजर,
राजपूत)
का निर्माण
किया.
चौधरी
छोटूराम की असली ताकत अजगर
थे. चौधरी
छोटूराम ने बड़ी सफलता के साथ
किसान व जातिगत आधार पर राजनीति
की, ये
दोनों एक ही धुरी के बड़े और
छोटे चक्र हैं.
इसी नीति
को आगे चल कर चौधरी देवी लाल
ने भी अपनाया,
उन्होंने
महा-अजगर
का पुनः निर्माण किया (मुसलमान,
अहीर,
जाट,
गूजर.
राजपूत)
और जिसके
दम पर केंद्र की सत्ता तक गए.
पंजाब
में चौधरी छोटूराम
ने सर सिकंदर हयात खान और बाद
में सर खिजर तिवाना
के साथ हिन्दू-मुस्लिम
जाट किसानों की
एकता को मजबूत बनाए रखा.
यह एकता
इतनी मजबूत थी कि जिन्नाह को
पंजाब में पैर जमाने
मुश्किल हो रखे थे.
एक बार
तो जिन्नाह को एक मुस्लिम जाट
विधायक ने टका-सा
जवाब दे दिया था कि पहले हम
जाट हैं और बाद में
मुस्लिम और हम जाटों का नेता
है चौधरी छोटूराम.
चौधरी
छोटूराम की मुस्लिम
जाटों से यह एकता हिंदुओं
के ठेकेदारों को सुहा नहीं
रही थी,
जिसकी
जलन में हिन्दुओं
के अखबार चौधरी छोटूराम को
हिटलर छोटूखान लिख कर उन्हे
अपमानित करने की
कोशिश करते.
जैसी
हिन्दू-मुस्लिम
किसानों की
एकता पंजाब में थी
वैसी ही एकता बंगाल में
कृषक प्रजा पार्टी के फजलूल
हक बनाए हुये थे.
वाइसराय
के कहने से फजलूल हक जिन्नाह
की मुस्लिम लीग में
शामिल हो गए परंतु कुछ दिनों
बाद ही वे मुस्लिम लीग से अलग
हो गए.
1941 में
मुस्लिम लीग से अलग हो कर फजलूल
हक़ कांग्रेस के
सहयोग से सरकार बनाना चाहते
थे परंतु काँग्रेस ने शर्त
रखी कि सरकार बनते ही वे पहला
फैसला जेल में बंद
क्रांतिकारियों की
रिहाई का लेंगे.
इस पर
फजलूल हक ने कहा कि कृषक प्रजा
पार्टी सबसे पहला फैसला किसनों
के हक में लेगी.
कांग्रेस
से बात सिरे न चढ़ने पर फजलूल
हक ने डॉक्टर श्यामा प्रसाद
मुखर्जी के साथ मिल कर सरकार
बनाई.
सरकार
में श्यामा प्रसाद
मुखर्जी वित्त मंत्री बने.
फजलूल
हक़ ने अपनी वकालत डॉक्टर श्यामा
प्रसाद मुखर्जी के
पिता कलकत्ता के नामी वकील
सर आशुतोष के सहायक के रूप में
शुरू की थी.
वित्त
मंत्री श्यामा प्रसाद
मुखर्जी अक्सर सीएम फजलूल हक़
को अपने साथ हिन्दू महासभा
की कार्यकारी मीटिंग में
ले जाते थे.
ये वही
श्यामा प्रसाद
मुखर्जी जिन्होंने
आज़ादी के बाद गोलवलकर के कहने
पर काँग्रेस से अलग हो कर जनसंघ
पार्टी का गठन किया.
1947
में
मुस्लिम लीग और आरएसएस ने अपनी
गतिविधियाँ तेज कर
दी थीं.
दोनों
संगठनों ने अपनी
अपनी निजी सेनाएँ
बनानी शुरू कर दी थीं.
खुफिया
विभाग की रिपोर्ट के आधार पर
पंजाब के प्रीमिएर सर खिजर
तिवाना ने 24
जनवरी
1947 को
दोनों संगठनों पर
प्रतिबंध लगा दिया था.
इन दोनों
संगठनों की पकड़
सिर्फ शहरी लोगों
तक थी.
देहात
में इन लोगों
का ज्यादा असर नहीं था यही
कारण था कि देश के
लगभग हर प्रान्त में
देहात के लोगों की
सरकारें थीं.
यह बात
इन शहरी लोगों के
संगठनों को बर्दाश्त
नहीं हो रही थी और इन दोनों ही
संगठनों ने लोगों
को धर्म के नाम पर भड़काना शुरू
कर दिया.
ये दोनों
संगठन पंजाब व बंगाल के लोगों
को धर्म के नाम से भड़काने में
सफल रहे और अगस्त 1947
में
देश का पंजाब व बंगाल दो जगह
से बंटवारा हुआ.
देश आज़ाद
होने के बाद एक बार फिर से
आरएसएस पर देश के तत्कालीन
गृह मंत्री सरदार पटेल ने
प्रतिबंध लगाया.
1947 का
बंटवारा देश का या पंजाब का
बंटवारा नहीं था असल में
यह जाटों का धर्म के नाम पर
बंटवारा था,
पंजाब
के 73%
जाटों
की ताकत का बंटवारा था.
चौधरी
छोटूराम की विचारधारा का
बंटवारा था.
ये धर्मों
के ठेकेदार कभी नहीं चाहते
कि जाट एक हो,
जाटों
को इनकी ताकत का एहसास हो इसलिए
ये लोग हमें धर्म की बूटी सुंघाए
रखना चाहते हैं.
चौधरी
छोटूराम इनकी चालों को भली
भांति समझते थे.
चौधरी
छोटूराम खून के रिश्ते को
ज्यादा महत्व देते थे,
उनका
कहना था "एक
आदमी दिन में चाहे
तो तीन बार अपना धर्म बदल सकता
हैं,
परंतु
वह अपनी जाति नहीं बदल सकता".
आज भी
जाट चाहे किसी धर्म में
हो वह अपनी जाति से ही जाना
जाता हैं.
चौधरी
छोटूराम ने कहा था-
"हमने
माना की मजहब जान हैं इंसान
की, इसी
के दम से कायम कुछ शान हैं इंसान
की,
रंग-ए-क़ौमियत
मगर इससे बदल सकता नहीं,
खून आबाई
रग ओ तन से निकल सकता नहीं"
(आबाई=पूर्वज),
उनके
कहने का अर्थ साफ था कि
जितने धर्म बदल लो परंतु
तुम्हारी रगों से पूर्वजों
का खून नहीं निकल सकता.
आरएसएस
आज भी सिर्फ शहरी लोगों
तक सीमित हैं.
हमारे
जो लोग इस संगठन में
हैं वे भी वही हैं जो शहरों
में जा कर बस गए हैं.
असल में
इस संगठन के आका जिनकी आबादी
देश में मुश्किल
से 3% होगी
नहीं चाहते कि हमारे
लोग होश में आएँ,
इसलिए
हमारे लोगों को धर्म
की बूटी सुंघाए रखते हैं.
कभी ये
लोग हमें धर्म के
नाम पर लड़ाते हैं तो कभी जात
के नाम पर.
जाट-दलित
के झगड़े,
जाट-गूजर
के झगड़े,
जाट-राजपूत
के झगड़े,
जाट-मुस्लिम
के झगड़े सबने खूब सुने होंगे
परंतु शायद ही कभी यह सुना हो
की ब्राह्मण-दलित
झगड़ा हुआ हो,
ब्राह्मण
या किसी कृषक जाति का झगड़ा हुआ
हो. हमारा
कोई भी नेता ऊपर उठता है तो यह
लोग उस पर जाति का ठप्पा लगा
कर उसे वहीं रोक
देते हैं,
जैसे कि
यह तो दलितों का नेता हैं,
यादवों
का नेता हैं,
जाटों
का नेता है या क्षत्रियों का
नेता है आदि.
परंतु
यह शायद ही कभी सुनने में
आता हो कि यह तो
ब्राह्मणों का नेता है.
यह
लोग हमारे लोगों
को बदनाम करने में
कोई कसर नहीं छोडते.
कुछ हमारे
ही लोग इनकी बातों में
बहक कर इनके शंख की तरह बजते
रहते हैं.
कुछ दिन
पहले एक भाई ने बताया कि
उसने दिल्ली में
एक युवा जाट मीट (बैठक) की थी,
उस मीट
में एक आरएसएस का
कोई पदाधिकारी भी आया हुआ था.
वो संघ
का पदाधिकारी कहने लगा कि
छोटूराम अंग्रेजों
का पिट्ठू था,
सर की
उपाधि ली हुई थी,
मुसलमानों
से मिला हुआ था.
आजकल
ऐसे भटके हुए बहके हुए और भी
कई भाई मिल जाएंगे जो बिना कुछ
सोचे समझे संघ के शंख का काम
कर रहे हैं.
ऐसे मूर्ख
यह कभी नहीं सोचते कि
इन संघियों को चौधरी छोटूराम
के सर की उपाधि लेने से तकलीफ
होती हैं.,
इनको
श्यामा प्रसाद
मुखर्जी के पिता सर आशुतोष
की सर की उपाधि कभी नजर नहीं
आती? इन
संघियों को चौधरी छोटूराम का
मुस्लिमों के प्रति
प्रेम तो नजर आ जाता है परंतु
इनको श्यामा प्रसाद
मुखर्जी का फजलूल हक के प्रति
प्रेम कभी नजर नहीं आता?
हमें
मुस्लिमों के प्रति
भड़काते हैं.
इनका
वीर सावरकर पंजाब में
सर सिकंदर हयात खान से क्यों
मिलने आया था?
कुछ संघी
जाट दुष्प्रचार करते है कि
चौधरी छोटूराम अंग्रेजों
से मिले हुए थे उन्होंने
कभी आज़ादी नहीं मांगी,
ऐसा ये
बहके हुए लोग संघी आकाओं के
बातों में आ कर बोलते
हैं.
चौधरी
छोटूराम से एक बार किसी पत्रकार
ने पूछा था कि आपको
आज़ादी नहीं चाहिए?
इस पर
चौधरी छोटूराम का जवाब था-
"हमे
भी आज़ादी चाहिए परंतु उस आज़ादी
से पहले मैं अपने लोगों
को इस काबिल तो कर लूँ की उन्हें
आज़ादी के मायने पता हों,
नहीं तो
आज ये गोरे बनिए हम पर राज कर
रहे हैं आज़ादी के बाद काले
बनिए हम पर राज करेंगे."
यही बात
शहीद-ए-आज़म
भगत सिंह ने भी कई बार दोहराई
थी. इन
दोनों ने जैसा कहा था आज़ादी
के बाद बिलकुल वैसा ही हुआ,
आज़ादी
के बाद से देश की सत्ता इन 5-6%
काले
बनियों के इर्द गिर्द ही रही
है. किसानों
ने इक्का दुक्का प्रयास किए
भी परंतु उनके प्रयास इन
षड्यंत्रकारियों ने असफल कर
दिये.
इन
मुट्ठी भर लोगों
के सबके आपस में तार
मिले हुए हैं चाहे वह किसी भी
राजनीतिक दल में
हो. 22
अप्रैल
2010 को
दिल्ली में एमसीडी
की एक भव्य इमारत का उदघाटन
तत्कालीन गृह मंत्री पी.चिदम्बरम
द्वारा किया गया और इस इमारत
का नामकरण डॉक्टर श्यामा
प्रसाद मुखर्जी के
नाम "डॉक्टर
श्यामा प्रशाद मुखर्जी सिविक
सेंटर"
किया
गया.
दिल्ली
में श्यामा प्रसाद
मुखर्जी के नाम से पहले से ही
एक बड़ी सड़क नामकरण है,
ऐसे ही
दिल्ली में डॉक्टर
हेडगेवार के नाम
से एक मार्ग और एक हॉस्पिटल
नामकरण है.
जबकि
दिल्ली हमारी और हमारे ही
लोगों के नाम से
शायद ही कोई मार्ग या इमारत
खोजने से मिले.
इन लोगों
ने कौन सी शहादत दी कब दी पता
नहीं परंतु इनको प्रोजेक्ट
ऐसे किया जा रहा है जैसे कि
देश आज सिर्फ और सिर्फ इनकी
बदौलत है.
समझ नहीं
आता कि सबसे बड़ा देश
भक्त कौन हैं?
वो जिसने
देश को एक रखने के लिए अपना सब
कुछ न्योछावर कर दिया या फिर
वो लोग जिनहोंने
देश का धर्म के नाम पर बंटवारा
करवाया?
देश
में जिन जातियों
को आरक्षण मिला हुआ है वे
जातियाँ आज तक उस
मुकाम तक नहीं पहुँच पाई जहा
ये 5-6% लोग
हैं.
लोकतन्त्र
के चारों स्तंभों
पर इन मुट्ठी भर लोगों
का कब्जा है.
देश का
कोई ऐसा बड़ा स्कैम नहीं जहाँ
ये 5-6%
आबादी
वाले लोग न मिलें
और उल्टा हमें ही
राष्ट्रवाद का पाठ सिखाते
हैं.
हमारा
ध्यान इस तरफ ना जाए इसलिए ये
लोग हमारा ध्यान धर्म के नाम
से भटकाते हैं.
4 साल
पहले लोक सभा में
जाति आधार पर जनगणना करवाने
का मुद्दा उठा था जिसका सबसे
पहले सिर्फ इन्हीं
लोगों ने विरोध किया
था, क्योंकि
यह नहीं चाहते कि
लोगों के सामने
सच्चाई आए,
लोगों
को उनकी शक्ति का एहसास हो.
इसी धोखे
के कारण ये अल्पसंख्यक देश
के प्रधानमंत्री की कुर्सी
तक पहुँच जाते हैं.
अगर लोगों
को उनकी शक्ति का एहसास हो गया
तो 'जिसकी
जितनी संख्या भारी,
उसकी
उतनी हिस्सेदारी'
का सवाल
उठेगा जिससे इन्हें
हर प्रकार से नुकसान होगा.
इस नक्शे
में 1931
में
हुई जनगणना के आधार सभी जातियों
की आबादी दर्शाई हुई है जिसमें
हम देख सकते हैं यह लोग कहीं
भी इकट्ठी संख्या में
नहीं हैं.
ये लोग
कहीं भी बहुसंख्यक नहीं हैं
फिर भी सब जगह सत्ता में
या नौकरियों में
सबसे ज्यादा इनकी भागीदारी
है. हरियाणा
में भी इन लोगों
ने सोची समझी चाल के तहत एक
अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री
बना दिया और बहुसंख्यक देखते
रह गए.
ऐसे ही
महाराष्ट्र में
किया.
यदि अब
भी नहीं जागे तो आगे इससे भी
बुरा हाल होगा.
चौधरी
छोटूराम,
डॉक्टर
अंबेडकर,
चौधरी
चरण सिंह,
ताऊ देवी
लाल, मा.
कांशी
राम आदि सब इस मुकाम तक सिर्फ
इसलिए पहुँच पाए क्योंकि उन
लोगों ने इन
षड्यंत्रकारियों की चाल को
समझा और अपने लोगों
को धर्म के नाम से बहकने से
बचाया,
अपने
लोगों को उनकी ताकत
का एहसास करवाया.
इसलिए
हमें ये जाट-दलित
या अन्य किसी संप्रदाय से ना
उलझते हुए अपनी असली ताकत को
समझना होगा.
जिसने
सारी उम्र हमें ठग
के खाया हम उसकी बातों में
बहक कर अपने उस दलित भाई से
झगड़ते हैं जो सारी उम्र हमारे
खेतों में
हमारे साथ कंधे से कंधा मिला
कर कमाया.
किसान
कमेरों की तरक्की
तभी हो सकती है जब वे इन लुटेरों
की सोच छोड़ चौधरी छोटूराम की
सोच पर अमल करें.
चौधरी
छोटूराम ने कहा था-
"हिंदुओं,
मुसलमानों
और सिक्खों को गैर धार्मिक
और आर्थिक हितों पर संगठित
होना होगा."
किसान
कमेरों को इस पर अमल
करना होगा,
यदि नहीं
किया तो इनका ऐसे ही शोषण होता
रहेगा और राजा तो क्या एक दिन
किसान कमेरों को
रंक बनने के लिए भी इनकी जी
हजूरी करनी पड़ेगी.
(लेखक : राकेश सांगवान) |
(Unionist Party से 1937 में बनी विधान सभा/परिषद के सदस्यों का ग्रुप फोटो) |
अन्य संबंधित आलेख:-
सर छोटूराम - किसान और कमेरे
No comments:
Post a Comment