"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


22 July 2017

Our Social Organisations - हमारी सामाजिक संस्थाएँ


सामाजिक संस्थाओं का बहुत महत्व होता है. समाज के विकास में उनकी एक सशक्त भूमिका होती है जब वे बहुत ही जीवंत और सक्रिय रूप से स्पष्ट नज़रिए और बड़े लक्ष्य के लिए कार्य कर रही हों.
अनुभव में आया है कि किसी भी सामाजिक संस्था के सभी सदस्य एक साथ इकाई के रूप में कार्य नहीं करते. सक्रिय सदस्य बहुत कम होते हैं. उनमें से भी ऐसे सदस्य बहुत कम होते हैं जो स्वतःस्फूर्त (Self Motivated) हों. मैनेजमेंट के अध्ययन बताते हैं कि ख़ुद ही आगे बढ़ कर कार्य करने वाले सदस्यों की संख्या लगभग 5% होती है.
मेघ समाज में कार्य कर रही अधिकतर संस्थाओं की गतिविधियां बहुत कम है. वैसे भी उनकी रिपोर्टिंग एक तो कम होती है दूसरे जो होती भी है उसमें पर्याप्त विवरण नहीं होता. यही कारण है कि वे डिफंक्ट-सी नजर आती हैं. दूसरी ओर उनका नज़रिया इतना तंगदिली वाला है कि वे किसी भी मक़सद से एक दूसरे के साथ अपना मंच साझा करने से कतराती हैं. उनकी चौधराहट कितनी भी मरियल क्यों न हो वो अपने खोल में खुश है.  इससे मेघ समाज की युवा पीढ़ी बेचैन है. कुछ युवाओं ने टेलीफोन पर अपनी भावनाएं बताई हैं.
किसी सामाजिक संस्था के पदाधिकारी के तौर पर मेरा अनुभव बहुत कम है. लेकिन मैंने कुछ सामाजिक संस्थाओं के कामकाज को नजदीकी से देखा है. उनके सक्रिय कार्यकर्ता अधिकतर साठ पार के होते हैं और नए आइडियाज़ को लेकर उनकी रफ्तार बहुत धीमी होती है. वे नई टेक्नोलॉजी और उसके प्रयोग से वाकिफ़ नहीं होते जो प्रतिदिन बदल रही है. वे उससे बचते हुए निकलते हैं. इसमें उनका दोष नहीं. आखिर उम्र भी कोई चीज है.
युवाओं की समस्याओं का स्वरूप बदल चुका है. वे कई कारणों से पुराने लोगों के साथ नहीं चलते, नहीं चल सकते. उनका जीवन संघर्ष पहले के मुकाबले बहुत अधिक है और उसके नए आयाम (डायमेंशंस) हैं. सीधी बात है कि सामाजिक कार्य के लिए वे समय एफ्फोर्ड नहीं कर सकते. दूसरे आजकल वे जिस प्रकार के वातावरण में रह रहे हैं उसमें उन्हें मानद (honorary) सामाजिक कार्य की प्रासंगिकता दिखाई नहीं देती. जो कुछ उन्होंने पढ़ा है वो भोजन बन जाए यही उनकी प्राथमिकता होगी. सीनियर्स और युवाओं के बीच तालमेल हमेशा से मुश्किल रहा है. ऐसी हालत में सीनियर्स सामाजिक कार्य के लिए अधिक उपयोगी हो जाते हैं.
वैसे तो पचास पार के व्यक्तियों में अक्सर कुछ महत्वाकांक्षाएँ (एंबिशंस) उभर आती हैं जो उन्हें कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं. कुछ तो बड़ी सामाजिक/राजनीतिक महत्वाकांक्षा के मालिक होते हैं, कुछ के लिए यह टाइमपास होता है और कुछ गंभीर कार्य में विश्वास वाले होते हैं. लेकिन एक फैक्टर उन पर तब भारी पड़ता है जब उनका साथ देने वाले कार्यकर्ता कम रह जाएँ. इससे हौसला कम होता जाता है और एक-दूसरे पर दोष मढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है. लेकिन वे संस्थाएँ ऐसे हालात में भी बेहतर काम कर पाती हैं जो अपना रिकार्ड सिस्टेमैटिक तरीके से रखती हैं और कार्य को नियमित बनाती हैं. इससे कार्यकर्ताओं पर बोझ कम पड़ता है.
एक अन्य बात भी अक्सर देखी गई है कि सामाजिक संस्थाएँ अपने लिए ऐसे लक्ष्य निर्धारित कर लेती हैं जिनके बारे में पर्याप्त जानकारी उन्हें नहीं होती. ये लक्ष्य कई बार ऐसे होते हैं जिनमें अग्रिम रूप से विशेषज्ञ प्लानिंग की दरकार होती है. यानि लक्ष्य की साध्यता के बारे में विचारों की स्पष्टता ज़रूरी होती है. कई बार बड़ी संख्या में सदस्यों से प्राप्त भावुकता भरे सुझावों को लक्ष्य बना लिया जाता है जिसके पीछे व्यावहारिक नज़रिया नहीं होता. इससे बाद में निराशा पैदा होती है.
सच यह भी है कि बड़े सपने बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति की बड़ी वजह बन जाते हैं.🙏

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