जब पहली बार पता चला कि डॉ. ध्यान सिंह ने जम्मू में स्थित हमारी देरियों पर अपने शोधग्रंथ में लिखा है तो बड़ी खुशी हुई थी. उसे पढ़ कर अच्छा लगा कि कुछ तो लिखा गया है. कुछ होना एक बात होती है और उस होने पर कुछ लिखा होना बिलकुल दूसरी बात. इसे दस्तावेज़ीकरण कहते हैं. मैंने उस पर एक प्रेज़ेंटेशन बनाई थी.
प्रेज़ेंटेशन बनाने से पहले मैंने ताराराम जी से पूछा था कि क्या मेघवालों में भी ऐसी देरियाँ होती हैं तो उन्होंने हाँ में जवाब दिया. उन्होंने बताया था कि उनके यहाँ देहुरियों को देवरे कहा जाता है. बिहार की एक अच्छी कवियित्री और ब्लॉगर अमृता तन्मय ने अपनी ऑब्ज़र्वेशन बताई थी कि ऐसे स्ट्रक्चर पूरे देश में पाए जाते हैं. बिलकुल यह बहुत महत्पूर्ण था. दक्षिण भारत की ओर यात्राओं के दौरान ऐसे स्ट्रक्चर मैंने भी कई जगह देखे हैं. ताराराम जी ने जो एक अलग बात बताई वो यह थी कि ऐसे स्ट्रक्चर वास्तव में भारत में पाई जाने वाली स्तूप परंपरा के ही हैं. पहली बार में स्तूप की जो छवि मन में बनती है उससे ताराराम जी की बात मेल खाती प्रतीत नहीं होती थी. लेकिन जैसे-जैसे जानकारी बढ़ी पता चला कि स्तूप का आकार तो चूल्हे के बराबर भी होता था. कुछ स्तूपों को तो बाद में शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया गया और उन पर बने मंदिरों पर ब्राह्मणों का अधिकार था.
राजेंद्र प्रसाद सिंह जी ने बताया है कि (विशेषकर) बिहार और झारखंड क्षेत्र में ऐसे अनेक मनौती स्तूप खुदाई में मिले हैं. एक को तो पुरातत्व विभाग ने शिवलिंग ही बता दिया है.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह से संपर्क में आने के बाद इस उलझन की कई गांठें खुलती चली गईं. वे लिखते हैं, “देउर मूलतः प्राकृत का देहुर है. देहुर का संस्कृत रूप देवगृह है. देउर कोठार का अर्थ है - देवगृहों का भंडार. कोठार का अर्थ भंडार है. देव मूल रूप से बुद्ध का सूचक है जो हमें देवानंपिय में प्राप्त होता है. देउर कोठार वाक़ई स्तूपों का भंडार है. यह बात खुदाई से पहले भी वहाँ की जनता जानती थी. तभी हमारे पूर्वजों ने उसका नाम देउर कोठार दिया है. इतिहासकारों ने माना है कि अनेक स्तूप मौर्यकालीन हैं.”
एक और बात ध्यान देने योग्य है कि ‘देउर’ शब्द में जे ‘ए+उ’ आता है उनकी स्वरसंधि से ‘व’ का निर्माण होता है इस लिए उससे ‘देवरा’ शब्द बना है इसमें संदेह नहीं होना चाहिए.
जहाँ तक देउर, देवरे, देहुरे आदि के बौध सभ्यता से जुड़े होने का सवाल है अपनी ओर से कुछ कह कर किसी को सुर्ख़ाब के पंख लगाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उसका फैसला इतिहास के प्राकृतिक प्रवाह और इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए. फिलहाल इतना कहना काफी है कि कई बार किसी जनसमूह का किसी विशेष प्राचीन सभ्यता से जुड़े होने का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाता लेकिन भाषा-विज्ञान संकेत दे देता है कि हमारी भाषा और परंपराएँ किस सभ्यता से प्रभावित हुई हैं.
No comments:
Post a Comment